एक नन्हीं सी बच्ची का बलात्कार फिर उसकी हत्या! मकसद यह कि इलाके के खानाबदोश जनजाति के लोगों के मन में डर पैदा किया जाए ताकि वे इलाके से कहीं और चले जाएं. कठुआ की इस घटना ने हमारे चेहरे के सामने एक आईना रख दिया है और इस आईने में नजर आ रही सूरत सचमुच बेहद घिनौनी है.
पहले बलात्कार फिर इस अपराध के आरोपियों के लिए लोगों का समर्थन! जम्मू की यह कहानी रूह को कंपा देने वाली है. यह कहानी बताती है कि लोग जब आंखों पर धार्मिक कट्टरता की पट्टी बांध लेते हैं तो उनका बर्ताव कैसा होता है. भगवान राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं और बलात्कार का वाकया उन्हीं के मंदिर के परिसर में पेश आया. फिर इस अपराध के आरोपियों को लेकर धर्म के नाम पर एक निर्लज्ज किस्म का समर्थन देखने को मिला. अगर इस घटना के बाद भी देश का दिल नहीं कांपा तो फिर समझ लीजिए कि हिंदुस्तान को अपनी नैतिकता और संवेदनशीलता के पाठ पर फिर से बड़ी गहराई से सोचने की जरुरत है.
घटना के ब्यौरे सुन्न कर देते हैं
इस घटना के ब्यौरे भयावह हैं. कठुआ में एक आठ साल की बच्ची को फुसलाया जाता है- उसके साथ बलात्कार करने और फिर उसे जान से मार देने की योजना पहले से तैयार कर ली गई है. उसे नशे की दवाइयां दी जाती हैं, मारा-पीटा जाता है. अपने को मर्द समझने वाले लोग बारी-बारी से उसका बलात्कार करते हैं. कई दिनों तक उस बच्ची के साथ किसी नरभक्षी की तरह बरताव करने के बाद, दरिंदगी का दौर कुछ देर को थमता है. और, यह बिल्कुल ना समझिएगा कि ऐसा किसी रहम की भावना से होता है. दरिंदगी थमती है तो इसलिए कि एक पुलिसिए को आखिरी बार उस बच्ची के साथ बलात्कार का मौका मिल जाए. फिर उस लड़की का गला घोंट दिया जाता है, उसको जान से मार दिया जाता है. और, पुलिस की एफआईआर में दर्ज है कि ये सारा कांड इसलिए होता है ताकि इलाके में कायम बकरवाल गुर्जर यानी सुन्नी मुसलमानों में शामिल एक खानाबदोश जनजाति के लोग वहां से भाग जाएं.
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धर्म के नाम पर हैवान हुए लोग
यह पूरा घटनाक्रम तालिबानी और आईएसआईएस के दौर की क्रूरता की याद दिलाता है. इन अत्याचारी जमातों ने अपने हुकूमत के रहते महिलाओं के साथ बलात्कार किया, यातना दी, उन्हें नोंचा-खसोंटा और अंग-भंग किया. मकसद ये था कि महिलाएं जिस समुदाय की हैं वह भय से कांपे, रोएं-गिड़गिड़ाएं और फिर इलाका छोड़कर चले जाएं. तालिबान और अल-बगदादी की हुक्मरानी के दौर में हुई अमानवीय घटनाओं की तरह कठुआ का वाकया भी धर्म के नाम पर अंजाम दिया गया और इस घटना को भी धर्मांधता से ही हवा मिली.
