शुक्रवार की सुबह जयपुर के नाहरगढ़ किले के पत्थरों पर कोयले से लिखे मिले वाक्य/नारे आज कुछ अलग सोचने को मजबूर कर रहे हैं. अभी इसका खुलासा नहीं हो पाया है कि इन्हें लिखने वाला/वाले वास्तव में कौन हैं. ये समाज में वैमनस्यता बढ़ाने और सौहार्द्र को कम करने वाले गैर-जिम्मेदाराना नारे हैं. नाहरगढ़ की चट्टानों पर लिखा था- ‘हम पुतले सिर्फ जलाते नहीं, लटकाते हैं पदमावती’
पूरी लाइन कुछ इस तरह थी- ‘पदमावती का विरोध करने वालों, हम सिर्फ पुतले नहीं लटकाते. हम में है दम’
पास में ही ये भी लिखा था- ‘पद्मवाती का विरोध’, ‘लुटेरे नहीं अल्लाह के बंदे हैं हम’
दरअसल, नाहरगढ़ किले के परकोटे पर एक शख्स का शव लटका हुआ था. पहली नजर में ये खुदकुशी का मामला लग रहा था. गले में प्लास्टिक के तारों का फंदा बनाकर दर्जनों फीट ऊंची बुर्ज के बाहर की ओर यानी पहाड़ी की तरफ शव लटका हुआ था. इस शख्स की पहचान चेतन सैनी के रूप में हुई है.
बताया जा रहा है कि चेतन सैनी जयपुर में ही शास्त्रीनगर का रहने वाला था. ये अपने घर से ही हैंडीक्राफ्ट और ज्वैलरी का काम करता था. पुलिस के मुताबिक चेतन ने आखिरी बार 23 नवंबर को शाम 5.30 बजे अपनी पत्नी से बात की थी. इसकी जेब से मुंबई का एक टिकट भी बरामद किया गया है.
डीसीपी, जयपुर (उत्तर) सत्येंद्र सिंह ने कहा कि पत्थरों पर लिखे शब्दों से चेतन सैनी की हैंडराइटिंग का मिलान भी किया जाएगा. घटनास्थल के पास एक पत्थर पर चेतन तांत्रिक भी लिखा हुआ मिला है. हालांकि चेतन के परिवार ने उसके किसी भी तरह की तांत्रिक गतिविधियों में शामिल रहने से इनकार किया है.
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सुसाइड से इनकार करते सवाल
पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट से खुदकुशी करने की शुरुआती थ्योरी गलत साबित हो चुकी है. पुलिस भी शुरू से ही सुसाइड और मर्डर दोनों दिशाओं में जांच आगे बढ़ा रही थी. इसके कई कारण थे मसलन-
- जिस तरीके से शव बुर्ज पर लटका हुआ था, उसे देखकर पुलिस मान रही थी कि मरने वाला शख्स अपने आखिरी वक्त में अकेला नहीं रहा होगा. फंदा बनाकर बुर्ज के बाहर की ओर लटकना अकेले आदमी के बस की बात नहीं. और फिर जहां शव लटक रहा था, वहां रात में कोई व्यक्ति अकेला जाते हुए भी कांपता है.
- दर्जन भर वाक्य/नारे पत्थरों पर कोयले से लिखे गए लेकिन जिन लोगों ने शव को देखा, उनका कहना था कि चेतन के हाथों पर कालिख नहीं लगी थी.
- मृतक के लिए पत्थरों पर 2-3 जगह लिखा है कि चेतन मारा गया. अगर कोई खुद लिखेगा तो प्रथम पुरुष में लिखेगा यानी मैं मर रहा हूं न कि मारा गया. इसका मतलब ये भी निकलता है कि उसे लटकाने के बाद पत्थरों पर ये बातें लिखी गई हो सकती हैं.
-चेतन के घर और पहचान वालों से शुरुआती पूछताछ में सामने आया है कि वो नशा नहीं करता था. और न ही वो इस फिल्म या दूसरे मामले को लेकर टेंशन में था.
ऐसे में उसके खुदकुशी की बात पहले ही समझ से परे थी. अब साफ हो चुका है कि चेतन का कत्ल किया गया है और चट्टानों पर लिखे शब्द कत्ल के पीछे के मकसद को भी साफ कर रहे हैं.
मर्डर का मोटिव- सांप्रदायिक हिंसा ?
फिल्म पद्मावती के संदर्भ में लिखे गए नारों के आधार पर शुरुआत में समझा गया कि फिल्म के विरोध के लिए चेतन ने खुदकुशी कर ली होगी. ‘हम पुतले सिर्फ जलाते नहीं लटकाते हैं’ जैसे नारों को भी इसी से जोड़ कर देखा गया, लेकिन घटनास्थल के आसपास के कुछ दूसरे पत्थरों पर लिखे नारों की इबारत को समझा गया तो कहानी में एकदम रोंगटे खड़े कर देने वाला ट्विस्ट आ गया.
