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लांबादी और आदिवासियों के बीच तनाव से तेलंगाना में जातीय संघर्ष की स्थिति

इस समस्या का तार्किक और सम्मत समाधान ये ही हो सकता है कि आदिवासियों के इन समुदायों को अलग-अलग समूहों में बांट दिया जाए, जो ओबीसी कैटेगरी के संदर्भ में पहले से ही किया जा चुका है

Updated On: Jun 07, 2018 01:33 PM IST

K Nageshwar

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लांबादी और आदिवासियों के बीच तनाव से तेलंगाना में जातीय संघर्ष की स्थिति

तेलंगाना में आदिवासी और लांबादी समुदाय के बीच लगातार चल रहा संघर्ष अब गंभीर परिणाम की तरफ बढ़ रहा है. कई आदिवासी संस्थाओं ने अपने यहां आने वाले कई अधिकारियों, शिक्षकों जो लांबादी या (नायक) समुदाय से आते थे उनपर वहां आने से रोक लगा दी है. ये लोग अब आदिवासी गांवों के अंदर आ नहीं पाएंगे. ऐसा करके आदिवासियों ने खुद को स्वशासित घोषित करने की कोशिश की है. यहां की सरकारें और राजनीतिक दल इन लोगों की समस्याओं की तरफ उदासीन रुख अख्तियार किए हुए हैं, ताकि इनमें से किसी एक भी समूह से मिलने वाले वोटबैंक का नुकसान न हो.

यहां के आदिवासियों की लंबे समय से ये मांग है कि लांबादियों को आदिवासी आरक्षण की सुविधा से दूर किया जाए. उनकी सबसे बड़ी चिंता या शिकायत ये है कि लांबादी समुदाय के लोग आरक्षण की इस सुविधा का फायदा गलत तरीके से उठा रहे हैं जिससे उन्हें नुकसान हो रहा है. आदिवासियों के मुताबिक- लाबांदी शिक्षा, रोजगार और सरकारी योजनाओं के क्षेत्र में गलत अनुपात में आरक्षण की सुविधा प्राप्त कर रहे हैं, जो असल में आदिवासियों के लिए लागू किया गया है. तेलुगुभाषी ये दोनों ही राज्य पहले से ही अनुसूचित जातियों के वर्गीकरण की मांग को लेकर लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं, वे चाहते हैं कि अनुसूचित जाति में आने वाले समुदायों को ‘मडिगा’ की श्रेणी में रखे जाएं. उन्हें यहां भी इस बात की चिंता है कि वर्गीकरण न होने के कारण ‘माला’ समुदाय आरक्षण से मिलने वाले फायदों को उनसे छीन ले रहा है.

1976 अनुसूचित जाति और जनजाति संशोधन कानून के मुताबिक, अविभाजित आंध्रप्रदेश में राज्य के बंजारा यानी (लंबादी और सुगाली) समूहों को अनुसूचित जाति के रूप में पहचान मिली थी. चूंकि, बंजारा या लांबादी समुदायों को अलग-अलग राज्यों में अलग तरह से वर्गीकृत किया गया है. इसलिए आदिवासी समूहों को मिलने वाली योजनाओं का फायदा उठाने के लिए इन समूहों के कई परिवार जो महाराष्ट्र, राजस्थान और उत्तर-भारत के कई अन्य राज्यों में बसे थे, वे सब बड़ी संख्या में अपने-अपने राज्यों से पलायन कर अविभाजित आंध्रप्रदेश में आकर बस गए थे, जो अब आंध्रप्रदेश और तेलंगाना के नाम से दो राज्यों में तब्दील हो गया है.

अब जैसे-जैसे विधानसभा चुनावों की तारीख़ नज़दीक आ रही है, वैसे-वैसे लांबादी और आदिवासी समूहों के बीच चल रहा ये विवाद और गंभीर होने का डर भी बढ़ता जा रहा है. क्योंकि अब इसमें प्रतिस्पर्धात्मक राजनीतिक लोकप्रियता, एक चालाक और टाल-मटोल करने वाला राज्यस्तरीय नेतृत्व और ऐसे नेताओं व पार्टियों का जमावड़ा शामिल हो गया है जिनकी इस मुद्दे पर स्टैंड या निर्णय संदिग्ध है.

