कश्मीर पर बातचीत की प्रक्रिया फिर से शुरू करने की केंद्र सरकार की कोशिश को कदम पीछे खींचना करार नहीं दिया जा सकता. न ही यह माना जा सकता कि सरकार ने कश्मीर के मसले पर एकदम यू टर्न ले लिया है या फिर सरकार ने जो सख्ती भरा रवैया अपनाया था वह नाकाम साबित हुआ है. दरअसल संवाद की शुरुआत कश्मीर को लेकर अपनाई गई तीन सिरों वाली रणनीति का ही अगला मुकाम है.
बहरहाल, चुनौती मसले के समाधान को सोचने, मकसद को एकदम स्पष्ट रखने और उन्हें अमल में लाने के लिए मजबूत राजनीतिक संकल्प दिखाने की है. और इन सारी बातों के एतबार से संवाद की शुरुआत के फैसले को ‘साहसी पहल’ या फिर ‘नाकाम कदम’ जैसा नाम देना अभी एक हड़बड़ी का संकेत माना जाएगा.
गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने अगर दिनेश्वर शर्मा को कश्मीर मसले पर सभी पक्षों से लगातार बातचीत करने के लिए नियुक्त किया है तो सबसे पहले इस बात का ध्यान रखना होगा कि यह फैसला एक ताकतवर पद से किया गया है.
और पहले लेना चाहिए था फैसला
अगर सरकार ने अलगाववादियों, आतंकवादियों और घाटी में खुलेआम सक्रिय उनके कार्यकर्ताओं के दबाव में आकर बातचीत का फैसला 2016 में लिया होता या फिर यह फैसला 2017 के शुरुआती कुछ महीनों में लिया जाता (यानी उस वक्त जब मारे गए आतंकवादी को लेकर घाटी में भारी प्रतिरोध का माहौल था और विशाल शव-यात्रा निकली थी) और फैसले पर आरोप मढ़े जाते तो उन्हें उचित माना जा सकता था.
सेना और जम्मू-कश्मीर पुलिस की उग्रवाद-विरोधी कार्रवाई के कारण हाल-फिलहाल कश्मीर सुस्त पड़ा दिखाई देता है. बीते 22 अक्टूबर तक 175 आतंकवादियों का सुरक्षा बलों ने सफाया किया है जबकि पिछले साल इसी अवधि तक कुल 114 आतंकवादी सुरक्षा बलों के हाथों मारे गए थे.
लश्कर-ए-तैयबा और हिज्बुल मुजाहिद्दीन खेमे के कुछ शीर्ष के उग्रवादी जैसे कि अबू दुजाना, बशीर लश्करी, आजाद मलिक, सब्जार अहमद भट और अबू इस्माइल (अमरनाथ जा रहे तीर्थयात्रियों पर 10 जुलाई को हुए हमले का जिम्मेवार) मार गिराए गए हैं.
कुछ अन्य आतंकवादी जैसे कि अबू हारिस, अबुल अली, अबुल माला, अनीस भाई, अबू मंसूर, अबू उमर, अबू माविया और शेर गुजरी को भी मार गिराने में कामयाबी मिली है.
आतंकवादियों पर नकेल कसने के साथ-साथ सेना पत्थरबाज कश्मीरियों की जमात को भी अंकुश में रखने में कामयाब हुई है. पत्थरबाजों में से बहुत से नौजवानों को सीमा-पार से आ रहे फंड के दम पर आंतकवादी संगठनों में जेहादी के रुप में भर्ती कर लिया गया था.
एनआईए के छापे से हुए खुलासे
पहले इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस (आईएसआई) घाटी में जेहादियों को सीमा-पार से भेजा करती थी और इसी रणनीति पर पूरी तरह से नर्भर थी लेकिन नई सदी की शुरुआत के साथ आईएसआई ने अपनी रणनीति बदली. उसने अपना ज्यादा ध्यान सीमा-पार से धन भेजने और स्थानीय आतंकवादियों को रणनीतिक मदद पहुंचाने पर लगाया.
इससे कश्मीरी अलगाववादियों के आंदोलन को कुछ नैतिक संबल हासिल हुआ. केंद्र सरकार के सामने चुनौती फंडिंग नेटवर्क पर अंकुश लगाने की थी. यह नेटवर्क नियंत्रण रेखा के पार से हवाला के जरिए चलाया जा रहा था.
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बीते कुछ महीनों में नेशनल इंवेस्टीगेशन एजेंसी (एनआईए) ने इस नेटवर्क को चलाने वालों के खिलाफ लगातार अभियान चलाया. इस कारण फंडिंग के नेटवर्क से जुड़े किरदार छुपने पर मजबूर हुए, फंड के जरिए सहायता पहुंचाने के उनके काम पर अंकुश लगा.
