भारत कृषि प्रधान देश है. ऐसे में किसानों को हल्के में लेना भारी पड़ सकता है. यह बात जगजाहिर है लेकिन विधानसभा चुनावों ने एकबार फिर मुहर लगा दी है. हालिया विधानसभा चुनावों में किसानों की बदौलत मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनी है.
किसानों की कीमत क्या होती है, यह अभी कोई कांग्रेस से पूछे. मध्यप्रदेश में आलम यह है कि सीएम पद का कार्यभार संभालने के 10 मिनट के भीतर कमलनाथ ने जिस पेपर पर साइन किया वह किसानों की कर्ज माफी का पेपर था. जब हर राजनीतिक पार्टी किसानों का मसीहा बनने की कोशिश कर रही है तब केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह किसानों को हल्के में ले रहे हैं.
मंत्री जी को फिक्र ही नहीं
संसद में एक सवाल के जवाब में राधामोहन सिंह ने कहा कि उनके पास इस बात की कोई जानकारी नहीं है 2006 से अब तक कितने किसानों ने आत्महत्या की है. संसद में यह मुद्दा तब उछला जब तृणमूल कांग्रेस के लीडर दिनेश त्रिवेदी ने पूछा कि 2016 से अब तक कितने किसानों ने आत्महत्या की और सरकार ने उनके परिवार के लिए क्या किया है?
इस सवाल के जवाब में कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने लिखकर संसद को बताया है, 'होम मिनिस्ट्री के तहत आने वाला NCRB इन आंकड़ों को जुटाता है. अभी तक वेबसाइट पर 2015 तक के ही आंकड़े मौजूद हैं. 2016 के बाद NCRB पर कोई रिपोर्ट अपलोड नहीं की गई है.' यह आलम तब है जब देश की 70 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है. हर साल होने वाली मौतों को 'एक्सिडेंटल डेथ एंड सुसाइड इन इंडिया' नाम की रिपोर्ट में अगले साल छपती है.
इस डेटा के मुताबिक, 2015 में करीब 8000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की थी. इसमें महाराष्ट्र का नंबर सबसे ऊपर है. वहां करीब 3030 किसानों ने अपना जीवन खत्म कर लिया. इसके बाद 1358 किसानों की मौत के साथ तेलंगाना और 1197 मौत के साथ कर्नाटक तीसरे नंबर पर है. किसानों के आत्महत्या करने की सबसे अहम वजह कर्ज का बोझ है. इस दौरान करीब 4500 कृषि मजदूरों ने आत्महत्या की थी.
किसान तो मरे ही नहीं
पिछले तीन साल में किसानों के कई आंदोलन हुए हैं. दिलचस्प है कि 2017 में मंदसौर के किसान आंदोलन में 5 किसानों की मौत पुलिस की गोली लगने से हुई थी. लेकिन NCRB के आंकड़ों में कोई जिक्र नहीं है. 2014 में NCRB ने 5,650 किसानों नेआत्महत्या की थी. 2014 से ही NCRB ने किसानों और कृषि मजदूरों के डाटा अलग करना शुरू कर दिया था.
2016 के नवंबर में नोटबंदी हुई थी. उसके बाद किसानों को भारी नकदी संकट से गुजरना पड़ा. इसके बाद 2017 में मंदसौर का आंदोलन हुआ. अपनी फसल की अच्छी कीमत ना मिलने की वजह से किसानों ने यह आंदोलन किया था. उस वक्त आलू और टमाटर एक रुपए किलो बिक रहे थे. नतीजा यह था कि किसानों को उनकी लागत भी नहीं मिल पा रही थी.
दो साल बाद भी किसानों की हालात तकरीबन वैसी ही है. महाराष्ट्र के प्याज किसान संजय साठे को एक क्विंटल प्याज के बदले 150 रुपए मिले. साठे ने कुल सात क्विवंटल प्याज बेचकर 1,118 रुपए जुटाए. अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए उन्होंने पूरी रकम पीएम नरेंद्र मोदी को मनी ऑर्डर कर दिया. किसानों से बेरुखी का नतीजा न तो पीएम मोदी से छिपा है और ना ही कृषि मंत्री से. अब देखना है कि वो चेतती कब हैं.
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