सरकार और संसद के मौन के दौर में अधिकांश बड़े वकील समलैंगिकता के पक्ष में लामबंद हैं. समलैंगिकता मामले पर बहस के दौरान पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कहा कि समलैंगिक सेक्सुअल माइनोरिटी हैं और उन्हें संवैधानिक संरक्षण मिलना चाहिए. उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट को धारा-377 तक सीमित नहीं रहते हुए, समलैंगिकता से जुड़े अन्य मुद्दों और अधिकारों पर भी विचार करना चाहिए. सवाल यह है कि कानून की व्याख्या के साथ कानून बनाने का काम भी यदि सुप्रीम कोर्ट में हो जाए तो फिर संसद की जरूरत ही क्या है?
अति न्यायिक सक्रियता पर संसद का मौन
2013 के फैसले में यह कहा गया था कि धारा-377 को अनापराधिक बनाने के लिए सिर्फ संसद के पास ही अधिकार हैं. कांग्रेसी सांसद शशि थरूर ने धारा-377 में बदलाव के लिए लोकसभा में निजी बिल पेश किया था. इस पर मार्च 2016 में हुई बहस के दौरान 73 सांसद उपस्थित थे. इनमें 58 ने विरोध, 14 ने समर्थन और एक सांसद ने बहिष्कार किया. तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद संसद द्वारा कानून बनाया जा रहा है तो फिर समलैंगिकता पर भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद संसद को ही तो कानून में बदलाव करने होंगे.
प्रधानमंत्री, विधि मंत्री और अनेक मंत्रियों ने सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक सक्रियता पर कई बार सवाल उठाए परंतु समलैंगिकता पर सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक सक्रियता पर सभी नेता मौन हैं. जब जनता की प्रतिनिधि लोकसभा ने समलैंगिकता पर कानून को बदलने से इनकार कर दिया, तो फिर सुप्रीम कोर्ट द्वारा उस निर्णय पर कोई भी पुर्नविचार एक नया इतिहास ही रचेगा.
केशवानन्द भारती के 13 जजों के फैसले को 5 जजों की संविधान पीठ कैसे बदले
केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों की बेंच भारतीय न्यायिक इतिहास में सबसे बड़ी बेंच मानी जाती है. इस बेंच द्वारा 1973 में दिए गए फैसले के अनुसार सरकार, संसद और सुप्रीम कोर्ट के बीच काम के बंटवारे की व्यवस्था है जो संविधान का बेसिक ढांचा है, जिसे संविधान संशोधन से भी नहीं बदला जा सकता.
समलैंगिकता के नाज फाउण्डेशन मामले में सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने संवैधानिक प्रावधानों और केशवानंद भारती मामले का हवाला देते हुए 2013 में यह कहा था कि, इस कानून पर सिर्फ संसद ही बदलाव कर सकती है. सुप्रीम कोर्ट के सभी जज बराबर की शक्ति रखते हैं और पांच जजों की बेंच मिलकर पांच गुना शक्तिशाली नहीं हो सकती. सवाल यह है कि 13 जजों की बड़ी पीठ द्वारा स्थापित कानूनी अनुशासन का, पांच जजों की संविधान पीठ द्वारा कैसे उल्लंघन किया जा सकता है?
सरकार बदलने के साथ संघ परिवार और कांग्रेसी नेताओं के सुर भी बदले
यूपीए सरकार के दौर में समलैंगिकता के विरोध में अनेक हलफनामे दायर किए गए, परंतु अब पी चिदंबरम और कपिल सिब्बल जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता इस मुद्दे की वकालत करने लगे हैं. दिल्ली हाईकोर्ट के तत्कालीन जज एपी शाह द्वारा समलैंगिकता के पक्ष में 2009 में दिए गए निर्णय को बाबा रामदेव समेत संघ परिवार के लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी.
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संविधान पीठ द्वारा की जा रही सुनवाई में सरकार द्वारा पक्ष नहीं रखे जाने को संघ का प्रगतिशील चेहरा बताते हुए इसे हिंदू बनाम मुस्लिम कट्टरता का रूप दिए जाने से राजनैतिक दलों का ढकोसला भी उजागर होता है.
ब्रिटिशकाल के सभी दमनकारी कानूनों और पुलिस सुधार पर बहस क्यों नहीं
सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2013 में दिए गए विस्तृत निर्णय के अनुसार समलैंगिकता के आरोप में सिर्फ 200 लोगों के खिलाफ ही आपराधिक कारवाई हुई. देश में अनेकों पुराने कानूनों के दुरूपयोग से आम जनता त्रस्त है, परंतु उनके लिए बड़े वकीलों द्वारा बहस नहीं की जाती. इस मामले पर सुनवाई के दौरान यह कहा गया कि मुंबई के मरीन ड्राइव में घूमने वाले समवयस्क जोड़े को पुलिस परेशान नहीं करे, इसलिए समलैंगिकता के कानून में बदलाव की जरूरत है.
दहेज उत्पीड़न एवं एससी/एसटी मामलों पर पुलिसिया दुरूपयोग को रोकने का आदेश देने वाले फैसलों पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ और सरकार पर फैसला पलटने की होड़ मची है. गिरफ्तारी के दुरूपयोग को रोकने का आदेश देने वाले जज एके गोयल ने रिटायरमेंट के भाषण में अपने फैसले को एडीएम जबलपुर मामले की तरह ऐतिहासिक बताया. पुलिस सुधारों और बेवजह गिरफ्तारी को रोकने के लिए कानून में सुधार की बजाए समलैंगिकता जैसे मामले पर बहस का ध्रुवीकरण देश में बढ़ रहे न्यायिक संकट को ही दर्शाता है.
(यह लेख पूर्व में प्रकाशित हो चुका है. आज धारा 377 का फैसला आने के मौके पर इसे दोबारा प्रकाशित कर रहे हैं.)
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