29 जून 1999 की तारीख 18 साल बाद भी भुलाए नहीं भूलती क्योंकि इस तारीख का करगिल जंग के साथ बेहद करीबी रिश्ता है. करगिल की जंग के दस्तावेज में देश के कई युवा जांबाजों की कुर्बानियां दर्ज हैं. जिन्होंने अपने अदम्य साहस के साथ मौत को गले लगाने में देर नहीं की.
मातृभूमि की रक्षा के लिए वो जवान कम उम्र में ही शहीद होते चले गए. गरजती बंदूकों और गोले बरसाती बोफोर्स तोपों की गूंज के बीच भारतीय सेना के जवानों का जोश पहाड़ों को झकझोर रहा था जहां देश के दुश्मन छिपे हुए थे.
जंग में हर जवान अपनी शौर्य गाथा को अमर बना रहा था. जिसमें एक नाम कैप्टन विजयंत थापर का भी था जो कभी भुलाया नहीं जा सकता. 22 साल की उम्र के जांबाज कैप्टन विजयंत थापर अपनी छोटी सी उम्र देश के नाम कर चुके थे. लेकिन शहादत से पहले परिवार के लिए उनका लिखा एक खत आज भी किसी की भी आंखों को नम कर सकता है.
विजयंत थापर का परिवार के नाम लिखा ख़त
उस खत की तहरीरों में मुल्क से मुहब्बत थी, शहादत की बेचैनी थी, सेना के लिए जज्बात थे तो बलिदान का अहसास था. ये खत अपनों से हमेशा के लिए होने वाली जुदाई के अफसोस में लिपटा हुआ था. ये खत उस 22 साल के जवान की आखिरी ख्वाहिशों की फेहरिस्त था. ये खत खुद जानता था कि लिखने वाले के पास अब वक्त बचा नहीं था और वापस लौटना उस जांबाज की फितरत नहीं था.
खत की ये तहरीरें आंखों को आंसुओं से धुंधला सकती हैं कि कैसे जब सौ करोड़ का मुल्क जंग की उथलपुथल के बावजूद अपनी रफ्तार में था तो उस वक्त सेना के जांबाज सरहद की दुर्गम चोटियों पर जिंदगी कुर्बान कर रहे थे.
'एक बार फिर जन्म हुआ तो मातृभूमि के लिए लड़ूंगा'
कैप्टन विजयंत थापर ने लिखा था, ‘जब तक आप लोगों को यह पत्र मिलेगा, मैं ऊपर आसमान से आप को देख रहा होऊंगा और अप्सराओं के सेवा-सत्कार का आनंद उठा रहा होऊंगा. मुझे कोई पछतावा नहीं है कि जिंदगी अब खत्म हो रही है, बल्कि अगर फिर से मेरा जन्म हुआ तो मैं एक बार फिर सैनिक बनना चाहूंगा और अपनी मातृभूमि के लिए मैदान-ए-जंग में लड़ूंगा. अगर हो सके तो आप लोग उस जगह पर जरूर आकर देखिए, जहां आपके बेहतर कल के लिए हमारी सेना के जांबाजों ने दुश्मनों से लोहा लिया था.’
कैप्टन का ये आखिरी खत था और वो शहीद हो चुके थे लेकिन उससे पहले उनकी जांबाजी मिसाल बन चुकी थी.
राजपूताना राइफल्स को टाइगर हिल्स और तोलोलिंग में घुसे दुश्मनों को उखाड़ फेंकने के ऑपरेशन की जिम्मेदारी मिली थी. ऊंचाई पर छिपे बैठे दुश्मन को चुन- चुन कर मारने की कोशिश जारी थी. बेहद खतरनाक और मुश्किल चोटियों पर कैप्टन विजयंत थापर अपनी पलटन के साथ जीत का तिरंगा फहरा चुके थे.
तोलोलिंग के बाद दूसरी चुनौती थ्री पिमपल्स और नॉल पर कब्जा करना जहां से दुश्मन छिप कर गोलियां बरसा रहा था. पंद्रह हजार फीट की ऊंचाई और सीधी चढ़ाई भी विजयंत थापर के हौसलों को डिगा नहीं सकी.
हालांकि इस मुश्किल मिशन में उनकी टुकड़ी के कई जांबाज शहीद हो चुके थे. लेकिन विजयंत थापर आगे बढ़ने से रुके नहीं. लेकिन वक्त ने उन्हें उस वक्त थाम लिया जब एक सीधी गोली उनके माथे पर लगी और शहादत का तिलक कर गई. सिर्फ 6 महीनों की नौकरी ही विजयंत ने पूरी की और शहादत पर हंसते हंसते दस्तखत कर दिया.
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