संसद के लिए महज कानून बना देना ही सब कुछ नहीं है. वर्तमान में बने कानूनों का प्रभावकारी तरीके से लागू होना ज्यादा जरूरी है. यह काफी चुनौतीपूर्ण है. अगर ऐसा नहीं हो पाया तो देश में कानून का शासन स्थापित करने व न्याय सिद्धान्तों की अवधारणा सुनिश्चित करने के सारे प्रयास बेमानी होंगे.
साथ ही इससे देश में व्यथित-विचलित करने वाली अराजकता, अव्यवस्था व बेतरतीबी फैलेगी जिस पर नियंत्रण करना असंभव होगा. दरअसल कानून का डर बहुत जरूरी है और यह सब पर लागू होना चाहिए फिर चाहे आप कोई भी हों. इसके साथ-साथ निष्पक्ष न्याय प्रक्रिया की भी आवश्यकता है ताकि न्याय न सिर्फ हो, बल्कि होते हुए दिखे भी.
न्याय किसी समाज का पहला सद्गुण होता है. समाज में न्याय विभिन्न आदर्शों और मूल्यों के बीच बराबरी लाने की भूमिका निभाता है. समाज में समन्वय बनाने करने की कड़ी में न्याय का काम यह सुनिश्चित करना भी है कि सभी को समाज में उनकी सही जगह मिले तथा भौतिक संसाधनों पर भी उनका समान अधिकार हो. इसमें कहीं भी और किसी भी आधार पर कोई विभेद न हो.
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न्याय से ये मापदंड भी तय होते हैं कि किस व्यक्तित्व के लिए किस तरह की योग्यता, आवश्यकता या क्षमता को अपनाया जाए ताकि न्यायिक-शासन-व्यवस्था सभी के लिए उपयुक्त बने. इससे समाज में समरसता तथा सामंजस्य स्थापित हो सके ताकि राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था स्थिर रहे. इन सब प्रश्नों का उत्तर न्याय की अवधारणा में निहित होता है.
किसी समाज के राजनीतिक मानकों, मूल्यों और आदर्शो की स्थापना में न्याय की मुख्य भूमिका होती है. स्वतंत्रता, समानता, अधिकार, शासन प्रणाली, मानवाधिकार, धर्मनिरपेक्षता, सुशासन जैसे विषय को तार्किक आधार न्याय ही प्रदान करता है. न्याय पर ही राष्ट्र की आधारशिला टिकी है. कानूनों का न्यायपूर्ण होना व स्वतंत्र न्यायपालिका का होना भी न्याय की अनिवार्य शर्त है. अगर ऐसा हो गया तो आम लोगों के लिए कानून एक क्रांतिकारी कवच बनेगा और उन्हें सही मायनों में न्याय मिल सकेगा.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की सांख्यिकी विचलित करने वाली है. राष्ट्रीय स्तर पर कुल दर्ज मुकदमों में 55 प्रतिशत से ज्यादा आरोपियों को अदालत ने दोषमुक्त करार दिया है और उनकी रिहाई हुई है. यानि केवल 45 प्रतिशत आपराधिक मामलों में ही अदालत ने आरोपियों को दोषी करार दिया है.
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बलात्कार जैसे संगीन मामलों में केवल 28 प्रतिशत आरोपियों को ही अदालत ने दोषी माना है. पिछले कुछ सालों की तुलना में देखें तो यह प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है. दोषमुक्त तय कर देने वाले आरोपियों में ज्यादातर अभियोगी काफी समय जेल में बिता लेते हैं. आज देश भर की 1387 जेलों में लगभग सत्तर प्रतिशत कैदी विचाराधीन कैदी के रूप में कैद हैं. इनकी सजा अभी तय होने में सालों लगेंगे. फिर भी ये जेल में बंद हैं. ये दोषमुक्त भी करार दिए जा सकते हैं-फिर भी ये जेल में बंद हैं.
इसके विपरीत अमेरिका में केवल सात प्रतिशत आरोपियों को ही दोषमुक्त करा दिया गया. 93 प्रतिशत मुकदमों में सजा ही दी गई है. जापान में आरोपियों को दोषी मानने की यह प्रतिशतता 99 प्रतिशत से भी ज्यादा है. ब्रिटेन में यह प्रतिशतता लगभग 80 प्रतिशत के आसपास है. कई यूरोपीय देशों में भी यह प्रतिशतता 80 से 90 के बीच है.
ऐसे में भारत में न्याय की बात तो हर दिन बेमानी साबित हो रही है. जो अभियोगी जेल में समय बिताकर या मुकदमा लड़कर दोषमुक्त मान लिए जाते हैं जिसकी संख्या 55 प्रतिशत है तो ये माना जाए कि इनको झूठा ही फंसाया गया है. इनके संवैधानिक अधिकारों के उल्लंघन की भरपाई कौन करेगा और इसके लिए जिम्मेदारी व उत्तरदायित्व भी किस पर तय होगा, ये प्रश्न जब तक दिमाग में कौंधेंगे, तब तक न्याय अपूर्ण रहेगा.
आजादी के सत्तर सालों के बाद भी किसी भी निर्दोष को उठाकर झूठे अपराधों में फंसा देना आम बात हो गई है. बाद में सालों-साल उसकी जिदगी न्याय पाने की लड़ाई में बद से बदतर होती जाती है. समाज और परिवार बेवजह उसे हिकारत की नजरों से देखने लगता है. वह सालों साल जेल में सजा काटता है उस अपराध की जो उसने किया ही नहीं. चरम तो तब होता है जब न्यायालय भी बिना किसी परिसीमा के निर्णय देने पर खरा नहीं उतर पाता जो उस निर्दोष व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण है.
ऐसे में सरकार की प्रतिबद्धता और न्याय का शासन स्थापित करने के सभी संस्थानिक प्रयासों पर सवालिया निशान खड़ा होना स्वाभाविक है.
(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं और रायन स्कूल मामले में प्रद्युम्न के परिवार की तरफ से पैरवी कर रहे हैं. )
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