यह देश में अपने तरह की पहली घटना नहीं है लेकिन है बहुत डरावनी. मामला मध्य प्रदेश के मंदसौर का है. स्कूल जा रही सात साल की एक बच्ची के साथ दो लोगो ने दुष्कर्म किया. उसे भीषण यातनाएं दी और जान से मारने की कोशिश तक की. बच्ची इस समय अस्पताल में मौत से लड़ रही है. मंदसौर में हुई इस वारदात को लेकर अब जो तथ्य मिले हैं, उन्हे देखते हुए इसके `हेट क्राइम’ होने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता.
यह मामला अब तक ठीक उसी तरह का लग रहा है, जिस तरह की वारदात जम्मू के कठुआ में हुई थी. कठुआ में एक मुसलमान बच्ची को अगवा किया गया था. उसे मंदिर में बंधक बनाकर रखा गया था. बलात्कार और कई दिन की यातना के बाद उसका कत्ल कर दिया गया था.
लड़की हिंदू और दोनों आरोपी मुसलमान
घटनाएं अलग-अलग हैं, लेकिन मानसिकता एक जैसी है. यौन कुंठा, पाश्विकता, धार्मिक नफरत और निशाने पर हर जगह स्त्री जाति. फर्क सिर्फ इतना है कि कठुआ की घटना के आरोपियों को बचाने के लिए तिरंगा झंडा थामकर यात्राएं निकाली गई थीं. सरकार में शामिल बीजेपी के विधायकों और मंत्रियों तक ने उसमें हिस्सा लिया था. आरोपियों को बचाने के लिए बीजेपी के विधायक और मंत्रियों ने अपनी ही सरकार की जांच रिपोर्ट मानने से इनकार कर दिया था.
दूसरी तरफ मंदसौर की घटना के बाद सभी समुदाय के लोगो ने इसकी कड़ी निंदा की है. मंदसौर में मुस्लिम समाज के लोगो ने रैली निकालकर गुनहगारों को फांसी देने की मांग की है और यहां तक कहा है कि फांसी होने की सूरत में वे अपराधियों को दफनाने के लिए कब्रिस्तान में जगह तक नहीं देंगे.
इधर सोशल मीडिया पर एक तबका सक्रिय है, जो इस घटना को सांप्रादायिक रंग देने में नाकाम होने के बाद जवाब सरकार और समाज से नहीं बल्कि `लिबरल और सेक्यूलर’ लोगो से मांग रहा है. सोशल मीडिया पर बकायदा कैंपेन चलाकर यह पूछा जा रहा है कि कठुआ कांड पर शोर मचाने वाले लोग मंदसौर पर चुप क्यों है?
ट्रोल ब्रिगेड को अस्पताल में बेहद दयनीय और आपत्तिजनक स्थिति में पड़ी पीड़ित बच्ची की तस्वीरें और पहचान तक वायरल करवाने तक से परहेज नहीं है. ट्रोल ब्रिगेड को जवाब मामले को अश्लील राजनीतिक तमाशा बनाने वाले विधायक और सांसद से नहीं बल्कि `लिबरल और सेक्यूलर ‘ लोगो से चाहिए. सोशल मीडिया पर चल रहे हेट कैंपेन को थोड़ी देर के लिए किनारे करके असली मुद्धे पर लौटते हैं. वह सवाल जिसपर आजकल देशभर में चर्चा हो रही है. आखिर महिलाओं की सुरक्षा की स्थिति भारत मे इतनी खराब क्यों है?
भारतीय समाज में हिंसा संस्थागत है
दिसंबर 2012 में दिल्ली में निर्भया कांड हुआ था. तब पूरा देश गुस्से से उबल पड़ा था. दिल्ली और मुंबई समेत देश के हर शहर में लोग सड़क पर उतर आए थे. दबाव इस कदर था कि केंद्र सरकार को यौन हिंसा से संबंधित कानून में बदलाव करने पड़े.
