इस बात को बहुत ज्यादा समय नहीं बीता है. दक्षिणी कर्नाटक के बिलवा और होलिया जाति के लोग उडुपी के श्रीकृष्ण मंदिर में बाहरी दीवार के उस पार से भगवान को देख सकते थे. वो मूर्ति को ‘अशुद्ध’ न कर दें इसलिए उन्हें दूर रखा जाता था. पूजा के दौरान उन्हें धैर्यपूर्वक पुजारी का इंतजार करना होता था कि वो उनके पास आकर उनके हाथों से चढ़ावे को स्वीकार करें. फिर, आजादी के पहले ही साल में, मद्रास प्रांत ने दलितों का मंदिर में प्रवेश सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाया. 1954 में, सुप्रीम कोर्ट ने सभी लोगों के एक समान पूजा के अधिकार को बहाल किया.
अदालत के बृहस्पतिवार (गुरुवार) के फैसले ने महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में प्रवेश करने की इजाजत देकर एक सभ्य, सम्माजनक काम किया है- कुछ ऐसा जिसका सही सोचने वाले सभी भारतीय समर्थन करेंगे.
लेकिन सभ्य चीज जरूरी नहीं कि सही भी हो. चूंकि भारतीय फैसले का जश्न मना रहे हैं, हमें भी आस्था से जुड़े सवालों के फैसले में अदालत को शरीक किए जाने की कीमत पर विचार करना होगा- क्या मस्जिद इस्लाम का एक जरूरी हिस्सा है? क्या मंदिरों को सभी के लिए खुला होना चाहिए? क्या सिखों को अपने बाल लंबे रखना चाहिए?
असल में, धर्म का राष्ट्रीयकरण किया जा रहा है. अब भारत की न्याय प्रणाली और सरकार के लिए समय आ गया है कि भगवान के कामकाज को धर्मनिष्ठ लोगों- और प्राइवेट सेक्टर पर छोड़ दें. राजनेता राष्ट्रीयकरण किए धर्म से मिलने वाली ताकत को आसानी से नहीं छोड़ेंगे, लेकिन इसका विकल्प एक ऐसा भेड़चाल वाला धर्मतंत्र है जो हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों को लील जाएगा.
1954 में, जब सुप्रीम कोर्ट ने परम पावन श्री विश्वोथामा बनाम मद्रास राज्य के मामले को सुना, तो उसने संविधान से मार्गदर्शन लिया. यहां तक कि धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देने वाले अनुच्छेद 25 की धारा 2 में भी एक रोक है: पूजा का अधिकार राज्य को धार्मिक अभ्यास से जुड़ी किसी भी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या अन्य धर्मनिरपेक्ष गतिविधि को नियंत्रित या प्रतिबंधित करने, या 'सार्वजनिक स्वरूप के हिंदू धार्मिक संस्थान को, हिंदुओं के सभी वर्गों के लिए खोलने' से नहीं रोकता है.
जब हिंदू धर्म में सुधार की मांग करने वाली समतावादी प्रवृत्तियां उभरना शुरू हो गई थीं
यह समझने के लिए कि यह रोक क्यों है, हमें स्वतंत्रता आंदोलन के प्रारंभिक वर्षों के पन्नों को पलटना होगा, जब हिंदू धर्म में सुधार की मांग करने वाली समतावादी प्रवृत्तियां उभरना शुरू हो गई थीं.
1917 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) ने- जिसमें कई हिंदू राष्ट्रवादी पदाधिकारी थे- एक प्रस्ताव को स्वीकार किया था जिसमें समर्थकों से 'परंपराओं द्वारा दलितों पर लगाई गई सभी रुकावटों को हटाने कीआवश्यकता, न्याय और धार्मिकता' स्वीकार करने का आग्रह किया गया था.
तीन साल बाद, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने दलितों के खिलाफ भेदभाव को खत्म करना प्रमुख राष्ट्रीय प्राथमिकता घोषित किया. मोहनदास करमचंद गांधी के अनुयायियों ने आध्यात्मिक केंद्र स्थापित किए, जहां दलित कृषि कार्यकर्ताओं के मन में संयम के मूल्यों को बिठाया जा सकता था.
कांग्रेस ने आम तौर पर दलित मुद्दों के समाधान के रूप में राज्य की अगुआई में कार्रवाई की जरूरत पर जोर नहीं दिया. इसके बजाय, इसके अभियानों में समाज के अंदर से सुधार के लिए प्रेरित करने को धार्मिक प्रमुखों और हिंदू धर्म के सम्मानित लोगों को जोड़ा गया.
