'मैं उम्मीद करता हूं कि हमारे रुख की पूरी तरह से तारीफ की जाएगी. राज्य में सभी तरह की हिंसा और नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा के पार से घुसपैठ खत्म हो जाएगी और शांति का माहौल होगा'
याद कीजिए कि किस तरह से तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अगस्त 2000 में रमजान महीने के दौरान जम्मू-कश्मीर में एकतरफा युद्धविराम का ऐलान किया था. उस वक्त प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, 'लंबे समय से चली आ रही हिंसा के इस दौर को खत्म करने में सहयोग मुहैया कराने के लिए मैंने गंभीर अपील की है. इस तरह की हिंसा के कारण कई लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी और राज्य की आबादी के तमाम हिस्सों- मुसलमान, हिंदू, बौद्ध और सिखों सभी समुदाय को इसका दंश झेलना पड़ा है.'
अटल बिहारी वाजपेयी की इस अपील का इस कदर असर हुआ है कि दिल्ली स्थित जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अब्दुल्ला बुखारी भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके. अटल बिहारी वाजपेयी की इस अपील के तुंरत बाद शाही इमाम बुखारी ने हिजबुल मुजाहिदीन के मुखिया सैयद सलाहुद्दीन को फोन कर इस शख्स से कश्मीर घाटी में हिंसा बंद करने की गुजारिश की.
युद्धविराम ने एक बार फिर जगाई उम्मीद की किरण
अब भारत सरकार ने एक बार फिर रमजान के पवित्र महीने के दौरान जम्मू-कश्मीर में सशर्त युद्धविराम का ऐलान किया है. ऐसे में मुश्किल चुनौतियों से जूझ रहे जम्मू-कश्मीर के लोगों के लिए रमजान की शुरुआती अवधि के दौरान सुखद बदलाव के लिए माहौल तैयार हो सकता है. केंद्र की मौजूदा सरकार ने राज्य की सुरक्षा में तैनात सैन्य बलों से कहा है कि रमजान के अगले 30 दिनों के दौरान इस क्षेत्र में वे (सुरक्षा बल) किसी तरह का अभियान शुरू नहीं करें या फिर इसको लेकर किसी तरह की सक्रियता नहीं दिखाएं.
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गौरतलब है कि रमजान के दौरान मुसलमान दिनभर उपवास रखेंगे और लगातार इबादत में व्यस्त रहेंगे. इस सिलसिले में केंद्र सरकार की तरफ से किए गए ऐलान के मुताबिक, वह उम्मीद करती है कि युद्धविराम की इस पहल में हर किसी का सहयोग मिलेगा और मुसलमान भाइयों और बहनों को बिना किसी तरह की दिक्कत के और शांतिपूर्वक रमजान मनाने में मदद की जा सकेगी. हालांकि, इस संबंध में जारी सरकार के बयान के मुताबिक, इस अवधि में अगर सुरक्षा बलों पर हमला किया जाता है या निर्दोष लोगों की जान की सुरक्षा के लिए जरूरी पड़ने पर सुरक्षाबलों के पास जवाबी कार्रवाई करने का अधिकार मौजूद रहेगा.
केंद्र सरकार की इस पहल से न सिर्फ परेशानी और तकलीफ में जी रहे कश्मीरी लोगों के लिए नई आशा की किरण जगी है, बल्कि यह देश के बड़े हिस्से में कश्मीर और वहां के लोगों को लेकर सहानुभूतिपूर्ण रुख की तरफ भी संकेत करता है. लिहाजा, अगर कश्मीर के आतंकवादियों या पाकिस्तान सेना के खिलाड़ियों की तरफ से केंद्र सरकार की इस पहल का सम्मान नहीं किया जाता है, तो इसे विंडबना ही कहा जाएगा.
सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं देने पर बेनकाब होंगे आतंकवादी
इस सिलसिले में जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने काफी सटीक बयान दिया है. उनका कहना है कि अगर आतंकवादी युद्धविराम की इस पेशकश का जवाब देने में नाकाम रहते हैं, तो इस बात का पूरी तरह से पर्दाफाश हो जाएगा कि वे 'लोगों के दुश्मन' हैं. युद्धविराम की खबर आने के बाद उमर अब्दुल्ला ने कहा, 'सभी राजनीतिक पार्टियों (बीजेपी को छोड़कर, जिसने इसका विरोध किया था) की मांग को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने एकतरफा युद्धविराम का ऐलान किया है. अब अगर आतंकवादी इस युद्धविराम का जवाब सकारात्मक अंदाज में नहीं देते हैं, तो वे कश्मीरी जनता के सच्चे दुश्मन के तौर पर बेनकाब हो जाएंगे.'
