फिल्म पद्मावती इस वक्त पूरे देश में सुर्खियां बटोर रही है. इसकी वजह फिल्म को लेकर उठे विवाद हैं. इस फिल्म के कुछ किरदारों को तोड़-मरोड़कर पेश करने के आरोप लगे हैं. इस वजह से कुछ समुदाय भड़के हुए हैं. उन्हें लगता है कि फिल्म बनाने वालों ने उनकी सदियों की विरासत के साथ छेड़खानी की है.
मैं यह दावा नहीं कर सकता कि मैं ऐतिहासिक चीजों का बहुत बड़ा जानकार हूं. ऐसे में मैं किसी भी पक्ष की तरफ से दावे तर्क नहीं पेश कर सकता. हां, मेरा यह मानना है कि किसी भी कलाकृति को पेश करने के लिए जरूरी नहीं कि ऐतिहासिक तथ्यों को 100 फीसदी सही तरीके से पेश किया जाए.
खुद पद्मावती अपना बचाव करने के लिए है नहीं
जो समुदाय फिल्म का विरोध कर रहे हैं, वो पद्मावती के किरदार को तोड़ने-मरोड़ने के खिलाफ हैं. उनके तर्क सही हो सकते हैं, क्योंकि खुद पद्मावती अपना बचाव करने के लिए है नहीं. लेकिन इस मुद्दे पर मैं फैसलाकुन अंदाज में कुछ कह भी नहीं सकता. फिर भी इस बहस में मैं शामिल हो रहा हूं. क्योंकि मुझे लगता है कि यह मामला अभिव्यक्ति की आजादी का भी है. और यह आजादी एक लोकतंत्र में बेहद जरूरी है. इसी आजादी के होने पर कोई कलाकार अपने विचारों को पेश कर सकता है. वो खुलकर अपनी कला की नुमाइश करे, इसके लिए उसे इस बात का डर नहीं होना चाहिए कि उसका सिर काटने का इनाम रख दिया जाएगा.
अगर हमारे कलाकार और निर्देशक हमेशा डरे हुए रहेंगे, तो उनकी कलात्मक अभिव्यक्ति पर इस डर का असर होगा. ऐसा हुआ तो हमारी संस्कृति का पतन तय है. इन हालात में उन महान विभूतियों का सम्मान नहीं हो सकेगा, जिनकी उपलब्धियां और बलिदान हमारे देश की शानदार विरासत का हिस्सा हैं. फिर तो हम तमाम ऐतिहासिक घटनाओं को न तो नए सिरे से पेश कर पाएंगे, बल्कि उनका सही मूल्यांकन भी नामुमकिन हो जाएगा. अगर हम कला के प्रति सहिष्णु नहीं होंगे, तो कलाकार बेधड़क होकर अपनी कला की नुमाइश नहीं कर सकते.
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विवाद की वजह से फिल्म को देखने वालों की तादाद बढ़ जाएगी
फिल्मकारों और कलाकारों को धमकियां देने वाले अपने ही समुदाय को नुकसान पहुंचा रहे हैं. यह उन्हीं के खिलाफ जा रहा है. क्योंकि उनकी धमकियों और विरोध-प्रदर्शनों से फिल्म देश भर में चर्चित हो गई है. ऐसे में वो लोग भी यह फिल्म देखने जाने का मन बना लेंगे, जो शायद इससे पहले न जाते. अब तो विवाद की वजह से ही इस फिल्म को देखने वालों की तादाद बढ़ जाएगी.
हॉलीवुड में जब भी किसी फिल्म पर विवाद होता है, तो आम तौर पर विरोध करने वाले उसकी अनदेखी का विकल्प चुनते हैं. वो फैसला दर्शक पर छोड़ देते हैं. इसकी हालिया मिसाल डैनी बॉयल की फिल्म स्टीव जॉब्स है. स्टीव जॉब्स की पत्नी लॉरेन पॉवेल फिल्म की कहानी से नाखुश थीं. फिर भी उन्होंने कानूनी रास्ता अख्तियार करने के बजाय फिल्म की अनदेखी करने का फैसला किया, ताकि कोई विवाद न खड़ा हो. नतीजा यह हुआ कि फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बहुत बड़ी कामयाबी हासिल नहीं कर सकी. इसके मुकाबले एस्टन कचर की फिल्म जॉब्स ने बेहतर कारोबार किया. इस फिल्म को लॉरेन पॉवेल और एप्पल कंपनी का समर्थन हासिल था.