हालांकि पार्टी में ऊंची जाति के कई नेता जाति प्रथा के खिलाफ इस आंदोलन को लेकर बहुत उत्साहित नहीं थे, फिर भी यह पहल बड़े पैमाने पर कांग्रेस के सामान्यतः संभ्रांत नेतृत्व और दलितों के बीच (और इस प्रकार, साम्राज्यवाद के खिलाफ) एकजुट मोर्चा बनाने के लिए पुल के निर्माण की कुंजी थी.
आंदोलन सबसे पहले तमिलनाडु- तब के मद्रास प्रेसिडेंसी में फलीभूत हुआ. वर्षों के संघर्ष के बाद, जब हिंदू सुधारक सामाजिक दृष्टिकोण को बदलने में नाकाम साबित हुए, तो राज्य की विधायिका ने एक ऐसा कानून पारित किया जो सभी को मंदिर में प्रवेश की अनुमति देता था.
द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने से करीब एक महीने पहले, दलित मेलूर तालुका के वलयपट्टी में सौंदरराजा पेरुमल मंदिर में प्रवेश करने में कामयाब हुए, इसके बाद जल्द ही मदुरै में मीनाक्षी अम्मन मंदिर और तंजौर के आलीशान बृहदेश्वर मंदिर में.
भारत के दूरदराज हिस्सों में, लड़ाई अब भी जारी है: हाल ही में साल 2016 में, बीजेपी के तरुण विजय को एक दलित सहयोगी के साथ उत्तराखंड के जौनसर भाभर मंदिर में जाने के दौरान भीड़ की पत्थरबाजी का सामना करना पड़ा.
ज्यादा से ज्यादा हिंदू धार्मिक संस्थानों पर प्रत्यक्ष नियंत्रण लेने को प्रेरित किया
1950 के दशक से, सबको समान अधिकार दिलाने के मकसद ने सरकार को ज्यादा से ज्यादा हिंदू धार्मिक संस्थानों पर प्रत्यक्ष नियंत्रण लेने को प्रेरित किया. 1951 में, मद्रास सरकार हिंदू धार्मिक और चैरिटेबल एंडॉवमेंट्स एक्ट लेकर आई. वर्ष 1959 में इसके बाद आया कानून देश भर इस तरह के कानूनों के लिए एक मॉडल बन गया. यह कानून सरकार द्वारा नियुक्त आयुक्त को, अगर उन्हें लगे कि हिंदू संस्थान का गलत प्रबंधन किया जा रहा है, तो उन पर नियंत्रण कर लेने की शक्ति देता है.
हिंदू धार्मिक संस्थानों के लिए तमिलनाडु के आयुक्त की शक्तियों पर कानूनी मामलों के विद्वान डोनाल्ड स्मिथ लिखते हैं, 'धर्मनिरपेक्ष राज्य का एक सरकारी कर्मचारी, आज इंग्लैंड के चर्च पर कैंटरबरी के आर्क बिशप की तुलना में मद्रास राज्य में हिंदू धर्म पर बहुत अधिक अधिकार का प्रयोग करता है.'
साल दर साल, हिंदू संस्थानों की विशाल संख्या सरकार के नियंत्रण के अधीन आती गई है. तमिलनाडु 34 हजार से अधिक मंदिरों का प्रबंधन करता है, और अनुष्ठान से लेकर पुजारियों की नियुक्ति तक सब कुछ तय करता है. विद्वान प्रताप भानु मेहता बताते हैं कि साल 2003 में आंध्र प्रदेश सरकार 30 हजार से अधिक मंदिरों का प्रशासन संभाल रही थी.
हालांकि, 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य की शक्तियों को परिभाषित करते हुए कहा कि- 'अगर मंदिर का प्रबंधन बुराई को ठीक करने के लिए लिया जाता है, तो बुराई ठीक हो जाने के तुरंत बाद प्रबंधन संबंधित व्यक्ति को सौंप दिया जाना चाहिए'- हालांकि जमीनी हकीकत इससे अलग है.
अमरनाथ, वैष्णो देवी से लेकर सबरीमाला तक- यह सभी सरकार संचालित उद्यम हैं.
अदालतों ने इस्लाम पर भी ध्यान दिया है. 1961 में, सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार के कानून, जो अजमेर शरीफ के कार्यकलाप को नियंत्रित करता था, के खिलाफ अजमेर शरीफ के खादिम याखानदानी रख-रखाव करने वालों के मामले को सुना. खादिमों ने कहा कि कानून ने उन्हें सूफी चिश्ती परंपरा के रूप में, उनके संप्रदाय से जुड़ी एक मजार के मामलों का प्रबंधन करने से रोक कर धर्म की स्वतंत्रता से वंचित कर दिया है. उन्होंने खासकर, जायरीन (तीर्थ यात्रियों) के मजार पर चढ़ावे में अधिकार का मुद्दा उठाया था.