आबादी और आरक्षण में अनुपातहीन वृद्धि

तेलंगाना में एक बहुत बड़ी आदिवासी आबादी है. 1961 में ये आबादी जहां 2.81% थी वहीं 1981 में ये बढ़कर 8.19 % हो गई थी, जो आगे चलकर साल 2011 में तो 9.34 % तक पहुंच गई, जो राष्ट्रीय औसत से भी ज्यादा है. इस बढ़त की एक वजह कुछ विशेष जातियों को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल करना भी है. जंगली या आदिवासी समुदाय की संख्या में हुई इस अंधाधुंध तेजी से ही इस समस्या की जड़ का पता चलता है. ये पता चलता है कि कैसे लांबादियों को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल करने से तेलंगाना राज्य की अनुसूचित जनजाति आबादी में अचानक इतनी वृद्धि हो गई. एक अनुमान के मुताबिक 1976 के बाद यहां की आदिवासी आबादी में लाबांदियों का अंश बहुत ज़्यादा बढ़ा है.

जबकि आदिवासियों को मिलने वाला आरक्षण उनकी बढ़ी हुई जनसंख्या के अनुपात में नहीं बढ़ा है. ये तेलंगाना का हाल है, जिससे जुड़ा एक बिल केंद्र सरकार के पास लंबित है. जिस कारण, ज्यादा से ज्यादा आदिवासी अब रिज़र्व कैटेगरी की सीट या नौकरी के लिए कोशिश करने लगे हैं, जबकि इसका एक बड़ा हिस्से पर लाबांदियों का वर्चस्व बना हुआ है जो आदिवासियों के हितों का नुकसान करता है.

प्रतीकात्मक तस्वीर.

प्रतीकात्मक तस्वीर.

उत्तरी तेलंगाना के कई गांवों और अदीलाबाद में ऐसे बोर्ड और बैनर लगाए गए जिनमें ‘मावा नाते, मावा राजे’, यानि (हमारा गांव, हमारा राज) जैसे नारों का प्रदर्शन किया गया, जो ये बता रहे थे कि आदिवासियों और लांबादियों के बीच खाई दिन-ब-दिन और बढ़ती ही जा रही है.

गोंद और कोया उपजाति से आने वाले आदिवासियों की मुख्य मांग ये है कि राज्य में लांबादियों को अनुसूचित जनजाति की सूची से बाहर किया जाए क्योंकि देश के अन्य राज्यों में इन्हें अलग-अलग वर्ग में रखा गया है. वे ज़ोर देकर ये कह रहे हैं कि कोई भी व्यक्ति हो या समूह जो पलायन करके तेलंगाना राज्य में आ बसते हैं उन्हें अपने मूल राज्य में जो सामाजिक दर्जा मिला हुआ होता है, उन्हें यहां भी उसी दर्जे में जगह दी जाए. न कि उस विशेष जाति का तेलंगाना राज्य के भीतर किस तरह से वर्गीकरण हो रखा है.

उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र में लांबादियों को ओबीसी कैटेगरी में शामिल किया गया है. पिछले कुछ सालों में ये लोग अविभाजित आंध्रप्रदेश और अब तेलंगाना में जाकर बस गए, खासकर अदीलाबाद जिले में. यहां आकर इन लोगों ने भ्रष्ट अधिकारियों और सरकारी कार्मचारियों से सांठ-गांठ कर जाली अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र भी हासिल कर लिया. इन्हीं हालातों ने यहां के आदिवासियों के मन में गुस्सा और विद्रोह को जन्म दिया, जो अदीलाबाद में चल रहे संघर्ष का मुख्य बिंदु है.

जिस वजह से लांबादी जिन्हें आदिवासियों से ज्यादा विकासशील माना जाता है, उन्हें न सिर्फ शिक्षा और नौकरी में स्थानीय आदिवासियों की तुलना में कहीं ज्यादा फायदा मिलता है बल्कि राजनीतिक नियुक्तियों में उन्हें प्रश्रय दिया जाता है. इन इलाकों में लांबादियों का राजनीतिक कद और ताकत किस कदर बढ़ता जा रहा है, वो इस बात से साबित होता है कि कैसे सत्ता और प्रतिपक्ष दोनों ही इस मामले में कोई साफ-सुथरा निर्णय या स्टैंड लेने को तैयार नहीं हैं. जबकि आदिवासियों का विरोध बढ़ता ही जा रहा है.

