भारत में लगभग दो करोड़ लोग सरकारी संस्थाओं, सार्वजनिक उपक्रमों और स्थानीय निकायों में काम करते हैं. इस नाते सरकार इस देश में सबसे बड़ी रोजगारदाता है. ढाई दशकों के अबाध निजीकरण के बाद भी सरकारी नौकरियों की चमक बनी हुई है और हर एक सरकारी नौकरी के लिए कई सौ आवेदक लाइन में लगे होते हैं. सरकारी नौकरियां स्थायी आमदनी का स्रोत होती हैं, सरकारी नौकरी अपेक्षाकृत सुरक्षित होती हैं और रिटायरमेंट के बाद भी कई तरह की सुविधाएं मिलती रहती हैं. इस नाते, निजी नौकरियों से कम वेतन होने पर भी लोग अक्सर सरकारी नौकरी करना चाहते हैं.
130 करोड़ की आबादी वाले देश में जितने लोग सरकारी नौकरी करना चाहते हैं, उतनी सरकारी नौकरियां नहीं हैं. उदारीकरण के बाद सरकारी नौकरियां घटी भी हैं. इसलिए सरकारी नौकरियों के लिए काफी प्रतियोगी माहौल है. इस वजह से, नौकरी के बाजार में मौजूद लोगों में आपसी होड़, जलन, हताशा जैसे सभी भाव आसानी से दिख जाते हैं.
यह कोशिश स्वाभाविक है कि नौकरी की छोटी लाइन में खड़ा हुआ जाए. नौकरियों में आरक्षित सीटों के बारे में यह माना जाता है कि उसकी लाइन छोटी है, और यह सच भी है कि इन सीटों के लिए होड़ कम है. इसलिए कई समुदाय इन प्रयासों में लगे हुए हैं कि उन्हें किसी तरह से आरक्षित समूहों में जगह मिल जाए ताकि सरकारी नौकरियों तक उनकी पहुंच आसान हो जाए.
आरक्षित समूहों के लिए संविधान में क्या हैं प्रावधान?
भारतीय संविधान के मुताबिक एससी और एसटी यानी दलितों और आदिवासियों को आबादी के अनुपात में आरक्षण दिया गया है. अभी उन्हें केंद्र सरकार की नौकरियों में क्रमश: 15 प्रतिशत और 7.5 प्रतिशत आरक्षण मिला हुआ है. हालांकि 2011 की जनगणना के मुताबिक इनकी आबादी अब ज्यादा हो गई है.
इसके अलावा ओबीसी यानी अन्य पिछड़े वर्गों को अनुच्छेद 340 के तहत आरक्षण मिल रहा है. मंडल कमीशन के मुताबिक, राष्ट्रीय स्तर पर ओबीसी की संख्या 52 फीसदी है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने चूंकि कुल आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा न रखने की सलाह दी है इसलिए केंद्रीय स्तर पर ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण दिया गया है.
विभिन्न राज्यों में आरक्षण को लेकर बंटवारा अलग अलग तरह से किया गया है. लेकिन वहां भी इस नियम को माना गया है कि एससी-एसटी को आबादी के अनुपात में आरक्षण दिया जाए. बाकी समुदायों के आरक्षण को लेकर स्थिति अलग अलग है. कुछ राज्यों में ओबीसी के बीच बंटवारा करके आरक्षण दिया जा रहा है तो कई राज्य ओबीसी को एक ही समूह मानते हैं.
आरक्षण को लेकर किस बात का झगड़ा?
अभी आरक्षण को लेकर देश में जो झगड़े चल रहे हैं, वे मुख्य रूप से दो तरह के हैं. आंदोलनों की पहली कैटेगरी उन समुदायों की है, जिन्हें किसी भी तरह का आरक्षण नहीं मिल रहा है, लेकिन जिनका कहना है कि शिक्षा, नौकरी और सामाजिक हैसियत में वे पीछे हैं और उन्हें आरक्षण मिलना चाहिए. जाट, मराठा, पाटीदार और कपू जातियों के आंदोलन इसी श्रेणी में हैं.