सरकार ने हज़ार करोड़ रुपए का एक निर्भया फंड बनाया ताकि महिलाओं की सुरक्षा के लिए काम कर रही संस्थाओं को मदद दी जाए और यौन हिंसा की घटनाओं को कम किया जा सके. इतना नहीं अदालत ने तेजी से सुनवाई करके दोषियों को फांसी की सजा भी सुना दी. लेकिन क्या इसके बाद महिलाओं के प्रति यौन हिंसा की वारदातें कम हो गईं? सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 2011 से लेकर 2016 के बीच रेप, छेड़खानी और यौन उत्पीड़न जैसी घटनाओं में दोगुनी बढ़ोत्तरी हुई है. बेटी बचाओ के नारे के साथ सरकार में आनेवाले नरेंद्र मोदी पर विपक्ष निशाना साध रहा है. लेकिन क्या महिलाओं के प्रति होनेवाले अपराध सिर्फ कानून व्यवस्था का मसला हैं?
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जनता के गुस्से को भड़काकर राजनीतिक लाभ लेनेवाली तमाम पार्टियां जानती हैं कि यौन अपराध सिर्फ कानून व्यवस्था का मामला नहीं हैं. बेहतर कानून व्यवस्था अपराध को एक सीमा तक ही रोक सकती है. जब तक समाज नहीं बदलेगा तब तक यौन हिंसा के मामले इसी तरह बड़े पैमाने पर सामने आते रहेंगे.
बहुत लोगों को मानने में दिक्कत हो सकती है लेकिन यह सच यह है कि हिंसा की जड़े भारतीय समाज में बहुत गहरे तक पैठी हुई हैं. सामाजिक संरचना की सबसे छोटी इकाई यानी परिवार से लेकर बड़े जातीय और धार्मिक समूहों तक के व्यवहार में यह हिंसा मौजूद है. हिंसा का सबसे ज्यादा शिकार वही लोग होते हैं जो सामाजिक संरचना में नीचे हैं. दलितों के प्रति होने वाले अत्याचार, भाषाई, क्षेत्रीय, धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति होनेवाले भेदभाव में इसे देखा जा सकता है.
महिलाएं सामाजिक पायदान की सबसे निचली सीढ़ी पर हैं. इसलिए उन्हें हर जगह हिंसा का शिकार बनना पड़ता है. शिक्षा से लेकर विवाह तक हर स्तर पर चयन की आजादी औरतों से छीनी जाती है. कन्या भ्रूण हत्या, एसिड अटैक और ऑनर किलिंग तक हिंसा के अलग-अलग पैमाने हैं, जो यह बताते हैं कि पुरुषवादी समाज को किसी भी तरह औरत का बराबरी पर आना मंजूर नहीं है. शाब्दिक, सामाजिक और आर्थिक हिंसा रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा हैं. लेकिन लड़कियों और औरतों को जो बात सबसे ज्यादा डराती है, वह लगातार बढ़ रहे यौन हमले हैं.
यौन विकृति और पुरुषवादी अहंकार से ग्रसित समाज
गुजरात के पालनपुर से पिछले दिनों एक बेहद विचलित करने वाली घटना सामने आई. एक लड़के ने अपनी मां के साथ बलात्कार किया. पुलिस का कहना है कि आरोपी पोर्न एडिक्ट था. आखिर किधर जा रहा है, भारतीय समाज? परिवार के भीतर यौन अपराधों के ना जाने ऐसे कितने मामले पहले भी सामने आ चुके हैं, जहां किसी लड़की को पिता या भाई के शोषण का शिकार होना पड़ा.
निर्भया कांड के बाद चीन के सबसे बड़े अखबार पीपल्स डेली ने अपने संपादकीय में भारत को यौन विकृति और सेक्स के भूखे लोगों का देश बताया था. भारतीय मीडिया में इसे लेकर बड़ा बवाल हुआ था. कहा यह भी गया था कि चीन भारत को नीचा दिखाना चाहता है. लेकिन सोचने की ज़रूरत है कि क्या वाकई उस संपादकीय में कुछ गलत कहा गया था? कड़वा सच यह है कि भारतीय समाज मूल रूप से खुशफहमी में जीने वाला समाज है. मानवीय मानदंडो वाले हर सूचकांक में सबसे नीचे होने के बावजूद हम आईना देखने को तैयार नहीं हैं.