ज़मीन का सौदा और लोकोपकारी योजनाएं

ज़मीन के सौदों ने आदिवासियों और लाबांदियों के बीच तनाव को और बढ़ा दिया है. यहां गैर-आदिवासी समाज के लोगों को आदिवासियों से उनके इलाके में ज़मीन खरीदने की मनाही है. इस नियम का मकसद आदिवासी इलाकों को खत्म होने से रोकना है. लेकिन, जैसे कि तेलंगाना में लांबादियों को आदिवासी का दर्जा मिल चुका है इससे वे कानूनी तौर पर यहां की ज़मीनों की खरीद-फरोख़्त अधिकारी हो जाते हैं, यहां तक कि पलायन करके अनुसूचित इलाकों में भी. ऐसी भी खबरें है कि कुछ भ्रष्ट अधिकारी उन्हें जाली सर्टिफिकेट भी जारी कर मदद कर रहे हैं जिसमें उन्हें इन अनुसूचित इलाकों का ही मूल बाशिंदा दिखा दिया जाता है. यहां के आदिवासी जिस दरिद्रता और पिछड़ेपन में जीवनयापन करते हैं, उससे वे अपने जमीनों पर कब्ज़ा खोते जा रहे हैं.

प्रतीकात्मक तस्वीर.

प्रतीकात्मक तस्वीर.

 

आदिवासियों का ये भी कहना है कि लांबादियों को आदिवासियों के लिए चलाए जा रहे सरकारी कल्याणकारी योजनाओं और आदिवासी फंड का भी बड़ा हिस्सा बड़ी आसानी मिल रहा है. इस संबंध में आदिवासियों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी डाली है, जिसमें अदालत से ये विनती की गई है कि न सिर्फ लाबांदियों को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी से बाहर किया जाए बल्कि 1976 के संशोधन को अल्ट्रा-वायर्स यानि संविधान के अधिकारों से बाहर रखा जाए.

और उम्मीद के अनुसार, आदिवासियों के इस आंदोलन को लाबांदियों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ रहा है और उनकी चिंता को नकारा भी नहीं जा सकता है. इनकी दलील है कि उनका समाज भी सामाजिक और आर्थिक तौर पर पिछड़ा हुआ और कमजोर है और संविधान ने उन्हें जो सुविधा और पहचान प्रदान की है उसे वापिस नहीं लिया जा सकता है.

समस्या का मुमकिन समाधान

जो राजनीतिक प्रणाली लोकप्रियता के रथ पर सवार होती है, वो किसी भी हालत में किसी एक समाज को दी गई आरक्षण की सुविधा को उनसे वापिस नहीं ले सकती है. इसलिए इस समस्या का तार्किक और सम्मत समाधान ये ही हो सकता है कि आदिवासियों के इन समुदायों को अलग-अलग समूहों में बांट दिया जाए, जो ओबीसी कैटेगरी के संदर्भ में पहले से ही किया जा चुका है. इससे आदिवासी और लांबादी दोनों ही वर्ग को आरक्षण का फायदा सही तरीके से, अलग-अलग और उनकी आबादी के अनुपात में मिल पाएगा. आदिवासी आरक्षण की सुविधा को नए तेलंगाना राज्य में उनकी आबादी को ध्यान में रखकर बढ़ाने पर भी विचार किया जाना चाहिए.

एक तरफ लांबादियों को ये मान लेना चाहिए कि मौजूदा प्रणाली में आदिवासियों को आरक्षण में भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है, वहीं आदिवासियों को भी ये समझना चाहिए कि कोई भी राजनीतिक दल इस बात की हिम्मत नहीं जुटा सकता है कि वो लांबादियों को दिया गया आदिवासी का स्टेट्स उनसे छीन ले. क्योंकि वे तेलंगाना की आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं. वर्गीकरण से शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक नियुक्तियों में आदिवासियों के हित का ध्यान रखा जा सकेगा.

सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने कई फैसलों में इस तरह के वर्गीकरण का स्वागत किया है. सरकार को भी इस तरह की लोक-कल्याणकारी योजनाओं को लाना चाहिए जहां कमजोर वर्ग के साथ अन्याय न हो. ज़मीन से जुड़े मुद्दे पर और अधिक शोध और विचार करने की ज़रूरत है, ताकि आदिवासियों की ज़मीन से आदिवासी समाज के पलायन की समस्या का सर्वमान्य और तार्किक समाधान निकाला जा सके. इसकी ज़रूरत हमारे देश के कुछ प्राचीन आदिवासी समाज की सुरक्षा के लिहाज़ से भी बेहद ज़रूरी है. जनजातियों के बीच जनजाति को न्याय देकर ही इस समस्या का समाधान मुमकिन है.

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