कश्मीर में वार्ता के लिए केंद्र ने प्रतिनिधि की नियुक्ति का फैसला किया है. यह फैसला आतंकवादी खतरों को कमतर आंकना और कुछ 'अलगवावादियों' के प्रभाव को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने पर आधारित है. इनमें वो अलगाववादी हैं, जो शायद वार्ता में शामिल हों.
यह फैसला चौंकाने वाला नहीं है. इसकी तैयारी प्रधानमंत्री के 15 अगस्त के भाषण के पहले से चल रही थी. इस दिन प्रधानमंत्री ने कश्मीरियों को गले लगाने का आह्वान किया था. परदे के पीछे जोर-शोर से इसकी तैयारी जारी थी. गृह मंत्री राजनाथ सिंह और बीजेपी महासचिव राम माधव ने सितंबर में श्रीनगर का अलग-अलग दौरा किया था. तब उन्होंने कहा था कि केंद्र सरकार सभी पक्षों से वार्ता के लिए तैयार है. माधव ने 'बिना शर्त' बातचीत की बात कही थी.
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इतना ही नहीं, सितंबर के आखिरी सप्ताह में दक्षिण कश्मीर में आर्मी कमांडर ने असामान्य बयान देते हुए राजनीतिक वार्ता का सार्वजनिक समर्थन किया था. 27 सितंबर को जीओसी ने पीटीआई से कहा, 'स्थितियां इस मुकाम पर आ गई हैं कि राजनीतिक पहल शुरू की जा सकती है.'
आरएसएस-बीजेपी नेतृत्व ने शायद यह भांप लिया कि इस तरह के अनुमोदन की आवश्यकता है. क्योंकि उनके समर्थकों में यह धारणा बन चुकी थी कि केंद्र ने कश्मीर में अलगाववाद को कुचलने के लिए सेना को खुली छूट दे दी है.
जमीनी स्तर पर यह बात फैली है कि भले ही पिछले कुछ महीनों में अधिकतर बड़े आतंकवादियों का सफाया हो गया है, लेकिन मारे गए आतंकियों की तुलना में अब अधिक तादाद में लड़के भूमिगत होकर आतंकवादी संगठनों में शामिल हो रहे हैं. इनकी संख्या में पहले की तुलना में बढ़ोतरी हुई है.
राजनीतिक हस्तियों के साथ किसी भी प्रस्तावित वार्ता का सीधा असर हाल के दिनों में राजनीतिक कार्यकर्ताओं को उनके घरों पर निशाना बनाने के रूप में सामने आया है. मुख्य रूप से पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के कार्यकर्ताओं की हत्या हुई है, लेकिन नेशनल कांफ्रेंस के भी कुछ कार्यकर्ताओं की जान गई है.
कश्मीरियों को अब भी याद है कि हुर्रियत कांफ्रेंस के संस्थापक और 60 के दशक में उग्रवाद के जनक फज्ल हक कुरैशी को साल 2009 में उनके घर के बाहर गोली मार दी गई थी. हत्या से कुछ साल पहले ही कुरैशी ने तब के केंद्रीय गृह सचिव के साथ वार्ता में हिस्सा लिया था. लोग यह भी नहीं भूले हैं कि इन वार्ताओं से कुछ हासिल नहीं हुआ है. यहां तक कि 2010 में बनी 'वार्ताकारों की समिति' की शानदार सिफारिशें भी फाइलों में दबी हैं.
वास्तव में, कश्मीरियों ने यह सबक सीखा है कि केंद्र सरकार ऐसी वार्ताओं की शुरुआत जन विद्रोहों (जैसा कि 2010 में हुआ) के बाद करती है. जब उसे लगता है कि हालात नियंत्रण में हैं और शांति स्थापित होने का दावा कर सकती है तब इस प्रक्रिया को खत्म कर देती है.
नरम-गरम की नीति
ऐसा प्रतीत होता है कि पिछले कुछ महीनों से एनआईए की जांच वार्ता के लिए दबाव बनाने की कोशिश है. कुछ ऐसे लोगों ने, जिनकी बेहिसाब संपत्तियों (यहां और विदेश में) के बारे में जाहिर तौर पर एनआईएन द्वारा सूचनाएं लीक की गई हैं, सोमवार को दबे स्वर में वार्ता का स्वागत किया.
पिछले कई सप्ताह से कश्मीर में यह चर्चा आम है कि कुछ हुर्रियत नेता 'मुख्यधारा' की राजनीति में शामिल होने जा रहे हैं. हालांकि, जिन नेताओं के इर्द-गिर्द ये कयासबाजियां हो रही हैं, वो मौजूदा राजनीतिक हालात में शायद ही बड़ा बदलाव कर पाएं.
वास्तव में, दुखद पहलू यह है कि कई कश्मीरी युवाओं का दिल और दिमाग इतना बदल गया है कि 'अलगाववाद' के 'राजनीतिक' नेताओं के काम के लिए उनके पास बहुत कम समय या रुचि है.
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राजनीति को धोखा मानकर इसे त्यागने वाले, कई कश्मीरी युवक रेडिकल इस्लाम की तरफ जा रहे हैं. आतंकवादी जाकिर मूसा, जो घाटी में इस्लामिक स्टेट और अल-कायदा का प्रतिनिधि होने का दावा करता है, के पास शायद दर्जनभर से ज्यादा आतंकवादी कमांडर न हों, लेकिन उसके विचार कई युवा मस्तिष्क में घर कर गए हैं.
सरकार से जुड़े हुए जानकार इसके लिए अंतरराष्ट्रीय प्रभाव को जिम्मेदार बताते हैं. इसमें कुछ सच्चाई भी है. लेकिन गौरक्षा के नाम पर हिंसा, बीजेपी का हिंदुत्ववादी एजेंडा और देश के कुछ हिस्सों में मुस्लिमों में असुरक्षा की जो धारणा बनी है उसकी भी कम बड़ी भूमिका नहीं है.
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