'पुलिस सुधार' का ज़िक्र भारत में प्रशासन को लेकर होने वाली कमोबेश हर चर्चा में होता है. बल्कि यूं कहें कि कुछ ज्यादा ही होता है, तो गलत नहीं होगा. सवाल ये है कि ये सुधार किस के नजरिए से होगा? क्या ये सुधार भारतीय पुलिस व्यवस्था की सबसे आला कौम आईपीएस अफसरों में होना चाहिए? या फिर सिपाहियों तक को इस सुधार के दायरे में लाया जाना चाहिए? इन सवालों के जवाब ऐसे हैं, जो पूरी तरह से किसी एक खांचे में फिट नहीं बैठते.
ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट ने तीन जुलाई के अपने आदेश में 'सुधार' का मतलब ये समझा कि पुलिस महानिदेशक के चुनाव में पारदर्शिता हो और डीजीपी का कार्यकाल तय हो. ये तो वैसा ही हुआ कि किसी बीमारी के कारण का गहराई से पता लगाकर उसका निदान करने के बजाय महज उसके लक्षणों का उपचार किया जाए.
पुलिस व्यवस्था के अगुवा सिपाही
किसी भी नजरिए से देखें, पुलिस महानिदेशक या डीजीपी का पद भारतीय पुलिस व्यवस्था का केंद्र बिंदु नहीं नजर आता. हमारे देश की पुलिस व्यवस्था के असल अगुवा तो सिपाही हैं.
अगर आप को इस बात पर कोई शक हो, तो आंकड़ों पर नजर डालें. 2008 के मुंबई आतंकी हमले में एक सिपाही की बहादुरी की वजह से ही अजमल कसाब को पकड़ा जा सका. इस सिपाही की वजह से ही हम दुनिया भर में पाकिस्तान को बेपर्दा कर सके. माओवादियों से होने वाली मुठभेड़ें हों, या जम्मू-कश्मीर में आतंकियों से मुकाबला. आम तौर पर ये सिपाही वर्ग ही होता है, जो हमारी पहली रक्षा पंक्ति में खड़ा होता है. पहली गोली खाता है. आतंकवाद का सबसे ज्यादा असर झेलता है.
फिर आखिर डीजीपी या दूसरे आला पुलिस अफसरों का कार्यकाल नियत करने पर इतना जोर क्यों है? सुप्रीम कोर्ट का राज्यों को ये आदेश कि वो डीजीपी का चुनाव केंद्रीय लोक सेवा आयोग के जरिए ही करें और डीजीपी का कार्यकाल तय हो, कई मायनों में गड़बड़ है. ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट ने ये मान लिया है कि डीजीपी की नियुक्ति की प्रक्रिया पारदर्शी बनाकर और उसका कार्यकाल तय करने से हमारी पुलिस लोगों की चिंताओं को बेहतर ढंग से समझेगी.
अफसरों का कार्यकाल तय होने के नुकसान ज्यादा
हकीकत ये है कि ऊंचे पदों पर बैठे पुलिस अफसरों का कार्यकाल तय हो जाने के फायदे कम और नुकसान ज्यादा हैं. इसकी वजह जानने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं. कार्यकाल तय होने पर इनमें से ज्यादातर पुलिस अधिकारी, अपनी कुर्सी को सुरक्षित मान कर आराम से बैठ जाते हैं और अपने राजनैतिक आकाओं का हुक्म बजाते हैं. फिर पुलिस इन आकाओं की निजी जागीर बनकर रह जाती है.