ऐसे विवादों में सरकार की भूमिका भी अहम हो जाती है. सरकार ने कई बार अभिव्यक्ति की आजादी में दखलंदाजी की है. सलमान रश्दी की किताब से लेकर छत्रपति शिवाजी महाराज की कलात्मक अभिव्यक्ति तक, सरकार ने कई बार अभिव्यक्ति की आजादी को सीमित करने की कोशिश की है. हर बार हवाला कानून और व्यवस्था बिगड़ने का दिया गया है. होना तो यह चाहिए था कि सरकार हंगामा करने वालों को काबू करती. ताकि, कानून-व्यवस्था बिगड़ने का खतरा ही खत्म हो जाता. सरकार अगर हिंसा की धमकी देने वालों से सख्ती से निपटती, तो हालात दूसरे होते. हमें निश्चित रूप से ऐसा देश नहीं बनना चाहिए, जहां फतवे और धमकियां देने वालों के हौसले बढ़ाने वाले कदम उठाए जाएं.
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आस्था के मुद्दों पर हम दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले ज्यादा संवेदनशील
वैसे बोलने की आजादी असीमित नहीं है. इसकी कुछ पाबंदियां भी हैं. हमें अपने अधिकार का इस्तेमाल करते वक्त इस बात का भी ख्याल रखना होगा. हमारे देश में मजहब बहुत संवेदनशील मसला है. धर्म का विवाद उठते ही हम बहुत असहिष्णु हो उठते हैं. हमारा गुस्सा भड़क उठता है. आस्था के मुद्दों पर हम दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले ज्यादा संवेदनशील हैं.
जब 2004 में मेल गिब्सन की फिल्म द पैशन ऑफ द क्राइस्ट आई थी, तो इस फिल्म को लेकर कई विवाद खड़े हो गए थे. इस फिल्म पर ऐतिहासिक तथ्यों और धार्मिक आस्थाओं से छेड़खानी के आरोप लगे थे. गिब्सन की फिल्म पर ईश निंदा की बातें होने के आरोप भी लगे थे. फिर भी मेल गिब्सन के धर्म से जुड़े लोगों ने उनका बायकॉट नहीं किया था. बल्कि यहूदियों ने उनका बहिष्कार किया था. हॉलीवुड में यहूदी बहुत मजबूत हालत में हैं. यहूदियों ने आरोप लगाया था कि मेल गिब्सन की फिल्म यहूदी विरोधी है. मुझे नहीं लगता कि अगर हमारे देश में ऐसी फिल्म बनी होती तो वो रिलीज भी हो पाती. किसी भी धर्म को लेकर हमारे निर्माता-निर्देशक काम करने के लिए आजाद नहीं हैं.
हमें एक ऐसा समाज बनाने की कोशिश करनी चाहिए, जिसमें धर्म को लेकर हंसी-मजाक, व्यंग्य और कहानी कहने की आजादी होनी चाहिए. लेकिन इन दिनों ऐसा माहौल बन गया है कि अभिव्यक्ति की आजादी तो दोयम दर्जे का अधिकार हो गई है. धर्म से जुड़े मसलों पर हम कुछ ज्यादा ही असहिष्णु हो गए हैं.
निर्देशक के सफाई के बावजूद उनकी बातें नहीं सुनी जा रही
पद्मावती फिल्म का विरोध करने वालों ने अब तक उसे देखा भी नहीं है. फिल्म निर्माताओं और कलाकारों ने कई बार सफाई दी, मगर विरोध-प्रदर्शनों का सिलसिला जारी है. निर्देशक ने भी सफाई दी है कि ऐतिहासिक तथ्यों से कोई छेड़खानी नहीं की गई है, फिर भी उनकी बातें नहीं सुनी जा रही हैं.
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इस मामले की अहम बात फिल्म का विरोध नहीं है. राजपूत समुदाय को फिल्म का विरोध करने का पूरा हक है. वो इसके लिए कानूनी रास्ता अख्तियार करने का लोकतांत्रिक अधिकार रखते हैं. दिक्कत हिंसक धमकियों से है. लोग कानून का पालन करने के बजाय विरोध के नाम पर उसका मखौल उड़ा रहे हैं.
एक सभ्य समाज के तौर पर हमें हिंसा को कोई जगह नहीं देनी चाहिए. फिर चाहे एमएनएस और शिवसेना की धमकियां हों. या दीपिका-संजय लीला भंसाली का सिर काटने पर राजपूत समुदाय की तरफ से करोड़ों के इनाम का एलान करना क्यों न हो.
किसी को भी कानून को अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं होना चाहिए.
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