देश में कई जगहों पर छापेमारी हुई, हवाला के जरिए होने वाले लेन-देन और साजिशी दस्तावेजों को बतौर सबूत जब्त किया गया. कई मामले खुले, गिरफ्तारियां हुईं जिसमें हुर्रियत के कुछ शीर्ष स्तर के नेता तथा उनके सहयोगी शामिल हैं. इनमें से एक का नाम जहूर अहमद वताली है. वताली करोड़पति है और श्रीनगर में रहकर पोशीदा कारोबार में लगा हुआ था.
वताली ही वह जरिया था जिसके मार्फत कश्मीर के अतिवादियों और अलगाववादियों को पाकिस्तान से धन मुहैया कराया जाता था. अलगाववादी नेताओं के खिलाफ मुकदमे में फिलहाल वह एक अहम किरदार है क्योंकि उसे छुपे तौर पर होने वाले लेन-देन का खाता-बही रखने की आदत थी.
वताली संपर्कों के मामले में बहुत धनी है. उसके दिल्ली के सियासी और नौकरशाही के हलकों में भी अच्छे संपर्क थे. एनआईए के बयान के मुताबिक वताली की गिरफ्तारी के बाद तलाशी अभियान की शुरुआत हुई. श्रीनगर, हंदवाड़ा, कुपवाड़ा और बारामूला में कई जगहों पर उसके रिश्तेदारों और कर्मचारियों को खंगाला गया. तलाशी में अपराध के सबूत के तौर पर बहुत अहम सामग्री बरामद हुई. इन सबूतों से जाहिर होता है कि जहूर वताली ने विदेशी स्रोतों से धन हासिल किया था और इस धन को भारत-विरोधी गतिविधियों के लिए घाटी के अलगाववादियों और आतंकवादियों के बीच बांटा था.
पाकिस्तान और हुर्रियत के नेताओं के संबंध
गवर्नेंस नाऊ के एक लेख (कश्मीर्स ब्लड मनी ट्रेल) में आशा खोसा ने बताया है कि वताली जैसे लोगों के जरिए किस तरह पाकिस्तान हुर्रियत के नेताओं को धन मुहैया कराता रहा है. आशा खोसा ने लिखा है, 'ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस के अग्रणी पांत के नेता ने माना कि उसे बीते पांच साल से पाकिस्तान से मासिक भत्ता मिलता रहा है. इस नेता ने बताया कि 'मुझे हर महीने 8-10 लाख रुपए मिलते हैं. यह रकम आईएसआई भेजता है और नकदी के रुप में यह रकम मुझे जहूर दिया करता था.' इस नेता ने आरोप लगाया कि बताली बतौर कमीशन भेजी गई रकम में से 20 फीसद निकाल लेता था और बाकी राशि बिला नागा उसे दे देता था.'
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रिपोर्ट के मुताबिक, वताली के जरिए तकरीबन 30 अलगाववादी नेताओं को पाकिस्तानी से नियमित धन मिल रहा था. एनआईए की जांच और छापे ने आतंक के इस नेटवर्क की रीढ़ तोड़ दी. हुर्रियत के नेता अब अलग-थलग पड़ गये हैं और लगातार कमजोर हो रहे हैं. धन के स्रोत हाथ से निकल जाने के कारण अब उनके लिए अलगाववाद की आंच सुलगाये रखना मुश्किल है. कश्मीरी अवाम को लग रहा है कि इन नेताओं ने उसके साथ धोखा किया है सो हुर्रियत को हासिल नैतिक वैधता की जमीन अब दरकती जा रही है.
समीर यासिर ने फर्स्टपोस्ट में लिखा है कि, 'नेशनल इंवेस्टीगेशन एजेंसी ने कश्मीर में जारी आतंकवादी गतिविधियों के लिए हो रही फंडिंग की जांच के लिए छापेमारी की जिससे हुर्रियत कांफ्रेंस के दोनों धड़ों के बीच भय का माहौल कायम हुआ. यह भय कुछ इतना बढ़ा कि हुर्रियत के दोनों धड़ों के कुछ नेताओं की गिरफ्तारी के बाद पद खाली हुए तो उनका प्रभार संभालने के लिए कोई आगे नहीं आया.'
तीसरे मोर्चे पर काम करने का वक्त
कश्मीर को लेकर तीन सूत्री रणनीति के दो अहम हिस्सों पर बेहतर अमल के बाद सरकार ने फैसला किया है कि अब तीसरे मोर्चे पर काम करने का वक्त आ गया है, सो बातचीत की प्रक्रिया दोबारा शुरु की जा सकती है. घाटी में कानून-व्यवस्था की स्थिति बहाल करना पहली जरुरत थी. इस कामयाबी का लाभ उठाते हुए अब राजनीतिक प्रक्रिया शुरु की जानी चाहिए ताकि घाटी में आम लोगों की जिंदगी रोजमर्रा के ढर्रे पर आ जाए. यह कोई विरोधाभासी नजरिया नहीं है बल्कि इसे एक-दूसरे का पूरक समझना चाहिए.