औरतों के प्रति हिंसा की जड़ें उस आदिम सामाजिक व्यवस्था में हैं, जिन्हें समाजशास्त्री पितृसत्ता कहते हैं. यह सामाजिक व्यवस्था सुनिश्चित करती है कि मर्द को हर पैमाने पर औरत से बेहतर होना चाहिए. हालांकि कुछ सामाजिक व्यवहार मर्द और औरत दोनों के लिए सुनिश्चित हैं. लेकिन मर्द के लिए उन्हें तोड़ना आसान है. औरत अगर ऐसा करे तो वह बदचलन जैसे विशेषणों से सुशोभित की जाती है.
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समाज पर पुरुषों के वर्चस्व की इसी व्यवस्था से यौन व्यवहार भी संचालित होता है. पुरुष सब्जेक्ट है और औरत ऑब्जेक्ट है. औरत की भूमिका हमेशा पैसिव होनी चाहिए. यौन संबंधों के मामले में पुरुष की इच्छा सर्वोपरि है. ये कुछ ऐसी बाते हैं जो आमतौर पर भारतीय मर्द के अवचेतन में होती ही हैं. परिवार के भीतर जब यह वर्चस्ववादी पुरुष सक्रिय होता है तो शारीरिक हिंसा से लेकर `मैरिटल रेप’ तक की घटनाएं होती हैं. परिवार से बाहर इसकी परिणिति यौन हमलों के रूप में दिखाई देती है.
भारत में हर साल तकरीबन ढाई सौ महिलाएं एसिड अटैक का शिकार होती हैं. आखिर वह कौन सी मानसिकता है जो इस अमानवीय अपराध का कारण बनती है? ठुकराया जाना भारतीय मर्द को मंजूर नहीं है. औरत के मुंह से ना सुनना उसे पसंद नहीं है. निर्भया कांड पर बनी लेस्ली वुडविन की डॉक्युमेंट्री `इंडियाज़ डॉटर' ने इस मामले के अपराधियों और उनके वकील का लंबा इंटरव्यू किया था. डॉक्युमेंट्री आंखे खोल देने वाली है.
यह बात समझ में आती है कि औरत को सिर्फ `भोगे जाने चीज़’समझने वाली मनोवृति किस तरह भारतीय समाज में काम करती है. अपराधियों के वकील की दलील और भी डराने वाली थी. उसने कहा कि 'एक अच्छे समाज में औरत के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए. औरत एक फूल की तरह है. उसे सजाकर गमले में रखा जाए तो ठीक है, अगर गटर में गिरेगी तो सड़ जाएगी. आखिर निर्भया को आधी रात को घर से निकलने की क्या ज़रूरत थी?
केंद्र सरकार ने इस डॉक्युमेंट्री पर प्रतिबंध लगा दिया. दलील यह दी गई कि इससे भारत की छवि खराब होती है. लगातार बढ़ रही छेड़खानी और रेप की घटनाओं से छवि निखर रही है और इन घटनाओं पर बात करने से छवि बिगड़ रही है? पोंगापंथ एक स्वीकृत सामाजिक ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय व्यवहार है.
सांप्रादायिक और जातीय झगड़े का निशाना बनती औरतें
औरतों के प्रति हिंसा के मामलों पर चर्चा सांप्रादायिक और जातीय हिंसा पर बात किए बिना अधूरी है. कबीलाई समाज औरत को संपत्ति मानता था. समय बदल गया लेकिन आधुनिक भारत में आकर भी यह मनोविज्ञान अब तक नहीं बदला है. आप कोई भी दंगा उठाकर देख लीजिए. हमलावर चाहे जो भी हो, हमला चाहे जिसपर भी हुआ हो, लेकिन शिकार सबसे ज्यादा औरतें बनी हैं.
दंगों में गैंगरेप और तलवार से गर्भवती औरत का पेट चीर देने के सैकड़ो सच्चे वाकये आपको आसानी से मिल जाएंगे. औरत संपत्ति है, इसलिए सम्मान भी है. अपनी संपत्ति बचानी चाहिए और दूसरे की संपत्ति लूट लेनी चाहिए. अपने सम्मान की रक्षा की जानी चाहिए और दूसरे की इज्ज़त तार-तार कर देनी चाहिए. इसी बीमार मानसिकता के साथ भारत की एक बड़ी आबादी जीती है. दलित औरतों के साथ रेप और उन्हें निर्वस्त्र करके घुमाए जाने के जितने वाकये मीडिया में आते हैं, शायद उनसे ज्यादा वाकये रिपोर्ट ही नहीं होते.
