सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने 9 मई को पैसिव यूथेनेसिया यानी इच्छा मृत्यु को अपनी औपचारिक, संपूर्ण और अंतिम मंजूरी दी. इस विषय पर फर्स्टपोस्ट ने राष्ट्रीय अवार्ड विजेता पिंकी विरानी से बात की. पिंकी विरानी ने सैक्सुअल अटैक का शिकार होने के बाद 40 साल से निष्क्रिय जीवन जी रही नर्स अरुणा शानबाग की 'निकट 'मित्र के तौर पर जनहित याचिका दायर की थी. जिसके बाद साल 2011 में इच्छा मृत्यु पर ऐतिहासिक फैसला आया था. हालांकि शानबाग के लिए इच्छा मृत्यु की मांग तब तक के लिए अस्वीकार कर दी गई थी, जब तक संसद या सुप्रीम कोर्ट की पीठ इस पर व्यवस्था ना दे दें. 2018 का फैसला पहले के फैसले की पुष्टि करता है और इससे आगे तक जाता है.
अगर पिछला फैसला इच्छा मृत्यु पर ऐतिहासिक था, तो फिर 9 मार्च के फैसले की क्या अहमियत है?
यह कानून में एक संरचनात्मक बदलाव करता है. सात साल पहले इच्छा मृत्यु को वैधानिकता देने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला भीड़- जाति, वर्ग, संस्कृति, धर्म, चिकित्सीय से एकदम हटाकर इसे व्यक्तिगत अधिकार में तब्दील कर देता है. 9 मार्च का फैसला ना सिर्फ इसे कानूनी मान्यता देता है, बल्कि इससे भी आगे जाकर बौद्धिक संबल और महत्व देता है. 500 पन्नों से ज्यादा के इस फैसले को पढ़ने वाला कोई भी शख्स- और मैं भी- उनके बेहद शानदार तरीके से यह बताने के लिए शुक्रगुजार होगा कि जीवन के अधिकार में किस तरह ऐसा जीवन भी शामिल है जिसमें 'ऐसे सम्मान की ख्वाहिश की जाती है' और जिसका 'गरिमा के साथ मृत्यु से मिलन' होता है.
लाइलाज बीमारी से ग्रस्त किसी व्यक्ति के लिए इच्छा मृत्यु की मंजूरी देते हुए फैसले में यह भी कहा गया है, 'अस्तित्व का मतलब सिर्फ मौजूदगी नहीं है.' मैं अब भी इस विशालकाय फैसले और अनुच्छेद 21 के तहत आने वाले आजादी, निजता, मेडिकल निर्देश (अगर कोई चुनता है), इच्छा मृत्यु और सम्मान के साथ मरने के अधिकार पर मुग्ध होते हुए इसे पढ़ रही हूं.
लेकिन 2011 के फैसले को कुछ विरोध भी झेलना पड़ा था, सही है ना?
सिर्फ फैसले के नतीजे नहीं बल्कि इसके आने के तरीके को लेकर भी तर्क-वितर्क किया जा रहा है कि इसके लिए अपनाया गया तरीका संवैधानिक है या नहीं. जब मैंने 2009 में अरुणा शानबाग- जो कि एक चौथाई सदी से ज्यादा समय से दुनिया की सबसे बुरे सैक्सुअल अटैक पीड़िता के तौर पर निरंतर निष्क्रिय अवस्था (परसिस्टेंट वेजेटेटिव स्टेट- पीवीएस) में जीवन जी रही थीं, की 'निकट मित्र' के तौर पर याचिका दायर की थी, तो स्पष्ट रूप से उसके लिए इच्छा मृत्यु (उसे भोजन देना बंद करके ) की मांग की गई थी. मुझे बताया गया कि अन्य जनहित याचिकाएं भी विचाराधीन हैं, जिनमें इच्छा मृत्यु का व्यापक क्षेत्र (जिसमें पैसिव यूथेनेसिया भी है) शामिल है और जिसके लिए जीवित रहते की गई वसीयत भी जरूरी है.
2011 के पैसिव यूथेनेसिया पर दो जजों का फैसला आने के बाद- जिसमें पहली बार पीवीएस को मेडिको-लीगल शब्दावली में चिह्नित स्थिति के तौर पर शामिल किया गया था. यह फैसला आने के बाद शुरुआती याचिकाकर्ताओं में से एक दोबारा अदालत पहुंचा और यह कहते हुए अपने केस की फिर से सुनवाई की मांग की कि अब पैसिव यूथेनेसिया विधिमान्य हो चुका है. उस समय तीन सदस्यीय पीठ 2011 के फैसले से असहमत नहीं थी, हालांकि उन्होंने इसकी अवधारणा को लेकर चिंता जताई और इसे पांच जजों की पीठ के हवाले कर दिया. पिछले हफ्ते यह हिस्सा भी कानूनी रूप से निपटा दिया गया. मैं इस लंबे सफर के तनाव से इनकार नहीं करूंगी. 2009 से शुरू होकर 2001 और 2018 तक का लंबा इंतजार. लेकिन इसकी अरुणा की चालीस साल से ज्यादा की पीड़ा से कोई तुलना नहीं हो सकती, या पीवीएस में किसी अन्य मरीज के एक साल से भी.
इसके साथ ही, अदालत ने एनजीओ की याचिका को मंजूरी दी, और एडवांस डायरेक्टिव पर दिशा-निर्देश जारी किए, जो एक तरह की लिविंग विल (जीवित रहते हुए विशिष्ट स्थितियों के लिए की गई वसीयत) है. तो पैसिव यूथेनेसिया और लिविंग विल में क्या अंतर है?