आस्था का अंतिम निर्धारक परंपरा या समुदाय नहीं होगा
अदालत ने अपने फैसले में कहा कि जब तक कोई परंपरा 'धर्म का एक अनिवार्य और अभिन्न अंग' नहीं पाई जाती, संवैधानिक संरक्षण के दावों की सावधानीपूर्वक जांच करनी होगी. दूसरी तरह से देखें, तो अदालत ने कहा- आस्था का अंतिम निर्धारक परंपरा या समुदाय नहीं होगा.
वरिष्ठ वकील राजीव धवन और फली नरीमन ने कहा कि न्यायाधीशों ने व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए, 'धार्मिक अधिकार निर्धारित करने के लिए मान लिया कि कौन सी परंपरा किसी आस्था के लिए जरूरी समझी जाएगी.'
विशाखापटनम में सहस्राक्षी मेरु मंदिर के ऊपर एक पहाड़ी पर स्थित मंदिर में श्रद्धालु किसी भी जाति या लिंग का होने के बावजूद, खुद देवी की पूजा कर सकते हैं- यह स्थान है कामाख्या पीठ. हर महीने, जब माना जाता है कि देवी को मासिक धर्म आया है, तो पुरुषों को मंदिर में जाने से रोक दिया जाता है.
सबरीमाला के देवता ने उन महिलाओं को मना किया है जो मासिक धर्म की अवस्था में प्रवेश कर चुकी हैं; पुष्कर के ब्रह्मा मंदिर के गर्भगृह में विवाहित पुरुषों का प्रवेश वर्जित है; कन्याकुमारी में कुमारी अम्मल मंदिर के परिसर में केवल ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले पुरुष प्रवेश कर सकते हैं.
आस्था में वास्तव में आवश्यक शर्तें हो सकती हैं- लेकिन स्पष्ट रूप से उनका निर्धारण करना आसान नहीं है.
1950 के दशक से, अदालतों को धार्मिक विवादों की भूलभुलैया में घसीटा गया है, जिसमें शाहबानो और राम जन्मभूमि से लेकर सिख रूढ़िवादी और इनसे टूट कर निकले संप्रदायों के बीच विवाद शामिल है. इसका असर सरकार को राजा की भूमिका निभाने, वैधता पर मध्यस्थता करने, पुजारी प्रथा को संरक्षण प्रदान करने और पूजा की प्रथाओं को नियंत्रित करने की अनुमति देने के रूप में सामने आया है.
कैथोलिक स्पेन और इटली से लेकर तुर्की और सऊदी अरब तक, राज्य शक्ति के साथ पुरोहितों के गठबंधन ने लोकतांत्रिक अधिकारों को गला घोंटा है. भारत में, जहां धर्म जीवन को विस्तार देता है,यह असंभव- खतरनाक भी- लगता है कि राज्य खुद को धर्म से अलग कर ले. राज्य तर्क देगा कि इसके प्रयासों ने धार्मिक संस्थानों को भ्रष्टाचारी कुलीन वर्गों से मुक्त जिम्मेदार सार्वजनिक निकायों में बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
एक बेहतर मॉडल है: सभी धार्मिक समुदायों को अपने मामलों का खुद प्रबंधन करने की अनुमति देना, और उन्हें चलाने के खर्च का भुगतान करना.
ईश्वर के कामकाज से राज्य को बाहर रखने से कई मकसद हल होंगे
राज्य को ईश्वर के कामकाज से बाहर रखने से कई मकसद हल होंगे. यह धार्मिक संस्थानों से वैधता और संरक्षण हासिल करने की राजनीतिक इच्छा में कटौती करेगा, और समुदायों को अपनी आस्था के लिए जिम्मेदारी लेने को प्रेरित करेगा.
सरकार द्वारा धर्माधिकारियों के हितों की रक्षा कर के उनके साथ गठबंधन करना मुमकिन नहीं होगा. शायद सबसे महत्वपूर्ण, धर्म के निजीकरण से, राज्य को धार्मिक हितों की प्रतिस्पर्धा के दलदल से निकाल कर मध्यस्थ की भूमिका में रखा जा सकेगा.
पड़ोस के मंदिर में बुरी प्रथाएं दिखती हैं तो क्या करेंगे? इसके खिलाफ धरना. इसको सुधारें. प्रार्थना करें. एक वैकल्पिक मंदिर बनाने की कोशिश करें. प्रत्येक भारतीय संविधान द्वारा दिए गए इन अधिकारों का प्रयोग करने में सक्षम होना चाहिए- लेकिन सही होने के बारे में सरकार की दृष्टि को लागू करने के लिए सरकार की शक्ति का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए.
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