ज्यादा दिन नहीं हुए जब कश्मीर घाटी में अलगाववादियों को सुरक्षा-बल एक तरह से ‘अछूत’ मानकर चलते थे. जम्मू-कश्मीर की फिजां में किसी धार्मिक आदेश की तरह इस अलिखित नियम का पालन होता था कि हुर्रियत के नेताओं को परेशान नहीं किया जाना चाहिए. हां, इतना जरूर था कि अधिकारी बीच-बीच में हुर्रियत के नेताओं को उनके घर में नजरबंद कर देते थे ताकि वे कोई बड़ा जमावड़ा ना कर सकें. लेकिन, बस इतना ही भर होता था, इससे ज्यादा नहीं.
लेकिन साल 2017 में एक के बाद एक हुई सनसनीखेज घटनाओं में हुर्रियत नेताओं ने अपनी साख गंवाई और आज कुछ प्रमुख अलगाववादी चेहरे तिहाड़ जेल में बंद हैं. अगर पहले का वक्त होता तो इस पर खूब हंगामा मचता लेकिन आज अलगाववादी नेताओं के तिहाड़ जेल में बंद होने को लेकर कश्मीर में विरोध की कोई आवाज नहीं सुनाई दे रही. सवाल है, आखिर ऐसा क्यों?
हुर्रियत नेताओं की सियासत से मोहभंग
अलगाववादियों पर एनआईए की मार पड़ रही है और घाटी में लोगों का उनकी सियासत की शैली से मोहभंग हो रहा है- लोगों को लग रहा है कि अलगाववादियों की सियासत में नेताओं को तो मलाई हासिल हो रही है लेकिन कार्यकर्ता स्तर के लोगों को गोलियों का सामना करना पड़ रहा है.
एक तो बुरहान वानी की हत्या के बाद घाटी में उपजे हालात से हुर्रियत के नेता सवालों के घेरे में आए. दूसरे, इस साल कुछ माह पहले इंडिया टुडे में सैयद अली शाह गिलानी के सहायक नईम खान का खुलासा सामने आया. नईम खान ने डींग हांकी कि वानी की मौत के बाद घाटी में भारत-विरोधी प्रदर्शन को लंबे वक्त तक जारी रखने के लिए हम अस्पताल तक जला डालते, बशर्ते वहां मरीजों का उपचार ना चल रहा होता. इस खुलासे ने हुर्रियत के नेताओं की गिरती हुई साख को एक तरह से मटियामेट कर दिया.
सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ कश्मीर के राजनीति-विज्ञानी प्रोफेसर नूर ए बाबा ने फ़र्स्टपोस्ट से कहा कि 'खान के कबूलनामे से कश्मीर के बहुत से लोगों की यह शंका सही साबित हुई कि अलगाववादी कोई दूध के धुले नहीं. बंद दरवाजों के भीतर गुपचुप सौदे होते थे और इन सौदों से घाटी के लोगों की जिंदगी पर असर पड़ता था. ऐसे सौदों का पर्दाफाश हो गया. यह बात माहौल को बदलने वाली साबित हुई.'
हिज्बुल- मूसा भिड़ंत ने भी उग्रवाद को कमजोर किया
बुरहान वानी को लेकर घाटी में चला आ रहा आकर्षण फीका पड़ता गया और उसकी हत्या को लेकर उपजा आक्रोश इस साल के मध्य तक खत्म हो चुका था. इसके बाद घाटी के अलगाववादी मंजर में जाकिर मूसा ने कदम रखा. जाकिर मूसा ने सूबे में जारी सियासी उबाल को एशियाई महाद्वीप में खिलाफत कायम करने का संघर्ष करार दिया. यह बात हुर्रियत के नेताओं और जाकिर मूसा के अपने संगठन हिज्बुल मुजाहिद्दीन को भी नागवार गुजरी.
