नसीरुद्दीन शाह केवल एक बॉलीवुड स्टार नहीं हैं. वो बहुत दुर्लभ इंसान हैं-नसीरुद्दीन असल में एक विचारशील अभिनेता हैं. उनके शानदार तलफ्फुज के साथ अदा किए गए डायलॉग न केवल सटीक अंदाज में अपनी बात रखते हैं, बल्कि बिना किसी नाटकीयता के गहरा असर छोड़ जाते हैं. उसी सधी हुई आवाज में नसीरुद्दीन शाह कई बार खुलकर अपनी बात कहने के लिए भी जाने जाते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि वो अपने विचारों की साफगोई और बोलने की कला का इस्तेमाल सामाजिक और सियासी संदेश देने के लिए भी करते आए हैं. उनकी कई बातों पर विवाद भी हुए हैं.
हम सबने नसीरुद्दीन शाह की आवाज को फिल्मों में सुना है. उन्होंने जिस शानदार अंदाज में 'ए वेंसडे' फिल्म में एक आम आदमी का किरदार निभाया था और फिल्म के क्लाइमेक्स में देश के विषाक्त सियासी और सामाजिक हालात पर छोटा मगर बेहद तीखा भाषण दिया था, उसके लिए नसीरुद्दीन शाह ने खूब वाहवाही बटोरी थी. हालांकि नसीरुद्दीन शाह ने उस फिल्म में जो रोल किया था, वो अराजकता को बढ़ावा देने वाला था, हिंसा के जरिए नफरत और आतंकवाद से निपटने का संदेश देने वाला था, फिर भी नसीरुद्दीन शाह की बात को लोगों ने बड़ी तारीफ करते हुए तवज्जो दी थी.
ऐसे में अब कोई वजह नहीं बनती कि उनकी बात न सुनी जाए.
Naseeruddin Shah: What I said earlier was as a worried Indian. What did I say this time that I am being termed as a traitor? I am expressing concerns about the country I love, the country that is my home. How is that a crime? pic.twitter.com/XcQOwmzJSh
— ANI (@ANI) December 21, 2018
सोशल मीडिया पर शेयर किए गए एक वीडियो में नसीरुद्दीन शाह ने कहा है कि, 'मैं अपने बच्चों के बारे में फिक्रमंद हूं... क्योंकि उनका कोई मजहब नहीं है. कल को अगर कोई भीड़ उन्हें घेर लेती है और मेरे बच्चों से उनका मजहब पूछती है, तो उनके पास कोई जवाब नहीं होगा.' नसीरुद्दीन शाह आगे कहते हैं कि, '...आज कानून को हाथ में लेने की पूरी आजादी है. कुछ इलाकों में हमने देखा कि गाय की हत्या को एक पुलिस अधिकारी की पीट-पीटकर हत्या किए जाने पर ज्यादा तरजीह दी जा रही है.'
योगी आदित्यनाथ ने जो कहा था, नसीरुद्दीन शाह का संदेश उसी घटना के बारे में है
बीते 3 दिसंबर को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह और एक स्थानीय युवक की हत्या के बारे में प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जो कहा था, नसीरुद्दीन शाह का यह संदेश उसी घटना के बारे में है. हिंसक भीड़ के हाथों किसी पुलिस अधिकारी का मारा जाना कोई नई बात नहीं है. लेकिन, बुलंदशहर का मामला बिल्कुल अलग है.
जिस तरह के गोकशी के नाम पर बवाल खड़ा करने की कोशिश की गई, उससे साफ है कि यह सोची-समझी साजिश के तहत किया गया. यह सोच कर ही दिल सिहर उठता है कि पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की हत्या अपनी ड्यूटी निभाने की वजह से कर दी गई. सुबोध कुमार सिंह ऐसे पुलिस अधिकारी थे, जिन्होंने हिंसा पर उतारू भीड़ के आगे झुकने से इनकार कर दिया था. वो एक हिंदू अधिकारी थे, यह महज इत्तफाक की बात है. अगर वो अपने मजहब की वजह से मारे गए होते, तो इसे हम सांप्रदायिक नफरत का नतीजा कह सकते थे. लेकिन, सुबोध कुमार सिंह की हत्या एक भीड़ की कानून के राज के प्रति नफरत की वजह से की गई. हिंसा की यह बीमारी, जाति या समुदाय के नाम पर भड़कने वाली हिंसा से बिल्कुल अलग है.
