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#MeToo: संपादक एमजे अकबर को उदार और बहुलवादी के रूप में जो सम्मान मिला था, उन्होंने उन मूल्यों को धोखा दिया

एमजे अकबर पर लगे आरोपों से उनकी प्रतिष्ठा और वो जो कुछ भी कहते थे, हमेशा के लिए खत्म हो गया है. एक लेखक और विचारक के रूप में उनकी विश्वसनीयता भी अगर खत्म नहीं तो कम जरूर हो गई है

Updated On: Oct 14, 2018 11:43 AM IST

Aakar Patel

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#MeToo: संपादक एमजे अकबर को उदार और बहुलवादी के रूप में जो सम्मान मिला था, उन्होंने उन मूल्यों को धोखा दिया

लगभग 25 साल पहले मैं काम की तलाश में सूरत से बॉम्बे (तब मुंबई को यही कहा जाता था) आया था. हमारा पॉलिएस्टर बनाने का पारिवारिक कारोबार बर्बाद हो गया था. मेरी शैक्षणिक योग्यता यह थी कि मेरे पास टेक्सटाइल टेक्नोलॉजी में डिप्लोमा था. इससे पहले स्कूल की पढ़ाई बीच में छोड़ देने के बाद मैंने ऑपरेटिंग मशीनरी में दो साल का डिप्लोमा भी किया था. मतलब यह कि मुझमें दफ्तर के व्हाइट कॉलर जॉब के लिए कोई योग्यता नहीं थी.

मैंने आयात-निर्यात के काम और शेयर बाजार (एक गुजराती के रूप में यह जन्मजात योग्यता है) में नौकरी पाने की कोशिश की, लेकिन उस समय वहां कुछ भी नहीं हो रहा था, क्योंकि हर्षद मेहता घोटाला कांड अभी-अभी सामने आया था.

मैं एक दोस्त की बहन और उनके परिवार के साथ विले पार्ले में रह रहा था और काम की तलाश में दर-ब-दर भटकते हुए दिन गुजार रहा था. एक दिन, लोकल ट्रेन में सफर करते हुए मेरी नजर एक अखबार में नौकरी के विज्ञापन पर पड़ी. काफी लंबी और उबाऊ कहानी को छोटा करते हुए बता दूं कि मैंने आवेदन कर दिया और आश्चर्यजनक रूप से मुझे काम मिल गया, क्योंकि पत्रकारिता की नौकरी के लिए किसी खास योग्यता की जरूरत नहीं थी. ठीक 30 दिन बाद वो पेपर बंद हो गया लेकिन मैं एक और अखबार में नौकरी पाने में कामयाब रहा. इस बार अखबार था- द एशियन एज. संपादक थे एम.जे अकबर, जिनकी प्रतिष्ठा या प्रसिद्धि के बारे में मुझे कुछ पता नहीं था, क्योंकि उस समय सूरत में कोई अंग्रेजी अखबार नहीं था.

मैंने 1995 से 1998 तक मुंबई कार्यालय (इसी अवधि के दौरान शहर का नाम बॉम्बे से बदल कर मुंबई कर दिया गया था) में काम किया था और मुझे मानना होगा कि यह एक परिवर्तनकारी अनुभव था. मैं ऐसी पृष्ठभूमि से आया था जहां दफ्तर में महिलाओं को नहीं देखा जाता था.

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मेरे परिवार द्वारा चलाए जाने वाले उन कारखानों में, जो कि वास्तव में छोटी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स थीं, में कुछ महिला कर्मचारी थीं, लेकिन यह सभी मजदूर थीं. उद्योग की भाषा में उन्हें ‘हेल्पर’ के रूप में वर्गीकृत (कैटेगराइज़) किया गया था जिसका अर्थ है कि वो कुछ हल्के डिब्बे यहां से वहां रखती थीं खाली जगहों की सफाई करती थीं, लेकिन उनकी भागीदारी की यहीं तक सीमा थी.

'मुझे महिलाओं के बारे में अपना विचार बदलना पड़ा था और बहुत अच्छी बात थी'

अखबार के दफ्तर में जहां मेरा पहला काम था, महिलाएं बराबर की भागीदार थीं. वास्तव में, मेरी बॉस भी एक महिला थी. यह एक शैक्षिक अनुभव था और एक ऐसा अनुभव छोटे शहरों के सभी पुरुषों को जबरन दिया जाना चाहिए. मुझे महिलाओं के बारे में अपना विचार बदलना पड़ा था और यह एक बहुत अच्छी बात थी.