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अपने को इस्लामिक स्टेट और अलकायदा के सोच से अलग जताने के लिए हिज्बुल मुजाहिदीन ने मूसा के बयान से दूरी बना ली. इससे घाटी में दोनों के बीच खूब कहा-सुनी चली, नतीजतन मूसा ने अपने को हिज्बुल से अलग कर लिया. चमक-दमक में रहने वाले इस उग्रवादी कमांडर ने धमकी दी कि जो अलगाववादी कश्मीर में जारी अशांति को सियासी संघर्ष करार दे रहे हैं उनका सिर कलम कर दिया जाएगा.
एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने अपना नाम गुप्त रखने की शर्त पर फ़र्स्टपोस्ट को बताया, 'मूसा, हुर्रियत और हिज्बुल के बीच जो वाक्-युद्ध चला उससे उग्रवादियों, खासकर स्थानीय स्तर के उग्रवादियों के बीच खूब शोर मचा. स्थानीय उग्रवादियों ने हाल-फिलहाल ये सोचकर हथियार उठाए थे कि अलगाववाद पर चलना दरअसल अल्लाह के रास्ते पर चलने जैसा है. लेकिन उनके इसी विश्वास को धक्का पहुंचा, जो नेता (अलगाववादी) इसे अल्लाह का रास्ता बता रहे थे वही अब अपने कहे से किनारा करते दिख रहे थे.'
अलगाववादी नेताओं की गिरफ्तारी ने तोड़ी कमर
मूसा और खान के खुलासे की दोहरी चोट के बीच एनआईए ने कार्रवाई की. पहले नईम की गिरफ्तारी हुई और उसे तिहाड़ जेल में डाला गया. इसके बाद गिलानी के दामाद अल्ताफ फंटूश और अयाज अकबर, हुर्रियत के मध्यमार्गी विचार वाले प्रमुख मीरवाइज फारूख के सलाहकार शहीदुल इस्लाम और एक वक्त नेल्सन मंडेला की पसंद रहे शब्बीर शाह और कुछ अन्य अलगाववादियों की गिरफ्तारी हुई. अब से पहले के सालों में ऐसी सिलसिलेवार गिरफ्तारी के बारे में सोच पाना भी मुश्किल था.
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प्रोफेसर नूर ए बाबा ने बताया, 'हुर्रियत ने सोचा भी नहीं होगा कि इस तरह का वाकया पेश आएगा, हुर्रियत को लग रहा था कि वानी की हत्या के बाद उनके मकसद के पक्ष में घाटी में हमदर्दी की लहर उफान मार रही है. लेकिन साल बीतते-बीतते मंजर बदल गया. आज हुर्रियत के नेता अलग-थलग और अप्रासंगिक हो गए हैं लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि वे लड़ाई हार गए हैं या वे गैर-वाजिब हैं.'
कश्मीर में प्रदर्शनकारी भीड़ अब अपने दम पर सड़कों पर उतर रही है. यह पिछले साल के उपद्रवों में भी दिखा और इस साल जारी विरोध-प्रदर्शनों और हड़तालों से भी जाहिर हुआ. हुर्रियत के विरोध-प्रदर्शन के सालाना कैलेंडर के व्याकरण से यह बिल्कुल बाहर के दायरे में हुआ जो संकेत करता है कि घाटी में हड़ताल की सियासत धीरे-धीरे दम तोड़ रही है. इससे पहले कि घाटी का अशांत माहौल अलगाववादियों को हमेशा के लिए किनारे कर दे, उन्हें अपने लिए कोई नया रास्ता ढूंढना होगा.
लेकिन अलगाववादियों पर एनआईए की मार पड़ रही है और घाटी में लोगों का उनकी सियासत की शैली से मोहभंग हो रहा है- लोगों को लग रहा है कि अलगाववादियों की सियासत में नेताओं को तो मलाई हासिल हो रही है लेकिन कार्यकर्ता स्तर के लोगों को गोलियों का सामना करना पड़ रहा है. ऐसे में, कश्मीर में अलगाववादी राजनीति की आगे की राह बड़ी अनश्चित और मुश्किलों भरी साबित होने वाली है.
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