पुलिसिया हनक और रगों में दौड़ रहे ‘एनकाउंटरी-खून’ की नाकाबिल-ए-बरदाश्त तपिश ने उत्तर प्रदेश पुलिस का चेहरा एक बार फिर बुरी तरह झुलसा दिया है. ‘फर्जी-एनकाउंटर’ का सा कोई तामझाम इकट्ठा किए बिना ही इस बार एपल कंपनी के मैनेजर विवेक तिवारी के बदन में गोलियां झोंक डाली. वो भी उनके साथ गाड़ी में मौजूद जीती-जागती चश्मदीद लड़की सना खान की आंखों के सामने. हड़बड़ाहट में हत्यारे सिपाही! बेचारे खुद के बचने के इंतजाम तक नहीं कर पाए थे. सो हत्याकांड की रस्सी गले से ढीली करने की उम्मीद में. एक अदद चश्मदीद लड़की (विवेक की सहयोगी) को खाकी (लखनऊ पुलिस) ने अज्ञात स्थान पर घंटों के लिए छिपा दिया.
इस कांड की जांच से जुड़ी फाइलें अब एक अदालत से दूसरी अदालत में कब तक भटकेंगीं? सब जानते हैं मगर, मुंह कोई नहीं खोलेगा. इन हत्यारे सिपाहियों के दुस्साहसिक कुकर्म ने देश के तमाम आला पुलिस अफसरान के भी होश उड़ा दिए हैं. लखनऊ पुलिस के इंसानी दुनिया में पेश किए गए इस ‘वहशी-कांड’ से आम-आदमी की बात छोड़िए. देश के तमाम आला पुलिस अफसरान के भी होश-फाख्ता कर डाले हैं. बजरिए ‘संडे क्राइम स्पेशल’ की इस खास-किश्त के, आपको फिर याद दिलाने की कोशिश कर रहा हूं. 21 साल पहले दिल्ली के दिल कहे जाने वाले कनाट प्लेस के सीने पर दिनदहाड़े हुए ऐसे ही असली दिल्ली पुलिस के ‘फर्जी-खूनी-कांड’ की. साथ ही करीब 10 साल पहले उत्तराखंड पुलिस के देहरादून (लाडपुर) के जंगलों में किए गए, रणवीर ‘फर्जी-एनकाउंटर’ की.
दिल्ली का काला दिन, लखनऊ की काली रात
न्याय का पालन कराने वाली. जनता की सुरक्षा करने वाली खाकी वर्दी में मौजूद तमाम शैतान. मौका हाथ आते ही जनता और जुडिशरी की ‘मिट्टी-पलीद’ कराने पर सबसे ज्यादा तुले बैठे देखने को मिल जाएंगे. इसी का जीता-जागता ताजातरीन नमूना है लखनऊ का विवेक तिवारी हत्याकांड. विवेक तिवारी सा ही खूनी खेल दिल्ली पुलिस के कथित महारथियों (इंस्पेक्टर/एसीपी सतवीर राठी एंड कंपनी) ने वर्ष 1997 में खेला था. आउट-ऑफ-टर्न प्रमोशन की अंधी-चाहत ने खाकी के दबंगों से कनाट प्लेस में भीड़ भरे चौराहे पर दिनदहाड़े कत्ल-ए-आम करा डाला. उस पुलिसिया खूनी खेल में दो बेकसूर लोग जान से हाथ धो बैठे. केस सीबीआई के पास गया. जांच पड़ताल वर्षों घिसटती रही. यह अलग बात है कि, राठी एंड कंपनी को बतौर सजा मिली तिहाड़ जेल की काल कोठरी. बजाए आउट-ऑफ-टर्न के.
लखनऊ ने जगाए दिल्ली-देहरादून एनकाउंटर के जख्म
लखनऊ में एपल मैनेजर विवेक तिवारी को अपनी पर उतरे पुलिसवालों ने क्या मार डाला! देश भर में इसे लेकर कोहराम मच गया है. विवेक हत्याकांड के आरोपी जिन खूनी सिपाहियों को, पड़ोसी तक नहीं पहचानता था. वो इस हत्याकांड के बहाने ही सही. बजरिये मीडिया, दुनिया भर में ‘कुख्यात’ कर दिए गए. ऐसे में भला 3 जुलाई, 2009 को देहरादून पुलिस के लाडपुर के जंगलों में खेले गए ‘खूनी-खेल’ को भला कौन भूल सकता है.
देहरादून पुलिस पर आरोप लगा था कि, उसने रणवीर नाम के छात्र को खिसियाकर लाडपुर के जंगलों में गोलियों से भून डाला. रणवीर दिल्ली से सटे शालीमार गार्डन (गाजियाबाद) का रहने वाला था. एमबीए के होनहार छात्र रणवीर के बदन में उत्तराखंड के पुलिसकर्मियों ने 29 गोलियां मारी थीं. जिनमें से 7-8 गोलियां एकदम करीब से मारी गई थीं. हत्यारे पुलिसवालों ने असली एनकाउंटर साबित करने के लिए लाश के पास एक रिवॉल्वर और एक तमंचा भी कहीं से लाकर ‘चिपका’ दिया. 18 में से 17 पुलिसवालों पर आरोप सिद्ध हुआ. हालांकि बाद में 7 पुलिसकर्मी ही इसके अंतिम दोषी साबित हो सके.