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दरअसल, न सिर्फ महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला जैसे सभी नेताओं, बल्कि कश्मीर के आम लोग भी केंद्र सरकार के इस फैसले की प्रशंसा कर रहे हैं. राज्य की जनता इसे शांति की पहल के लिए काफी स्वागतयोग्य कदम मान रही है. इसके अलावा, इसे कश्मीर विवाद के निपटारे की दिशा में बढ़ाया गया एक अहम कदम माना जा रहा है. लिहाजा, किसी भी तरह की हिंसा होने की स्थिति में अब पूरी तरह से जिम्मेदारी जम्मू-कश्मीर में सक्रिय आतंकवादी संगठनों की होगी. लोगों में इस बात को लेकर आम-सहमति नजर आती है कि शांति संबंधी इस ऐतिहासिक पहल के बीच हिंसा के लिए उकसाने और जानबूझकर गड़बड़ी फैलाने की खातिर किसी भी तरह की आतंकी कोशिश को वाकई में कश्मीर की जनता के प्रति दुश्मनी निभाने के तौर देखा जाएगा.
सिर्फ इस पहल से नहीं बनेगी बात
बहरहाल, जाहिर तौर पर युद्धविराम सिर्फ एक दोस्ताना पहल है और इसे राज्य में जारी हिंसा के दुश्चक्र को शांत करने या पूरी तरह से खत्म करने का आश्वासन नहीं माना जा सकता. हालांकि, यह कश्मीर घाटी में शांति प्रक्रिया को लेकर राजनीतिक सक्रियता के लिए जरूरी जमीन की पेशकश करता है और इससे कहीं न कहीं शांति के माहौल के लिए गुंजाइश बनने की उम्मीद बंधती है.
यह फैसला रमजान मनाने वाले शांतिप्रिय मुसलमानों को मदद मुहैया कराने के लिए लिया गया है, ताकि वे कम से कम इस त्योहार की 30 दिनों की अवधि के दौरान शांतिपूर्ण माहौल में रह सकें. लिहाजा, इस फैसले का अहम सकारात्मक पहल की तरह स्वागत किया जाना चाहिए. अब कश्मीरी मुसलमानों की भी जिम्मेदारी बनती है कि व उन ताकतों को अलग करें, जो आतंकवाद और हिंसा का सहारा लेने के कारण इस्लाम को बदनाम करते हैं. लिहाजा, दशकों से केंद्र सरकार और कश्मीर के बीच अविश्वास की जो खाई ज्यादा से ज्यादा चौड़ी हुई है, उसे अब कम किया जा सकता है.
बहरहाल, अगर भारत और पाकिस्तान के बीच जरूरी कूटनीतिक पहल नहीं होती है, तो अच्छी नीयत और अच्छी और पूर्वनियोजित सोच के साथ कश्मीर घाटी में शांति के लिए बढ़ाए गए इस कदम का कोई सार्थक नतीजा नहीं निकलेगा. दोनों देशों के बीच कूटनीतिक स्तर पर चीजों को आगे बढ़ाने से इस युद्धविराम को और स्थिरता मिल सकती है. युवा सामाजिक कार्यकर्ता और सूफी कश्मीरी अफान येसवी ने भी इस युद्धविराम की सफलता सुनिश्चित करने से जुड़ा जरूरी मुद्दा उठाया है. उन्होंने सवाल किया कि कश्मीर में सिर्फ रमजान संबंधी युद्धविराम की ही जरूरत क्यों है?
उनका कहना है कि जम्मू-कश्मीर की समस्या को सिर्फ ताकत और शौर्य भरे अंदाज से नहीं सुलझाया जा सकता है. उन्होंने लिखा है, 'सरेंडर किए गए आतंकवादियों के पुनर्वास के लिए पॉलिसी की जरूरत है. इस बात को महसूस किया जाना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर में काफी हद तक चीजों को दुरुस्त करने और भरोसा बहाली के उपायों की जरूरत है.'
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