2009 के आसपास की बात है. करुणानिधि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री थे. नेवेली लिग्नाइट कॉरपोरेशन के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर उस दौरान अपने प्लांट में डीएमके समर्थित यूनियन से जूझ रहे थे. देश के सभी पावर कॉरपोरेशन में सबसे ज्यादा बोनस देने के बावजूद हड़ताल की धमकी दी जा रही थी. जाहिर है, इसका उत्पादन पर असर पड़ता. यूनियन लीडर को समझाना संभव नहीं हो रहा था. ऐसे में सीएमडी ने करुणानिधि से मिलकर उन्हें समझाने का फैसला किया.
करुणानिधि ने जानना चाहा कि ट्रेड यूनियन लीडर कौन है. फोन पर उसे तलब किया गया. उसके बाद झाड़ पड़ी, ‘तुम्हारे पास नेवेली से निकलने के लिए दस मिनट हैं. तुरंत चेन्नई आओ और मुझसे मिलो. पार्टी अलग है, सरकार अलग.’
1989-91 के कार्यकाल के दौरान का एक और किस्सा है. मुख्यमंत्री करुणानिधि को पता चला कि उनके कैबिनेट का एक मंत्री किसी को जमीन की रजिस्ट्री नहीं होने दे रहा है. वो इसे रोकने के लिए अपनी ताकत का इस्तेमाल कर रहा है. करुणानिधि ने तुरंत मंत्री से बात की और पीछे हटने को कहा. डीएमके की आलोचना होती है कि इस पार्टी ने गुंडागर्डी को बढ़ावा दिया है. ये किस्से बताते हैं कि करुणानिधि अपनी पार्टी का नाम खराब नहीं होने देना चाहते थे.
हालांकि कई मौके आए, जब करुणानिधि अपनी पार्टी के लोगों के साथ खड़े दिखाई दिए. खासतौर पर जब पूर्व केंद्रीय टेलीकॉम मंत्री ए. राजा को फरवरी 2011 में 2जी घोटाले में गिरफ्तार किया गया. गिरफ्तारी के अगले दिन करुणानिधि ने चेन्नई में एक सभा को संबोधित किया. राजनीति पर सीधे बात करने के बजाय करुणानिधि ने हिंदू पौराणिक मान्यताओं पर बात की. अपने खास अंदाज में द्रविड़ों को दबाए जाने की कहानियां सुनाईं. इस तरह उन्होंने लोगों तक जो वो कहना चाहते थे, पहुंचा दिया.
करुणानिधि ने शुरुआत कुछ ऐसे की, ‘आज मैं आपको द्रविड़ राजा मावेली की कहानी सुनाना चाहता हूं.’ उन्होंने ईमानदार राजा की कहानी से लोगों को बांधा और बताया कि कैसे देवता मावेली से ईर्ष्या करने लगे और उन्हें खत्म करने का फैसला कर लिया. करुणानिधि ने बताया, ‘उन्होंने भगवान विष्णु को गरीब ब्राह्मण लड़के के भेष में भेजा. मावेली धोखा खा गए और राजा को पाताल में धक्का दे दिया. हमारा राजा किंग मावेली जैसा है, जिसको सिर्फ इसलिए निशाना बनाया गया, क्योंकि वो द्रविड़ है.’ जब भी मुश्किल पड़ी, करुणानिधि अपनी ‘जड़ों’ तक पहुंच गए. तमिल और द्रविड़ के विक्टिम कार्ड का टैम्प्लेट उन्होंने ‘उत्तर के आक्रांताओं’ के खिलाफ इस्तेमाल किया.
यह कहना गलत नहीं होगा कि अपने दो चिर प्रतिद्वंद्वी राजनीतिज्ञों एमजी रामचंद्रन और जे. जयललिता के साथ करुणानिधि ने पिछले पांच दशक या उससे भी ज्यादा समय तमिल राजनीति को परिभाषित किया. करुणानिधि डीएमके थे और डीएमके करुणानिधि. विश्लेषक मानते रहे हैं कि करुणानिधि राज्य राजनीति की धुरी थी. यहां पर प्रो करुणानिध और एंटी करुणानिधि वोट थे. उनके लिए प्यार, सम्मान, आदर के साथ नफरत और नाराजगी बराबर मात्रा में पाया गया.
इस समय वो केरल में सीपीआई एम के वीएस अच्युतानंदन के साथ भारत के सबसे सीनियर राजनेता थे. करुणानिधि ब्रैंड की द्रविड़ राजनीति हमेशा ही ऐसी रही, जिसकी दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में अहमियत रही. इस मामले में वो और एमजीआर एक साथ दिखाई देते हैं. एमजीआर हमेशा दिल्ली की ताकत के साथ खड़े दिखाई दिए. उनका सिद्धांत था कि कभी दिल्ली के साथ झगड़ा मत करो. करुणानिधि को श्रेय दिया जाना चाहिए कि उनके दोस्त हर जगह थे. चाहे वो एनडीए सरकार हो या यूपीए, डीएमके वहां दिखाई दी.
कावेरी अस्पताल के बाहर जमा भीड़ में दुख के बीच एक जुड़ाव दिखाई दिया, जो डीएमके के कार्यकर्ता अपने कलैग्नर के लिए महसूस करते थे. करुणानिधि को प्यार से इसी नाम से जाना जाता था, जिसका मतलब होता है कलाकार. करुणानिधि ने हमेशा सुनिश्चित किया की पार्टी कैडर पूरी तरह चुस्त-मुस्तैद रहे. यहां तक कि जब 1976 से 1989 तक वे 13 साल सत्ता में नहीं थे, तब भी.
मुख्यमंत्री के तौर पर उन्होंने सुनिश्चित किया कि हमेशा हर बात की जानकारी वो रखें. हर साल बजट के बाद डीएमके जिला सेक्रेटरी को फंडिंग या फाइनेंस की पूरी जानकारी भेजी जाती थी. करुणानिधि हर किसी को बजट के बारे में साक्षर रखना चाहते थे. डीएमके सरकार हमेशा यह कती थी कि बजट से जुड़ी उनकी सभी बातें गांव-गांव तक पहुंचे. इस तरह पार्टी कैडर लोगों से जुड़ता था और जानकारी साझा करता था. तमिलनाडु ने ऐसा नेता खोया है, जिसका अप्रोच हर मुद्दे पर व्यावहारिक और कॉमनसेंस भरा होता था.
पिछले दस दिनों से कावेरी अस्पताल ने तमाम स्लोगन देखे हैं. एयुंदु वा तलाइवा एयुंडु वा (उठो हमारे नेता और बाहर आओ) और तिरुंबी वा, तिरुंबी वा (वापस आओ, वापस आओ जैसे स्लोगन. मंगलवार को शाम को स्लोगन बदल गए थे. अब स्लोगन थे पोयी वा, पोयी वा (जाओ और वापस आओ). जिस डीएमको को करुणानिधि ने पांच दशकों तक पाला-पोषा, वो अब यह स्वीकार कर चुका था कि वक्त विदाई का है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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