भारत में स्कूलों में बच्चों को शारीरिक दंड यानी कॉर्पोरल पनिशमेंट देना अवैध है क्योंकि ये एक तरह की हिंसा है. लेकिन एक नई स्टडी बताती है कि भारत में निम्न स्तर के परिवेश में पल रहे लगभग 80 प्रतिशत बच्चे स्कूलों में शारीरिक दंड झेलते हैं. यानी 80 प्रतिशत बच्चों की स्कूलों में पिटाई होती है.
ये हैं पिटाई के फैक्टर
एक एनजीओ अग्रसर की रिसर्च में पता चला है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले हाशिए पर पड़े बच्चों के अभिभावकों की गरीबी, स्कूलों में कम वेतन पर काम कर रहे टीचर, दूसरे राज्यों से आए प्रवासियों को लेकर बनी एक मानसिकता और स्कूलों में बिना हिंसा के अनुशासन बनाए रखने को लेकर ट्रेनिंग की कमी अप्रत्यक्ष रूप से पिटाई का मुख्य कारण बनती है.
इन 80 प्रतिशत बच्चों में से 43 प्रतिशत बच्चों ने बताया कि उनकी नियमित रूप से पिटाई होती है. टीचर उन्हें हफ्ते में कम से एक तीन दिन पीटते हैं. कुछ स्कूलों में तो रोजाना पिटने वाले बच्चों की संख्या 88 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है.
घर पर भी हिंसा का शिकार
इसके इतर इस रिपोर्ट में ये भी सामने आया है कि बच्चों की पिटाई बस स्कूलों में ही नहीं होती, उन्हें इसका सामना घर पर भी करना पड़ता है. 75% बच्चों ने बताया कि उनकी घर पर पिटाई होती है. वहीं, 71% अभिभावकों ने ये स्वीकार किया कि वो अपने बच्चों को पीटते हैं.
अग्रसर ने अपना ये सर्वे गुरुग्राम में दूसरे गरीब राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड और मध्य प्रदेश- से यहां रोजगार की तलाश में आने वाले निम्नवर्गीय परिवारों के 521 बच्चों और 100 अभिभावकों के बीच किया.
इस रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि भारत में कहीं भी इन हालत में रह रहे परिवारों की स्थिति ऐसी ही है.
इस रिपोर्ट में बताया गया है कि पिटने वाले बच्चों में से 53% बच्चे अपने अभिभावकों को कभी नहीं बताते कि उनकी स्कूल में पिटाई होती है.
बच्चों के सामने हिंसा को सामान्य बना रहे हैं शिक्षक
देखा जाए तो बच्चों को शारीरिक दंड देने का कोई लाभ तो नहीं है. ऐसा नहीं है कि बच्चे पिटने के बाद सुधर जाते हैं, या उनमें बड़ा बदलाव आ जाता है. हां, इसका बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव जरूर पड़ता है. स्कूल और घर में पिटने से बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है. इससे उनके व्यवहार और सामाजिकता पर भी गलत प्रभाव पड़ता है. उनके अंदर स्कूल को लेकर डर भी पैदा होता है.
सबसे बड़ी बात इससे उनके अंदर ये मानसिकता बन जाती है कि हिंसा सामान्य है और वो अपनी रूटीन लाइफ में ऐसे ही बन जाते हैं. वो आम तौर पर होने वाले हल्की शारीरिक और मानसिक हिंसा का फर्क भी भूल जाते हैं. वो पहचान भी नहीं पाते कि वो कितनी और किस प्रकार की हिंसा का शिकार हो रहे हैं.
इस रिपोर्ट में बताया गया है कि पिटने वाले बच्चों में से 53% बच्चे अपने अभिभावकों को कभी नहीं बताते कि उनकी स्कूल में पिटाई होती है.
1992 में भारत में यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन ऑफ राइट्स ऑफ द चाइल्ड, 1989 को अपना लिया था. इसमें स्कूलों में शारीरिक दंड को गैर-कानूनी बनाया गया था. भारत के राइट टू एजुकेशन एक्ट- 2009 के तहत स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने को कहा गया है. लेकिन भारत में अब भी स्कूलों में बच्चों की पिटाई आम बात है.
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