उत्तर प्रदेश में पहली बार ऐसा हो रहा है कि अगर आप कानून के साथ खड़े हैं, तो आप को डरने की जरूरत है. क्योंकि अगर आप कानून के साथ हैं, तो फिर आप खून की प्यासी भीड़ के शिकार बन सकते हैं. इसका नतीजा बेहद खूनी होता है. पिछले कुछ दिनों में पूरे सूबे में हम भीड़ तंत्र के हावी होने के तमाम सबूत देख चुके हैं. एक रिपोर्टर के तौर पर मैंने अस्सी के दशक से ही उत्तर प्रदेश और बिहार में सांप्रदायिक हिंसा और दंगों की कई घटनाओं की रिपोर्टिंग की है. लेकिन, मैंने इससे पहले इतने बिगड़े हुए सियासी हालात नहीं देखे, जिसमें पूरा निजाम हिंसा को बढ़ावा दे और कानून-व्यवस्था का मखौल उड़ाने वाली भीड़ को इस बात की खुली छूट दे दे कि वो अपने रास्ते में आने वाले हर रोड़े को बलपूर्वक हटा दे. कई बार तो हालात इतने बिगड़ जाते हैं कि ऐसा लगता है कि मौजूदा सरकार ने अपने सियासी हित साधने के लिए हिंसक भीड़ तंत्र को भी एक माध्यम बना लिया है.
अपने एक मुस्लिम साथी के साथ उग्र हिंदूवादी भीड़ से मुकाबिल हो गए थे
1990 में नवंबर के सर्द महीने में जब हम अयोध्या आंदोलन की रिपोर्टिंग कर रहे थे, तो मैं अपने एक मुस्लिम साथी के साथ एक उग्र हिंदूवादी भीड़ से मुकाबिल हो गए थे. यह वाक्या लखनऊ के चौक इलाके में पेश आया था. मेरा मुस्लिम दोस्त जिस इलाके में रहता था, जिसके चारों तरफ मुसलमानों के प्रति नफरत से भरे लोग रहते थे. फिर भी उस भीड़ के सामने पड़ने पर उसे अपनी मजहबी पहचान छुपाने की जरूरत नहीं पड़ी. वो पूरी तरह सुरक्षित रहा. उसी साल अलीगढ़ के दंगों की रिपोर्टिंग के लिए जब मैं अपर कोट इलाके की घनी मुस्लिम बस्ती में घुसा, तो मुझे भी अपने हिंदू होने की बात को छुपाने की जरूरत नहीं पड़ी. सैकड़ों स्थानीय निवासी, जो पुलिस की कार्रवाई से बेहद नाराज थे, वो मुझसे मिले और और तमाम मुद्दों पर खुलकर बात की. उन्होंने कभी इस बात का इशारा नहीं दिया कि वो हिंदू होने की वजह से मुझे नुकसान पहुंचा सकते हैं. शायद, मेरी रिपोर्टर के तौर पर जो पेशेवर पहचान थी, वो मेरी सुरक्षा की गारंटी देने के लिए पर्याप्त थी.
लेकिन, ऐसा लगता है कि अब यह बात काफी नहीं होगी. ऐसी तमाम खबरें आई हैं कि बाजारों में लोगों को घेर कर अपनी देशभक्ति साबित करने को कहा जाता है. उन्हें कहा जाता है कि वो 'भारत माता की जय' के नारे लगाएं. हिंसा पर उतारू भीड़ के जत्थे खुलेआम घूम रहे हैं. वो वकील भी हैं और जज भी, जो फैसला ऑन द स्पॉट सुनाते हैं. वो बेहद घटिया दर्जे के इंसानी जुनून, हिंसा और अहंकार से भरे हुए लोग हैं. अचरज नहीं कि योगी आदित्यनाथ बुलंदशहर की घटना का बचाव करने के लिए रोज नए बहाने तलाशते फिर रहे हैं. हिंसक भीड़ के हाथों पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह और एक युवक की हुई हत्या के फौरन बाद योगी आदित्यनाथ ने इसे एक हादसा बताया था. लेकिन अब वो इसी घटना के पीछे सोची-समझी, भरी-पूरी साजिश देखने लगे हैं.
एक स्वस्थ परिचर्चा की शुरुआत के मौके के तौर पर देखा जाना चाहिए
नसीरुद्दीन शाह की नाराजगी को ऐसे हालात में एक स्वस्थ परिचर्चा की शुरुआत के मौके के तौर पर देखा जाना चाहिए. कुछ ट्रोल उन्हें किसी एक पक्ष का होने का मुजरिम करार दे रहे हैं. लेकिन, ऐसा कर के हम संदेश को समझे बगैर संदेशवाहक का कत्ल करने का काम कर रहे हैं.
ब्रिटेन के राजनीति शास्त्री माइकल ओकशॉट ने अपने एक निबंध में इंसानों के बंदरों से विकसित होकर सोच-समझ रखने वाले मानव के तौर पर विकसित होने और बैठ कर परिचर्चा करने को इतना लंबा सफर करार दिया है कि विकास की इस प्रक्रिया के दौरान वो अपनी पूंछ गंवा बैठे. शायद हमें नसीरुद्दीन शाह के बयान के हवाले से एक परिचर्चा की शुरुआत करनी चाहिए. नसीरुद्दीन शाह के बयान को ओकशॉट के शब्दों में बयां करें तो, यह एक 'सहज और साहसिक बौद्धिक अभियान' है ताकि हम परिचर्चा में आ गई खामियों को बिना किसी पूर्वाग्रह के दुरुस्त कर सकें और संवाद को उस दिशा में ले जा सकें, जो इस देश की असल आवाज की नुमाइंदगी करे.
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