भारतीय प्रधानमंत्री ने म्यांमार जाने का फैसला ऐसे समय में किया है जबकि वहां नरसंहार जारी है. किसी ने उन पर दबाव नहीं बनाया, लेकिन वे वहां पहुंच गए और उस देश में उन्हें 48 घंटे बिताना है. अगर वे रोहिंग्या नरसंहार संकट से पैदा हुई बेचैनी को नहीं समझ नहीं पाते हैं तो यह वाकई किसी को स्वीकार्य नहीं होगा.
भारत की रोहिंग्या नरसंहार मामले में दिलचस्पी है क्योंकि तकरीबन 40 हजार संभावित शरणार्थी बांग्लादेश की सीमा से होते हुए भारत आने का इंतजार कर रहे हैं. तमिलों और बांग्लादेशियों के लिए देश के बड़े शहरों में ‘इनर सिटीज’ पहले से बसाए जा चुके हैं. लिहाजा रोहिंग्या मुसलमानों को बचाना न केवल मानवीय कदम होगा, बल्कि यह भारत में रह रहे मुस्लिम समुदाय और विश्वव्यापी इस्लामिक दुनिया भी अनुकूल होगा.
मोदी के लिए जो नुकसान होने की आशंका है वो ये कि सैन्य शासन और म्यांमार सशस्त्र बलों के कमांडर इन चीफ जनरल मिन ऑंग ह्ल्यांग के साथ पहले से गड़बड़ चल रही दोस्ती टूट सकती है. चीन में हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन से लौटते हुए मोदी म्यांमार पहुंचे हैं. ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान मोदी और शी जिनपिंग ने फूंक-फूंक कर कदम रखे. वहीं मोदी ने डोकलाम की घटना के बाद यह संदेश दिया कि वह बड़े भाई से नहीं डरते.
तय करनी होगी प्राथमिकता
बड़े फलक पर देखें तो यह बहुत विवेकपूर्ण और व्यावहारिक कदम नहीं है. लेकिन, अगर भारतीय आत्मविश्वास का प्रदर्शन ही बेहतर पैमाना है तो चीन निश्चित रूप से परेशान होगा क्योंकि यह यात्रा उसके नजरिए से वर्तमान सौहार्द्रपूर्ण संबंध के लिहाज से अच्छा नहीं है. लेकिन आगे बढ़ चुके मोदी को अब यह तय करना है कि उनकी प्राथमिकता व्यापार है या कि दान.
बाज़ार में चीन जैसे देश के साथ स्पर्धा करना आसान नहीं है जिसका सांस्कृतिक लोकाचार अब भी पहेली बनी हुई है. इस विषय पर फर्स्ट पोस्ट मजबूती से कहता है कि चीन की भारत पर बढ़त खत्म हो चुकी है.
बात यह भी है कि सैन्य अधिकारियों से निपटने के लिए कोई अथॉरिटी नहीं है. यहां तक कि आंग सू की ने भी आगे आकर रोहिंग्या नरसंहार की निन्दा करने के विषय पर संतुलित रुख अपना रखा है और दिलचस्प चुप्पी बनाए हुए है.
रोहिंग्या के लिए उठानी होगी आवाज
हाथ थामने और गले मिलने वाली तस्वीरें खिंचाने से स्थिति में बदलाव नहीं आने वाला है. अत्याचार की सूची लम्बी है और दिल दुखाने वाली है. सैनिक नरसंहार के सबूत मिटा रहे हैं. भागते ग्रामीण पुरुष और महिलाओं व बच्चों को गोलियां मारी जा रही हैं या फिर उन्हें नदियों में डुबोया जा रहा है. हज़ारों शरणार्थी बांग्लादेश उमड़े चले आ रहे हैं. रोहिंग्या के लड़ाकू सरकारी सैनिकों से संघर्ष कर रहे हैं लेकिन नुकसान बेचारे ग्रामीणों को ही झेलना पड़ रहा है. मृतकों की तादाद 400 पार कर चुकी है, जो बढ़ती ही जा रही है. घायलों और विस्थापितों की संख्या बेहिसाब है. माना जा रहा है कि इसकी संख्या डेढ़ लाख से दो लाख के करीब है.
अगर भारतीय प्रधानमंत्री शिब्बोले और सोडा पानी का मसला सुलझाते हैं और अपनी यात्रा को सीमित कर लेते हैं तो भविष्य में भारत प्राइस टैग को लेकर बीजिंग के साथ खड़ा हो सकता है. चीन के राजस्व में यांगून का योगदान बहुत ज्यादा है और भारत का स्थान दूसरा है.
इसलिए अगर मोदी इन दो दिनों का उपयोग करते हैं और कोई दर्दनिवारक उपाय निकालते हैं या फिर कोई रणनीति बनाते हैं जिससे वर्तमान नरसंहार रुक जाए, और किसी तरह से शांति लौट आए, तो इसकी तारीफ कई देशों में होगी और विश्वस्तर पर भारत मजबूती से खड़ा दिखेगा.
तुर्की ने भी मंगलवार की सुबह इसे नरसंहार करार दिया है. इतना ही नहीं नेक इरादे से की गयी इस पहल से भविष्य के लिए वाणिज्य और व्यापार का एक मजबूत प्लेटफ़ॉर्म तैयार होगा, जिससे भारत का आंतरिक सहकारी लोकउपक्रम पटरी पर आ जाएगा. दो टूक कहा जाए तो न तो भारत सरकार और न ही भारतीय जनता ने कभी म्यांमार की परवाह की है और न ही इन सब के बारे में कुछ जानती ही है.
अगर हम इस पर्दे को हटाना चाहते हैं तो यह मोदी के लिए एक अवसर है कि वह उस देश और उसके साम्राज्य को एक सीख दें. अगर आपमें यह क्षमता है तो महाशय, आप इसका उपयोग जरूर करें.
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