सिपाहियों को किसी ‘साहब’ शह रही होगी!
जानते सब आला पुलिस अफसर हैं कि, लखनऊ कांड ने पुलिस को मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा है. इसके बाद भी विवेक तिवारी हत्याकांड पर कोई आला पुलिस अफसर खुलकर बोलने को तैयार नहीं है. तमाम कोशिशों के बाद यूपी पुलिस के रिटायर्ड डीआईजी (यूपी राज्य पुलिस सेवा कॉडर के आईपीएस) राजेंद्र प्रसाद सिंह यादव (आरपीएस यादव) ने बोलने की हिम्मत दिखाई. बकौल आरपीएस यादव, ‘सिपाहियों की इतनी औकात ही कैसे हो गई जो, उनमें निहत्थे शख्स पर गोलियां दागने की हिम्मत आ गई. विवेक तिवारी की जघन्य हत्या से बेहद खफा राजेंद्र प्रसाद सिंह यादव के ही शब्दों में, ‘जरुर यह सिपाही थाने से लेकर, किसी न किसी आला पुलिस अफसर के मुंह-लगे रहे होंगे! इन सिपाहियों में इतना जिगर इसीलिए पैदा हुआ होगा क्योंकि, इन्हें पहले से खाकी में कुछ कुकर्म करते रहने की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष गाहे-बगाहे छूट मिली होगी!’
पहले खुद गोली खाते फिर गोली चलाते!
आरपीएस यादव के मुताबिक, ‘सिपाहियों की क्या हिम्मत कि वो, इतना बड़ा कदम उठा पाते? अगर इन दोनों आरोपियों के दिमाग में अपने आला अफसर और महकमे का खौफ होता तो वो, पहले खुद गोली खाते. तब गोली चलाते.’ बता दें कि, आरपीएस यादव वही कड़े-मिजाज अफसर हैं, जिन्होंने कभी डिप्टी एसपी रहते हुए अपने ही दारोगा को गिरफ्तार कर के जेल भेज दिया था. जबकि शिकोहाबाद सर्किल के सीओ रहते हुए राजेंद्र प्रसाद सिंह यादव ने पुलिस हिरासत में हुई मौत में ‘मुकदमा’ मातहतों के खिलाफ लिखवाने के बजाए अपने ही नाम लिखा लिया था.
भला उन्हें भागने की क्या जरुरत थी?
1960 दशक के यूपी काडर के दबंग आईपीएस यूपी के ही पूर्व पुलिस महानिदेशक बीएसएफ के दबंग आला अफसर रहे अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर ‘फ़र्स्टपोस्ट हिंदी’ से ही सवाल दागा, ‘हत्यारोपी सिपाहियों की ही बात अगर सही मानी जाए कि, विवेक अपनी महिला सहयोगी के साथ रात के वक्त कार में संदिग्ध हालात में था. पुलिसवालों ने उन्हें टोका. तो जाहिर सी बात है कि, आपत्तिजनक हालत में पकड़े जाने पर लड़का-लड़की सिपाहियों के आगे इज्जत की खातिर माफी मांगते. गिड़गिड़ाते हुए पुलिसवालों की मान-मनुहार करते. यह तो अजीब सी बात है कि, विवेक ने सिपाहियों पर कार चढ़ाई सो सिपाहियों ने गोली सीधे माथे में ठोक कर लड़के की जान ले ली. यह सब बेतुके और बेहद शर्मनाक वाहियात तर्क हैं. यह मामला आरोपियों के साथ-साथ यूपी की बाकी पुलिसवालों को भी शर्मसार कर रहा है.आप ही बताइए आरोपी सिपाहियों के खुद के बचाव में दिया जा रहा यह कोई गले उतर पाने वाला सही तर्क है?’
तीन राज्य 3 फर्जी एनकाउंटर में एक समानता
दिल्ली का कनाट प्लेस फर्जी खूनी-एनकाउंटर हो. उत्तराखंड पुलिस द्वारा अंजाम दिया गया देहरादून (लाडपुर) के जंगलों में की गयी फर्जी मुठभेड़ का मामला. या फिर अब 28-29 सितंबर 2018 की रात लखनऊ में सिपाहियों द्वारा घेर कर मार डाले गए? विवेक तिवारी की जघन्य हत्या का मामला. कमोबेश एक समानता तीनों ही फर्जी मुठभेड़ों में साफ-साफ मिलती है. दिल्ली के कनाट प्लेस कांड में भी खून के प्यासे हत्यारे पुलिस वालों ने दो निरीह लोगों को गोलियां एकदम करीब से घुसकर मारीं. इसी तरह लाडपुर के जंगलों में ले जाकर ढेर कर दिए गए रणबीर के बदन में भी 7-8 गोलियां एकदम क्लोज-रेंज से ही ठोकी हुई पाई गईं थी. अब लखनऊ पुलिस के दो कथित बहादुर कहूं या बुजदिल सिपाहियों जिन्होंने विवेक तिवारी के भी बदन में जो गोली मारी, वो भी बेहद करीब से ही मारी गई.