दूसरी कैटेगरी उन आंदोलनों की है, जो अभी पिछड़े वर्ग में हैं, लेकिन जिन्हें लगता है कि पिछड़ा वर्ग एक बड़ी कैटेगरी है और वहां रहते हुए उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल पा रहा है. इसलिए वे अपने से नीचे की कैटेगरी में जगह पाना चाहते हैं. राजस्थान में गुर्जर और उत्तर प्रदेश में 17 जातियों की यही मांग है. झारखंड के कुर्मी या कुड़मी भी ओबीसी की जगह एसटी कैटेगरी में शामिल होना चाहते हैं.
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इन आंदोलन की प्रवृत्तियां
आरक्षण संबंधी आंदोलनों में दो प्रवृत्तियां आम हैं. एक, ये आंदोलन पूरी तरह से वैधानिक रास्तों पर नहीं चल रहे हैं. इन्हें यह विश्वास नहीं है, इसके पर्याप्त कारण भी हैं, कि सरकार इनकी मांगों को आसानी से मांग लेगी या कि न्यायपालिका से इन्हें “न्याय” मिल जाएगा. सरकार ने आरक्षण संबंधी किसी भी मांग को अब तक वैधानिक रास्ते से स्वीकार नहीं किया है. इसलिए इनमें से ज्यादातर जातियां और समूह सड़कों पर उतरकर और जन आंदोलनों के जरिए सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति पर चल रहे हैं.
ये आंदोलन अक्सर हिंसक भी हो जाते है. दो, इन आंदोलनों को लेकर सरकार पहले तो अनदेखी का रुख अपनाती है, लेकिन जब आंदोलन उग्र हो जाता है और सरकारों को लगता है कि इनकी अनदेखी करना राजनीतिक दृष्टि से संभव नहीं होगा, तो सरकार यह नाटक करती है कि वह झुक रही है. इसके बाद सरकार इन जातियों को आम तौर पर अलग कैटेगरी बनाकर आरक्षण दे देती है, फिर कोई व्यक्ति या संस्था अदालत चली जाती है.
अदालत में यह तर्क दिया जाता है कि कुल आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकता. सरकार इसका कोई ठोस जवाब नहीं देती कि आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा क्यों किया जा रहा है. इस स्तर पर न्यायपालिका सरकार के फैसले पर रोक लगा देती है और फिर बरसों तक मामला टलता रहता है और इस बीच आंदोलन सुलगता रहता है. बीच-बीच में हिंसा भी होती रहती है.
आरक्षण को लेकर चल रहे इस तरह के आंदोलनों को राजनीति का स्थायी भाव कहा जा सकता है. इन आंदोलन के खिलाफ तर्क दो तरह के होते हैं. पहला तर्क तो यह होता कि है आरक्षण जितना दिया जा सकता था, दिया जा चुका है. इसे बढ़ाना संभव नहीं है. इसलिए किसी भी नई जाति की आरक्षण की मांग गलत है. दूसरा तर्क यह है कि जाट, मराठा, पाटीदार और कपू जैसी जातियां दबंग हैं. उनके पास ढेर सारी जमीन है, वे राजनीति में मजबूत हैं, उन्हें आरक्षण क्यों चाहिए.
ये दोनों तर्क तथ्यों की रोशनी में गलत साबित हो जाते हैं. आरक्षण की अधिकतम सीमा संविधान में तय नहीं की गई है. सुप्रीम कोर्ट ने इसे तय किया है. वह भी सुझाव के तौर पर. पहली बार एम.आर. बालाजी केस के फैसले में जब आरक्षण की अधिकतम सीमा की बात आई तो कोर्ट ने सुझाव के तौर पर कहा कि आम तौर पर आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए. लेकिन राज्यों को परिस्थिति के हिसाब से आरक्षण की सीमा तय करने का अधिकार दिया गया.