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ऐसा प्रतीत होता है कि नरेंद्र मोदी सरकार का घाटी के हालात पर भरपूर नियंत्रण है. संवाद की प्रक्रिया पाकिस्तान या फिर अलगाववादियों के मुताबिक नहीं बल्कि सरकार ने अपने सोचे समय पर शुरू किया. सरकार ने इसके जरिए संदेश दिया है कि घाटी में वह सामान्य हालात बहाल होता देखना चाहती है लेकिन सरकार को हिंसा के जोर से किसी बात के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता. ढीला-ढाला सा ही सही लेकिन कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन को अब भी जमीनी समर्थन हासिल है ऐसे में शक्ति-संतुलन में आया यह बदलाव समस्या के समाधान के लिहाज से बहुत अहम माना जाएगा.
एक आरोप है कि संवाद की प्रक्रिया चालू करने के लिए प्रतिनिधि को नियुक्त करने का मतलब है सरकार ने कश्मीर को लेकर जो सख्ती का रवैया अपनाया था वह नाकाम हो गया है और अपने मकसद को हासिल करने से चूक गया है. अगर संवाद-प्रक्रिया की शुरुआत के साथ ही साथ आतंकवादियों पर सख्ती में ढील बरती जाती या आतंकी गतिविधियों के लिए हो रही फंडिंग से जुड़े मामले वापस लिए जाते तो इस आरोप को सही माना जाता. लेकिन इस बात के पर्याप्त संकेत मिल रहे हैं कि सरकार की ऐसी कोई योजना नहीं है.
मंगलवार के दिन एनआईए ने हिज्बुल मुजाहिद्दीन के प्रमुख सैयद सलाहुद्दीन के बेटे सैयद शाहिद युसूफ को 2011 के एक मामले में पकड़ा. यह मामला आतंकी गतिविधियों के लिए हो रही फंडिंग से जुड़ा है. हिन्दुस्तान टाइम्स की खबर के मुताबिक 42 साल की उम्र का युसूफ सऊदी अरब में रहने वाले ऐजाज अहमद भट के जरिए हिज्बुल के प्रमुख के आदेश से अंतर्राष्ट्रीय वायर मनी ट्रांसफर के जरिए फंड हासिल और जमा कर रहा था.
आतंकवादियों पर कार्रवाई के बारे में सरकार के अधिकारियों ने टाइम्स ऑफ इंडिया के भारती जैन को बताया है कि ‘आतंकवादियों के विरोध में चलाई जा रही मुहिम में कोई ढिलाई नहीं बरती जाएगी. विकास योजनाओं और प्रधानमंत्री के विशेष पैकेज के क्रियान्वयन पर जोर जारी रहेगा. साथ ही हमलोग जम्मू-कश्मीर को अपनाई गई विशेष रणनीति के तहत संवाद की एक प्रक्रिया की शुरुआत कर रहे हैं.’
क्या 'सभी पक्षों' से बात करेगी सरकार?
संवाद प्रक्रिया की एक अहम बात है कि उसके फैसले में ‘सभी पक्षों से बात’ जैसा मुहावरा इस्तेमाल किया गया है. सवाल उठता है कश्मीर मसले पर ‘सभी पक्ष’ से क्या समझा जाए? राजनाथ सिंह के मुताबिक 'खुफिया ब्यूरो के पूर्व प्रमुख को पूरे अधिकार हैं कि वे जिनसे चाहें उनसे बात करें लेकिन गृहमंत्री ने अपनी बात में यह भी जोड़ा कि सरकार सूबे की अवाम की वैध आशंकाओं पर ही बात करेगी और कोशिश करेगी कि घाटी में शांति का माहौल बहाल हो.'
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'वैध आशंकाओं' जैसे शब्द के इस्तेमाल के कारण संकेत मिलता है कि पूरी प्रक्रिया संविधान के दायरे के भीतर ही संपन्न होनी है. जितेंद्र सिंह ने इस सिलसिले में बिल्कुल सीधी बात कही है. प्रधानमंत्री कार्यालय के राज्यमंत्री ने न्यूज18 से कहा कि बातचीत संविधान के दायरे में होगी. उनका कहना था कि 'संविधान पवित्र है. आप हवाला लेन-देन और हिंसा में शामिल लोगों से कैसे बातचीत कर सकते हैं भला?'