साहब को सुधारो सिपाही सुधर जाएंगे
1970 के दशक के पूर्व आईपीएस और यूपी के ही रिटायर्ड डीजीपी (पुलिस महानिदेशक) स्तर के दबंग अफसर के मुताबिक, ‘मीडिया क्यों भूल जाती है कि, 'दिल्ली के कनाट प्लेस शूटआउट' में पुलिस कमिश्नर निखिल कुमार से केंद्र सरकार ने उनकी दिल्ली पुलिस की कमिश्नरी छीन ली थी. जबकि उत्तराखंड (देहरादून लाडपुर जंगल की फर्जी मुठभेड़) और शनिवार को लखनऊ में हुए विवेक तिवारी हत्याकांड में एक समानता रही. न उस वक्त उत्तराखंड के पुलिस प्रमुख हटाए गए थे. न ही विवेक तिवारी की नृशंष हत्या के बाद यूपी के पुलिस डायरेक्टर जनरल साहब पर कोई आंच आई. जब आप बड़े अफसर को बचाएंगे! तो नीचे वाले यानी मातहत दारोगा, हवलदार, सिपाही तो न जाने, कितने और विवेक तिवारी को बेमौत मारते रहेंगे. जबाबदेही पहले जवान (सिपाही) की नहीं साहब की तय करे सूबे की सल्तनत. आगे भी भला उन्हें कौन काबू कर पाएगा? जबाबदेही और जिम्मेदारी पहले मुखिया पर तय हो. नीचे वाले सब खुद ही सुधर जाएंगे.’
पुलिस जो चाहती है वही होता है बाकी सब झूठ
विवेक तिवारी हत्याकांड से यूपी के दबंग रिटायर्ड डिप्टी पुलिस अधीक्षक सुरेंद्र सिंह लौर का पारा सातवें आसमान पर है. हमेशा अफसरशाही से दूर रहने वाले लौर के शब्दों में, ‘जब एनकाउंटर के बलबूते ही प्रमोशन होने का लालच सिपाही-हवलदार-दारोगा के दिमाग में ठूंसा जाएगा, तो ऐसे ही कांड सामने आएंगे. भारतीय कानून ने पुलिस को भगवान से भी ज्यादा ताकत दे रखी है. बस उसी ताकत के बेजा इस्तेमाल का यह घिनौना नमूना है. लखनऊ पुलिस के दोनों बुजदिल सिपाहियों द्वारा बेमौत मार डाले गए विवेक तिवारी की हत्या. इससे ज्यादा देश की बदनसीबी यह है कि अब, पड़ताल के नाम पर विवेक तिवारी हत्याकांड कई साल तक कोर्ट-कचहरी की गलियों में घिसटता हुआ मारा-मारा फिरेगा. जो हुआ गलत हुआ. आगे नहीं होना चाहिए. इन कुकर्मों से पुलिस की बची-खुची इज्जत भी जाती रहती है. आज घर-घर में बैठी पब्लिक, खाकी-वर्दी के ऊपर फोकट में ही लानत-मलामत नहीं भेज रही है. कुछ स्थानों पर पब्लिक भी पुलिस से कहीं ज्यादा सही है. पुलिस यदि सुधर जाए तो पब्लिक तो सड़क पर आकर उसकी आरती उतारने लगेगी. मुझे विश्वास है.’
इस ‘संडे क्राइम स्पेशल’ में जरूर पढ़े
‘कई साल से अदालतों में चल रही, रुला देने वाली पुलिस-वकीलों की जिरहों से भांप चुका था मैं कि, सर-ए-शाम भरे बाजार में कत्ल के आरोप में मुझे, फांसी पर लटकाए जाने की सजा ही मुकर्रर होगी! सजा ऐलान होने वाले दिन से पहली पेशी पर ही मैंने, पत्नी को जिस दिन अदालत में न आने को कहा था, उसी दिन मुझे ‘सजा-ए-मौत’ सुना भी दी गई. फांसी के फंदे पर चढ़ने से बच जाने के बाद भी. जवानी के 18 सुनहरे साल जेल की काल-कोठरी में गुजार कर भी सही-सलामत जेल से बाहर आये, सजायाफ्ता पूर्व मुजरिम की बेबाक मगर खौफनाक मुंहजुबानी. बिना किसी काट-छांट या संपादन के.’
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