दूसरी परिवर्तनकारी चीज उन लोगों से संपर्क था जो मेरे मुकाबले ज्यादा स्मार्ट थे और मुझसे बेहतर पढ़े-लिखे थे. दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद या कोलकाता जैसे किसी शहर में पले-बढ़े शख्स के मुकाबले सूरत के किसी शख्स के सीमित एक्सपोजर को समझ पाना मुश्किल है. यह इंटरनेट और प्राइवेट टेलीविजन से पहले के दौर का सच था. सूरत ना ऐसा शहर था और ना है, जो विशेष रूप से कुछ सीखने या ज्ञान में रुचि रखता हो, बशर्ते कि वो पैसे कमाने से संबंधित न हो. 30 साल पहले वहां किताबों की सिर्फ एक दुकान थी जहां अंग्रेजी की किताबें मिलती थीं, और यह तकरीबन 15 लाख लोगों का शहर था.

इसलिए, हमउम्र लोगों के संपर्क में आने के लिए, महिलाएं और पुरुष, जो पूरी तरह से अनुभव के बजाय सीखने के माध्यम से दुनिया के पहलुओं को जानते और समझते थे, मेरे लिए यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात थी. लेकिन इनमें से कोई भी शख्स एम.जे अकबर से ज्यादा प्रभावशाली नहीं था. मेरा काम मुंबई में था और वो दिल्ली में रहते थे, इसलिए उनसे ज्यादा बातचीत का मौका नहीं मिलता था. लेकिन मैं खुद को उनकी शख्सियत से थोड़ा और उसके लेखन से काफी ज्यादा जोड़ पाता था.

मैं एक रूढ़िवादी, घनघोर राष्ट्रवादी, काफी बंद दिमाग वाला हिंदू शख्स था. अकबर जिस तरह धर्म से पूरी तरह ऊपर थे, वैसा मैंने किसी अन्य भारतीय व्यक्ति को नहीं देखा है. उन्हें उनके मजहब से नहीं, बल्कि उनकी समझ, उनके नजरिए और उनके पढ़ने और लेखन से परिभाषित किया जाता था.

उन्होंने हममें से कइयों को फिर से समझाया कि भारतीय पहचान का मतलब क्या है. उन्होंने इसकी व्यापकता को समझाया और इसे अधिक उदार, अधिक लचीला और अधिक आकर्षक बना दिया. इस तरह का भारतीय होना अच्छा लगा. किसी को अपनी पहचान पर गर्व करने के लिए पाकिस्तान, चीन या दूसरे भारतीयों से नफरत करने की जरूरत नहीं थी.

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एमजे अकबर ने अपनी हरकतों से दो बार निराश किया

उन लोगों को जिन्हें उन्होंने इस तरह से गहराई से प्रभावित किया, अकबर ने दो बार निराश किया (मैं इसके लिए धोखा देना शब्द का इस्तेमाल करता हूं). उन्हें हमेशा उनकी राजनीति और हाल के वर्षों में उनके यू-टर्न को लेकर अवसरवादी के रूप में देखा जाता था, जो अकबर के नाम के एकदम उलट मातहती का था, और दिल तोड़ देने वाला था. लेकिन कोई भी इस बात को हंसी में उड़ा देगा क्योंकि राजनीति में धूर्तता कतई असामान्य बात नहीं है. हम कम से कम खुद को बता सकते हैं, कि असली अकबर कुर्सी के पीछे दौड़ने वाले शख्स से अलग था.

हालांकि, अब युवतियों पर उनके हमलों के बारे में इन रहस्योद्घाटनों का मतलब है कि उनकी प्रतिष्ठा और वो जो कुछ भी कहते थे, हमेशा के लिए खत्म हो गया है. एक लेखक और विचारक के रूप में उनकी विश्वसनीयता भी अगर खत्म नहीं तो कम जरूर हो गई है. मुझे उम्मीद है कि इस्तीफा देकर बचने के बजाय उन्हें सरकार से निकाल दिया जाएगा.

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