अमानवीय लोगों के कुछ खास लक्षण होते हैं, उन्हें इन लक्षणों से पहचाना जा सकता है. ऐसे लोगों में हिंसा की चाहत जुनून की हद तक बढ़ जाती है और हिंसा का यह उन्माद उनके भीतर से दया, सहानुभूति, प्रेम के भावों को मिटा डालता है. फिर ये लोग नफरत के फलसफे की ओट से लेकर बदला लेने और अत्याचार करने पर उतारू हो जाते हैं. ऐसे लोगों का हर काम किसी शैतानी विचारधारा की सेवा में होता है भले ही इसके लिए इन्हें मानवता के सारे आदर्शों की तिलांजलि ही क्यों ना देनी पड़े. कठुआ में पेश आई बलात्कार की घटना और उसके बाद के वाकए में अमानवीय बरताव के ये तमाम लक्षण मौजूद हैं.
जम्मू-कश्मीर के साथ मुश्किल ये है कि यह सूबा यहां के लोगों के ही कारण दो अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ा है. घाटी ने धर्म और अलगाववाद के नाम पर हिंसा की राह अपनाई है. इसके जवाब में जम्मू में हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर ध्रुवीकरण हो रहा है. और इस लड़ाई में मानवता तथा जीवन के आदर्श घायल हो रहे हैं.
सही-गलत का एहसास भी नहीं
किसी समुदाय को इलाके से भगाने के लिए एक मासूम बच्ची को बलात्कार का शिकार बनाने का विचार अपने आप ही में बर्बरता की निशानी है. इस विचार का मकड़जाल बलात्कार से कहीं ज्यादा संगीन है क्योंकि अत्याचारियों ने ना सिर्फ घटना की पहले से योजना बना रखी थी बल्कि घटना को अंजाम देने के लिए एक सामाजिक-राजनीतिक मकसद भी गढ़ रखा था. अत्याचारियों ने ऐसा करके अपने मन में मान लिया कि वे जो कुछ कर रहे हैं वह एक ना एक तर्क से जायज है.
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फिर इस तथ्य पर भी गौर कीजिए कि अपराध को अंजाम देने के लिए जो जगह चुनी गई वह राम-मंदिर का परिसर है. इसके पीछे भावना ये रही कि कुकर्म मंदिर में अंजाम दिया जाएगा तो उसे ईश्वर की मंजूरी हासिल होगी. अनैतिकता की हद देखिए कि दुराचार का जिम्मा एक नाबालिग को सौंपा गया. भावना ये रही कि अगर नाबालिग पकड़े भी गए तो उन्हें थोड़ी सी सजा देकर छोड़ दिया जाएगा. विडंबना ये है कि बर्बरता को मात देते इस कुकर्म के कारण ना सिर्फ एक मासूम बच्ची की जान गई बल्कि जिन लोगों ने इस कुकर्म की योजना बनाई, उन लोगों ने इसमें अपने बच्चों को भी एक तरह से बलि का बकरा बनाया.
और दरिंदगी में इन सबको मात करती हुई एक घटना और हुई. हमने देखा कि आरोपियों के पक्ष में लोग जुलूस निकाल रहे हैं, उनके होठों पर धार्मिक नारे हैं, हाथ में तिरंगा है और ये लोग बंद का आह्वान कर रहे हैं. कुछ साल पहले तक इस बात की कल्पना भी मुश्किल थी कि किसी और के नहीं बल्कि वकीलों की अगुवाई में लोग विरोध प्रदर्शन पर निकलेंगे और विरोध-प्रदर्शन के अगुआ बने ये वकील किसी शहर को बंद करवाने पर उतारू हो जाएंगे ताकि अपराधियों की गिरफ्तारी ना हो सके.
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याद रहे, ये सारा कुछ इसलिए कि वकीलों को लगा इंसानियत और इंसाफ की जगह हिंसा और कट्टरता के पक्ष में खड़े होना जरुरी है. बुधवार के दिन गंदगी से भरा यह विचित्र-नाटक जम्मू की सड़कों पर खेला गया. नैतिकता की इस गिरावट से मानवता तो शर्मसार होती ही है, उस आस्था और देश को भी लज्जित होना पड़ता है जिसकी नुमाइंदगी का दावा ऐसी नैतिकता के सहारे किया जाता है.
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