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अंतर्रजातीय और अंतरधार्मिक शादियों में भी यही मनोविज्ञान काम करता है. अगर सवर्ण लड़के ने किसी छोटी जाति में शादी कर ली तो मामला रो-धोकर किसी तरह स्वीकार कर भी लिया जाता है, लेकिन ऊंची जाति की लड़की नीची जाति के लड़के से शादी करे, तो नाक कट जाती है, क्योंकि बेटी सम्मान है.
अंतरधार्मिक विवाह में धर्मांतरण हमेशा लड़की को ही करना पड़ता है. इसलिए इस तरह की शादियों पर बवाल उस धार्मिक समूह की ओर से होता है, जिसकी लड़की अंतरधार्मिक विवाह कर रही हो. लड़के के अंतरधार्मिक विवाह को कई बार विजयी भाव से देखा जाता है. लेकिन लड़की का अंतरधार्मिक विवाह कहीं ` कौम की इज्ज़त पर आंच’ तो कहीं `लव जेहाद’ होता है. कहने की ज़रूरत नहीं कि भारतीय समाज इस देश की आधी आबादी को अपनी जिंदगी चुनने तक का अधिकार देने को तैयार नहीं है.
यत्र नार्यस्तु पूज्यनते रमन्ते देवता
यह बहुत साफ है कि सामाजिक बदलाव आए बिना महिलाओं के खिलाफ होनेवाली हिंसा नहीं रुकेगी. लेकिन क्या यह बदलाव आ रहा है? जवाब आपको पता है, फिर भी मैं एक छोटा सा उदाहरण आपके सामने रख रहा हूं.
केंद्र सरकार की सबसे वरिष्ठ और सम्मानीय मंत्रियों में एक सुषमा स्वराज को तन्वी सेठ नाम की एक महिला ने ट्वीट किया, जिसमें यह शिकायत की गई थी कि उसका पासपोर्ट इसलिए नहीं बन पा रहा है, क्योंकि उसके पति मुसलमान है और पासपोर्ट अधिकारी ने पूछताछ के दौरान उनके साथ अभद्रता की.
सुषमा स्वराज उस समय विदेश यात्रा पर थी. लेकिन इस ट्वीट के बाद पासपोर्ट कार्यालय ने अधिकारी का तबादला कर दिया और तन्वी सेठ के नाम पासपोर्ट जारी कर दिया. बाद में हुई छानबीन में पता चला कि उस महिला ने कुछ तथ्य छिपाए थे. लिहाजा उसका पासपोर्ट रद्ध हुआ और साथ ही हर्जाना भी लगाया गया.
सुषमा स्वराज और उनके मंत्रालय ने दोनो स्थितियों में वही किया जो एक संवदेशनील सरकारी महकमे को करना चाहिए. किसी व्यक्ति की शिकायत पर त्वरित कार्रवाई और शिकायत गलत पाए जाने पर फैसले में बदलाव. लेकिन उसके बाद से सुषमा स्वराज लगातार ट्रोलर्स के निशाने पर हैं.
उनके खिलाफ लगातार अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है. एक व्यक्ति ने तो यहां तक लिखा है कि सुषमा स्वराज के पति उन्हे पीटते क्यों नहीं हैं? ये तमाम लोग यत्र `नार्यस्तु पूज्यनते रमन्ते देवता’ को आदर्श मानने वाली पार्टी के समर्थक हैं. इनमें कई ऐसे हैं, जिन्हे कुछ केंद्रीय मंत्री तक ट्विटर पर फॉलो करते हैं.
सोशल मीडिया पर हो रही शाब्दिक हिंसा के मुकाबले सुषमा स्वराज अकेली खड़ी हैं और पार्टी की तरफ से उनके समर्थन में कोई बड़ा नेता अब तक सामने नहीं आया है. अब यह सुषमा स्वराज पर निर्भर है कि वे इस स्थिति को लेकर दुखी हों या फिर संस्कृत के अच्छे-अच्छे श्लोक याद करके गौरवान्वित महसूस करें कि उनका जन्म ऐसे देश में हुआ है, जहां नारी की पूजा की जाती है!
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