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इसलिए तमिलनाडु 69 फीसदी आरक्षण देता है और इसे संविधान और सुप्रीम कोर्ट दोनों की सहमति हासिल है. दूसरी बात यह है कि किसी जाति को आरक्षण मिलना चाहिए कि नहीं, इसके लिए संविधान और संविधान द्वारा बनाए गए आयोग की स्पष्ट शर्तें हैं. किसी जाति के कितने मुख्यमंत्री या विधायक हो गए, इस आधार पर वह जाति आरक्षण के योग्य या अयोग्य नहीं हो जाती.
न ही सरकार के पास इस बात के आंकड़े हैं कि किसी जाति के पास कितनी जमीन है. न ही यह पता है कि किसी जाति की शिक्षा और सरकारी नौकरियों में कितनी हिस्सेदारी है. दरअसल सरकार के पास पिछड़ापन साबित करने के लिए जरूरी तथ्य ही नहीं हैं.
केंद्र सरकार की नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में ओबीसी को आरक्षण मंडल कमीशन से मिला है और उसमें सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को पहचानने की स्पष्ट शर्तें लिखी हुई हैं. इन शर्तों का पालन करने पर ही किसी जाति को ओबीसी की लिस्ट में शामिल किया जा सकता है. ओबीसी की पहचान के लिए जाति से संबंधित आंकड़ों का होना बिल्कुल जरूरी है.
लेकिन आंकड़े कहां हैं?
जातियों की संख्या और उनकी सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक हैसियत से संबंधित आंकड़े जुटाने का काम जनगणना आयुक्त का है. उनका दफ्तर केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत काम करता है. जनगणना आयुक्त हर दस साल पर पूरे देश में जनगणना कराते हैं. यह काम जनगणना कानून, 1948 के तहत किया जाता है. हर दस साल पर सरकारी स्कूलों के शिक्षक हर घर पर जाकर हर व्यक्ति का लिखाजोखा लेते हैं और फरवरी महीने की पहली तारीख से 28 तारीख के बीच यह काम संपन्न हो जाता है.
जनगणना आयुक्त को 1931 तक जनगणना में जातियों का आंकड़ा जुटाने का जिम्मा दिया जाता था और वे सफलतापूर्वक इस काम को करते थे. 1941 में विश्व युद्ध के कारण जनगणना पूरी नहीं हो पाई और आजादी के बाद भारत सरकार ने जनगणना आयुक्त से कहा कि तमाम जातियों को गिनने की जरूरत नहीं है. सिर्फ अनुसूचित जातियों और जनजातियों को गिन लिया जाए क्योंकि उन्हें आबादी के अनुपात में आरक्षण देने की संवैधानिक बाध्यता है. इस तरह बाकी जातियों के आंकड़े आने बंद हो गए.
आरक्षण को लेकर सारा हंगामा आंकड़ा न होने की वजह से है. आंकड़े न होने के कारण अब दावे तो हैं और उन्हें लेकर मांग और आंदोलन भी है, लेकिन उन दावों को निपटाने का कोई वैज्ञानिक तरीका नहीं है. कई जातियों को लग रहा है कि सरकार की बांह मरोड़कर अपनी मांग मनवाई जा सकती है. इसलिए कई जातियां सड़कों पर हैं.
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जो सवाल दफ्तर में और कोर्ट में हल होना चाहिए, उन सवालों को सड़क पर हल करने की कोशिश हो रही है. लेकिन सरकार यह कहने की स्थिति में नहीं है कि जिन जातियों की शिक्षा और नौकरियों में पर्याप्त हिस्सेदारी है और जिनका पिछड़ापन साबित नहीं हो सकता, उन्हें आरक्षण नहीं दिया जाएगा. यह कहने के लिए तथ्य चाहिए और वे तथ्य मौजूद नहीं हैं.
सरकार अगर देश को जातियुद्ध से बचाना चाहती है, तो उसे जाति जनगणना करानी चाहिए और आरक्षण से जुड़े सारे सवालों को तथ्यों और आंकड़ों के आधार पर निपटाना चाहिए. 2021 की जनगणना इसके लिए उचित अवसर है.
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