चट्टानों पर व्यवस्था को चुनौती देते लिखे गए नारे साफ-साफ दर्शाते हैं कि लिखने वाले का मकसद क्या हो सकता है. इन्हें पढ़कर कोई भी यही समझेगा कि मकसद कुछ और नहीं, सिर्फ और सिर्फ सांप्रदायिक भावनाएं भड़काना और पद्मावती के विरोध को हिंसक बनाना है. कुछ नारों की बानगी देखिए-
‘लुटेरे नहीं अल्लाह के बंदे हैं, अपने मिशन पर निकले हैं
धरती का रंग बदल देंगे, काफिरों को मारेंगे, अल्लाह-अल्लाह’
ये तो सिर्फ झांकी है, अभी बहुत कुछ बाकी है
हमें लुटेरा कहने वालों, इंसाफ अल्लाह करेगा
हर काफिर अब मरेगा पद्मावती
अब बड़ा सवाल ये है कि पत्थरों पर लिखे इन शब्दों पर यकीन करें तो हिंसा फैलाने की कोशिश में जुटे दहशतगर्दों का अगला कदम क्या होगा. क्या वे बड़े पैमाने पर समाज में आग लगाने की कोशिश में हैं या फिर ये किसी सिरफिरे का दिमागी दिवालियापन भर है.
अगर ये किसी मानसिक विक्षिप्त की करतूत है तो भी खतरनाक तो है ही. क्योंकि सैकड़ों फीट खाई के ऊपर पचासों फीट ऊंचे बुर्ज पर एक शख्स की हत्या कर लटका देना और हिंसा को बढ़ावा देने वाली बातें लिखकर व्यवस्था को चुनौती देना हलके में तो कतई नहीं लिया जा सकता.
पिछले कुछ दिनों में जिस तरह समाज में वैमनस्यता का माहौल बढ़ता जा रहा है. उसे देखते हुए लगता है कि पद्मावती फिल्म के विरोध की आड़ में राजनेता ही नहीं असामाजिक तत्व भी अपना उल्लू सीधा करने में जुट गए हैं. कुछ ही महीने बीते हैं जब जयपुर में ही ट्रैफिक कंट्रोल करने की मामूली सी बात पर सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी थी. 4 दिन तक शहर के 14 थाना इलाकों में कर्फ्यू लगाना पड़ा था. फिर, ISIS के समर्थन में जयपुर के पास ही टोंक जिले में नारे भी लगाए जा चुके हैं.
अब ये तो पुलिस की जांच के बाद ही सामने आ पाएगा कि ये पद्मावती-अलाउद्दीन खिलजी के बहाने हिंदू-मुस्लिमों के बीच सांप्रदायिक हिंसा को हवा देने की कोशिश है या कुछ और, लेकिन एक बात और सामने आ रही है. वो ये कि रानी पद्मिनी के अपमान के नाम पर हो रहे विरोध प्रदर्शनों के बीच ही एक तबका अलाउद्दीन को अकबर से भी महान साबित करने में जुट गया है.
अब अलाउद्दीन खिलजी बन रहा हीरो!
अभी पिछले ही हफ्ते मेरे एक मुस्लिम दोस्त ने मुझे एक व्हाट्सएप संदेश फॉरवर्ड किया. इसका मजमून ये था कि खिलजी को सिर्फ आक्रांता नहीं समझा जाना चाहिए क्योंकि उसने बहुत से नेक और ऐसे काम शुरू किए जिनको आज लोकतंत्र में भी मंजूर किया गया है जैसे कि फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य या कृषि मंडियां.
ये सही है कि अलाउद्दीन खिलजी ने बहुत से ऐसे काम शुरू किए थे जिन्हें अमीर खुसरो ने भी सराहा था. आज के लोक कल्याणकारी राज्य की परिभाषा में भी ये कदम सटीक बैठते हैं. इनमें चाहे, जमाखोरों पर नकेल कसना हो या फिर मुनाफे को निर्धारित कर देना.
यही नहीं, लोकतंत्र में सुशासन का एक अभिन्न अंग है, वास्तविक समय में त्वरित फीडबैक. योजनाओं के सही क्रियान्वयन और उद्देश्यों की पूर्ण प्राप्ति के लिए जरूरी है कि फीडबैक व्यवस्था दुरुस्त रहे. खिलजी ने बरीद और मुन्हियों की नियुक्ति खासतौर से फीडबैक के लिए ही की थी.
लेकिन इससे अलाउद्दीन खिलजी के अत्याचारों पर पर्दा नहीं डाला जा सकता. अली गुरशप से अलाउद्दीन बने इस खिलजी ने सुल्तान बनने के लिए अपने ही चाचा जलालुद्दीन को धोखे से मारा. जियाउद्दीन बरनी लिखते हैं कि अमीरों को अपनी तरफ मिलाने के लिए खूब सोना बांटकर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया. खूत, मुकदम, चौधरियों के अधिकारों का हनन कर प्रशासनिक व्यवस्था को चरमरा दिया.
साम्राज्य विस्तार और स्थायी सेना के कारण अर्थव्यवस्था को खस्ताहाल कर दिया. जिन लोक कल्याणकारी कदमों का अब इसके प्रशंसक उत्साह से जिक्र करते हैं, अनेक इतिहासकारों की राय में वे सिर्फ दिल्ली तक सीमित थे. शायद यही वजह थी कि 1316 में उसकी मौत के महज 4 साल के अंदर सल्तनत ही नहीं, दुनिया से ही खिलजी वंश का खात्मा हो गया.
ऐसे में अब उसे थोड़े से वक्त के लिए सफल रही चंद योजनाओं के दम पर हीरो साबित करना और चित्तौड़गढ़ से मदुरै तक मचाए गए नरसंहारों को भुला देना किसी भी तरह न्यायसंगत नहीं हो सकता. न ही उसके समर्थन में हिंसा भड़काने की कोशिशों को ही इतिहास माफ कर पाएगा.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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