कायदे से देखें तो इन दोनों के बीच कोई संबंध नहीं है. 2011 का फैसला कहता है कि मरीज अगर ब्रेन डेड वेंटिलेटर, लगातार निष्क्रिय अवस्था में है, तो परिवार और डॉक्टर पैसिव यूथेनिसिया पर आगे बढ़ सकते हैं. 2018 का फैसला कहता है कि अगर किसी व्यक्ति ने पहले से निर्देश नहीं दिए हैं और उसके मामले में पैसिव यूथेनेसिया की स्थिति है तो उसे भी उनके जैसा ही माना जाएगा, जिन्होंने निर्देश लिखे हैं.
फिर भी, अगर लोग अग्रिम निर्देश लिखते हैं, तो उनके प्रिय उस अपराध बोध से आजाद होंगे, जो कि अन्यथा बहुत मुश्किल फैसला होता, खासकर उन लोगों के लिए जो पैसे की तंगी का सामना कर रहे हों. पैसिव यूथेनेसिया चुनाव का मामला है. सम्मान के साथ मौत और जीवन में से एक को चुनने का.
2017 में अदालत ने निजता के अधिकार की बात की और पैसिव यूथेनेसिया का इशारा दिया. बाद वाली बात किस तरह पहली बात का समर्थन करती है ?
2018 का फैसला, जैसा कि मैं इसका मतलब समझती हूं, कहता है कि लाइलाज बीमारी के मामले में व्यक्ति का निजता का अधिकार कम हो जाता है, क्योंकि उसके शरीर पर आक्रमण बढ़ जाता है. मौत तय हो चुकी है और मरीज का 'अस्तित्व' पूरी तरह मेडिकल टेक्नोलॉजी और मशीनों पर निर्भर हो चुका है, जो मरीज की हालत की स्थिति लंबा खींच सकते हैं, और जो मरीज के हित में नहीं है. इसके उलट, यह उसके सम्मान को ठेस पहुंचाएगा, जो कि जीवन का अभिन्न अंग होता है.
उदाहरण के लिए- खासतौर से लाइलाज बीमारियों और लंबी अवधि के पीवीएस मरीजों के लिए- नाक से भोजन देने की नली, जो कि किसी व्यक्ति के शरीर में अतिक्रमण हो सकती है और इस तरह व्यक्ति की निजता में दखल है. क्योंकि ट्यूब मौत की तरफ बढ़ते किसी व्यक्ति को खुद अपनी तरफ से जीवन नहीं दे सकती. ट्यूब हटाने और मरीज की निजता को बहाल करने को, 'दुश्मनी की कार्रवाई' या 'बुरी नीयत से किया काम' नहीं समझा जाना चाहिए.
सरकार पैसिव यूथेनेसिया पर एक विधेयक तैयार कर रही थी. इसका क्या हुआ?
उन्होंने अपने मसौदे पर एक ई-मेल आईडी (passiveeuthanasia@gmail.com) पर जनता की राय मांगी थी. (उसके बाद से इस मसले पर पूरी तरह खामोशी है. इस मसौदे में लिविंग विल को खारिज कर दिया गया है. मैं यहां जोड़ना चाहूंगी कि लिविंग विल एक व्यापक शब्दावली है, अग्रिम निर्देश एक सीमित शब्द है). हालांकि उनके पास मेंटल हेल्थकेयर क्षेत्र में अग्रिम निर्देश है. इसी कानून में वह आत्महत्या (हालांकि आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में ऐसा नहीं है) में भेदभाव करते हैं. शुक्र है कि पैसिव यूथेनेसिया कानून 2011 में ऐसा नहीं है.
लेकिन यह विधेयक लाइलाज बीमारियों से ग्रस्त युवाओं को लिविंग विल की अनुमति नहीं देता. जैसे कि कोई 16 साल का है और वह स्वीकार या अस्वीकार नहीं करता? क्या 2018 का फैसला भी यही बात कहता है?
पैसिव यूथेनेसिया कानून लाइलाज बीमारी के सभी मरीजों पर लागू माना जाता है, जिसमें आयु कोई रुकावट नहीं है. भारतीय कानून 18 साल से कम उम्र के लोगों को अवयस्क मानता है. 2018 का फैसला कहता है कि अग्रिम निर्देश सिर्फ वयस्क शख्स कर सकता है. इस बचकाने प्रावधान को लेकर मेरा कहना है, और मुझे यकीन है कि अनगिनत भारतीयों का भी यही सोचना होगा कि मृत्यु शैया पर बैठे 16 साल के युवा की बात नहीं मानी गई तो वह अपने माता-पिता को अदालत में घसीटेगा. मैं नहीं जानती कि नया कानून कब देखने को मिलेगा और उम्मीद करती हूं कि यह ज्यादा सुधरा होगा. इस दरम्यान केंद्र सरकार को लंबे समय से लंबित सरोगेसी कानून भी बनाना है और तमाम फर्टिलिटी क्लीनिक को नियमित करना है- जो देश भर में बिना प्रशिक्षित डॉक्टरों के फल-फूल रहे हैं.
डॉ. अबंतिका पाल पश्चिम बंगाल सरकार में मेडिकल ऑफिसर हैं और इन्होंने अपने राज्य की समसामयिक संदर्भ में इच्छा मृत्यु पर पहली बांग्ला भाषा की किताब लिखी है.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
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