इससे पता चलता है कि सरकार भले ही उन सभी पक्षों से बातचीत करने को राजी हो जिनका कश्मीर में कुछ दांव पर लगा है लेकिन यह बातचीत संविधान की हदों के भीतर होगी और बातचीत की शर्त सरकार तय करेगी. इन बातों को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि सरकार ने ‘यू टर्न’ लिया है, उसके कदम ‘नाकाम’ रहे हैं या फिर सरकार के संवाद-प्रक्रिया शुरु करने का मतलब है उसने अपने ‘कदम पीछे खींच’ लिए हैं. हां, इस सिलसिले की कुछ चुनौतियां भी हैं.
अगर सरकार हुर्रियत का दायरा संविधान की हदों के भीतर तय करती है तो अलगाववादियों के लिए चालबाजी का अवसर बहुत कम रह जाएगा. सरकार का असली मकसद तो हुर्रियत को नैतिक रुप से अवैध साबित करना और इसे एकदम से अप्रासंगिक बना देना है. लिहाजा हुर्रियत को संविधान के हदों में लाने की कोशिश संतुलन बैठाने की कवायद जान पड़ सकती है लेकिन ऐसा करने से सरकार के ऊपर एक जिम्मेवारी भी आयद होती है. सरकार को तय करना पड़ेगा कि दरअसल कश्मीर मसले से जुड़े और कौन-कौन से पक्ष हैं जो केंद्रीय राजसत्ता के साथ बातचीत कर सकते हैं.
राजनाथ सिंह ने कहा है कि 'जम्मू-कश्मीर को लेकर सतत संवाद-प्रक्रिया में वार्ताकार से बातचीत करने को इच्छुक हर व्यक्ति और समूह को शामिल किया जाएगा.' इसका मतलब हुआ कि सरकार के निर्वाचित जन-प्रतिनिधि, नौजवानों के अनेक समूह, नागरिक संगठन और ताकतवर मौलानाओं- इन सब से सरकार बातचीत करने को राजी है जिनका कश्मीर की राजनीति में भारी दखल है.
बातचीत का दायरा बढ़ाना होगा
इस मोर्चे पर दिनेश्वर शर्मा को सबसे कठिन चुनौती का सामना करना पड़ेगा. उन्हें खुफिया ब्यूरो के प्रमुख के रुप में जम्मू-कश्मीर के हालात का पहले से अनुभव है और उन्होंने नगालैंड और मणिपुर में विद्रोह के आंदोलनों से निपटने में भूमिका निभाई है.
कश्मीर से जुड़ा एक पक्ष सत्ता से बेदखल पूर्व मुख्यमंत्रियों जैसे फारुख अब्दुल्ला को भी माना जा सकता है जिनके जुमलों को पाकिस्तान से उठने वाली आवाजों से अलग करके देखना मुश्किल है.
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इसलिए, सरकार को चाहिए कि वह बातचीत के दायरे को बढ़ाए और स्थानीय कश्मीरियों को भी शामिल करे क्योंकि उनकी आवाज अबतक अनसुनी रही है. कश्मीर से उठने वाली आवाजों पर इस्लामी रंगत हावी रही है और इससे निपटना भी एक बड़ी चुनौती है.
सूबे में समस्या इसलिए भी विकराल हुई है कि वहां राजसत्ता अपनी क्षमता बढ़ाने में नाकाम रही है. यह बात सबसे ज्यादा जाहिर हुई है निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के हिफाजत के मोर्चे पर. आतंकवादी निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों को लगातार निशाना बनाते रहे हैं.
अधिकारियों, राजनेताओं और सरपंचों को आतंकवादियों ने अपनी गोलियों का निशाना बनाया है. 16-22 अक्तूबर के बीच आतंकवादियों ने दक्षिण कश्मीर में आठ राजनीतिक कार्यकर्ताओं के घरों पर हमला बोला है और उन्होंने सूबे में बीजेपी के साथ गठबंधन में शामिल पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के राजनेताओं को भी नहीं बख्शा है.
किसी भी व्यापक और सतत जारी संवाद-प्रक्रिया के एक अहम किरदार कश्मीरी पंडित भी हैं. उन्हें भी शामिल किया जाना चाहिए. इस मामले में भी अभी तक स्थिति स्पष्ट नहीं हुई है.
यह भी स्पष्ट नहीं है कि दिनेश्वर शर्मा की राय के साथ भी क्या वही बर्ताव किया जाएगा जो बीते वक्त में इस तरह की कोशिशों के मार्फत आई रिपोर्टों की सिफारिशों के साथ किया गया?
संक्षेप में कहें तो संवाद-प्रक्रिया को फिर से शुरु करके सरकार ने सराहनीय कदम उठाया है लेकिन इस सिलसिले की चुनौतियां भी कम बड़ी नहीं हैं. राजनाथ सिंह और दिनेश्वर शर्मा दोनों को एड़ी-चोटी का जोर लगाना होगा.
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