इसकी मिसाल सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय ने बनाई है. इन दोनों ही एजेंसियों के एक के बाद एक प्रमुख, कार्यकाल तय होने के बाद एजेंसी का कामकाज बेहतर करने में नाकाम रहे. वो कोई सुधार नहीं कर सके. बल्कि इन एजेंसियों के प्रमुखों का कार्यकाल तय होने के बाद तो हालात और बिगड़ गए. हकीकत ये है कि पुलिस सुधार का मतलब हमारे पूरे सुरक्षा ढांचे में बदलाव लाना होना चाहिए. इस वक्त हमारी सुरक्षा व्यवस्था बेहद कमजोर और नाजुक हालत में है. ये बहुत भ्रष्ट और विकृत हो चुकी है. इसके कसूरवार हमारे राजनेता हैं, जिन्होंने पुलिस को अपने सियासी हित साधने वाले लठैत बना लिया है. लेकिन इससे भी खतरनाक बात ये है कि आईपीएस और राज्यों के पुलिस अफसर इन राजनैतिक आकाओं से सांठ-गांठ कर के पुलिस को राजनीति का हथियार बन जाने देते हैं.
यही वजह है कि ज्यादातर राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में दिए गए आदेश की अनदेखी की है. प्रकाश सिंह बनाम भारत सरकार के उस मुकदमे पर अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र और राज्य सरकारों को सात निर्देशों का अनुपालन करने को कहा था. इनके दो प्रमुख मकसद थे. पहला, पुलिस फोर्स की स्वायत्तता और जवाबदेही तय हो.
सिपाहियों और दरोगाओं की ट्रेनिंग की सबसे ज्यादा अनदेखी
सुप्रीम कोर्ट का वो ऐतिहासिक फैसला अब महज इतिहास बनकर रह गया है. इस अनदेखी का सबसे बुरा नतीजा ये हुआ है कि आम नागरिक से जिस सिपाही का रोजाना सामना होता है, उनकी भलाई के लिए कोई काम नहीं हुआ. जैसे कि, पुलिस के सिपाहियों और दारोगाओं की ट्रेनिंग पुलिस सुधार का सबसे अनदेखा पहलू है. सबसे ज्यादा आबादी वाले सूबे उत्तर प्रदेश की पुलिस फोर्स कई देशों की पुलिस से भी ज्यादा बड़ी है. लेकिन यहां पुलिसवालों की ट्रेनिंग बेहद चलताऊ ढंग से होती है. राज्य में पुलिस ट्रेनिंग के ज्यादातर केंद्रों में सिपाहियों को ट्रेनिंग देने की बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं.
बिहार में एक बार पुलिस में भर्ती होने के बाद कोई सिपाही रिफ्रेशर कोर्स के लिए दोबारा ट्रेनिंग सेंटर नहीं भेजा जाता. वजह साफ है. इन पर काम का बोझ बहुत ज्यादा है. फिर ट्रेनिंग की सुविधाएं भी नहीं हैं.
ज्यादातर पुलिस थानों में बुनियादी सुविधाएं तक नहीं होतीं. यही कमियां टुच्चे किस्म के भ्रष्टाचार को जन्म देती हैं और पुलिसवालों का अपराधीकरण करती हैं. देश भर में छोटे-मोटे अपराधियों के फर्जी एनकाउंटर हमारे देश की पुलिस के अपराधीकरण और इंसानियत से महरूम हो जाने की मिसाल हैं.
अफसोस की बात ये है कि इन तमाम मुश्किलों में से एक का भी हल डीजीपी, आईजी या एसपी का कार्यकाल तय करने से नहीं निकलने वाला. इसके उलट, कार्यकाल तय होने से पुलिस अफसरों के बीच राजनेताओ की चापलूसी और पुलिस के अपराधीकरण को ही बढ़ावा मिलेगा. ये बात राजनेताओं के फायदे की भी होगी.
पुलिस सुधार की असल चुनौती सिपाहियों की सही ट्रेनिंग है, ताकि उनमें आत्मविश्वास बढ़े और वो अनुशासित हों. ताकि, उन्हें ये एहसास हो कि वो इस देश के कानून के सिवा किसी और के प्रति जवाबदेह नहीं हैं. फिलहाल तो इसकी उम्मीद न के बराबर है.
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