कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के साथ हमें सर से पांव तक इश्क में गिरफ्तार हो जाना चाहिए था. अपने इस दौरे में वे हमारी तरह के जान पड़े और आदतन हम भावनाओं की तंरग में बहना पसंद करते हैं. शास्त्रीय संगीत और नृत्य के प्रति हमारी रुझान जगजाहिर है और हम इसके लिए कहीं भी दौड़ पड़ते हैं, गुलाब जल के छींटे मारने और विदेश से आने वाले मेहमानों के माथे पर टीका लगाने में हम कभी पीछे नहीं रहते.
जस्टिन ने सोचा कि बात तो पहले से ही बनी हुई दिख रही है और अपनी सोच की राह पर निकल पड़े. भारतीय दिखने में वे भारतीयों को भी मात कर रहे थे. कसर बस इतनी भर रह गई थी कि उनके हाथ में चमड़ी की जिल्द मढ़ी कोई अटैची नहीं थी जो धूल सने कपबोर्ड की शोभा बढ़ाती, लकड़ी के बने तीन हंसों का वह सजावटी सामान ना था जो दीवार पर चढ़ता और नहीं था तो दरवाजे पर नजर आने वाला नारियल की रस्सी की बुनाई का वह ‘मैट’ जिसपर 'स्वागतम्' लिखा होता है.
जस्टिन ट्रूडो के स्वागत में क्यों रही कमी?
हां, कोई स्वागत नहीं हुआ. प्रधानमंत्री से ट्रूडो की जब भेंट हुई तो हमने मन ही मन कल्पना कर ली कि आरती दिखाई जा रही, गेंदा के फूल सजे हुए हैं और अगरबत्तियां जल रही है. गजब की फुर्ती से पोशाक बदलते ट्रूडो का सफर आगे इसी नाजो-अंदाज के साथ बाआसानी जारी रहता लेकिन इस सारे तामझाम के बीच कुछ ऐसा हुआ कि हमारे मन को काठ मार गया.
ट्रूडो भारतीय दिखने के चक्कर में कुछ इतने उतावले हुए जा रहे थे कि बाकियों का उत्साह फीका पड़ा और मन में शंका जागी कि कहीं यह शख्स हमारी रहनुमाई तो नहीं करना चाह रहा! दरअसल किसी मेहमान का अपने मेजबान किसी की संस्कृति को समझकर अपने बरताव से संस्कृति की बारीकियों के प्रति सम्मान का इजहार करना एक बात है जबकि किसी ‘गोरे’ का झटपट देसी कपड़े पहन अपने को ‘देसी’ साबित करने की उतावली इससे एकदम ही अलग बात.
दोनों में बड़ा महीन फर्क है और आपकी प्रतिभा की पहचान इस बात में है कि इस फर्क के हिसाब से आपको सही जगह पर अपने को रोकना आता है या नहीं. जस्टिन ट्रूडो ने अंदाज बिल्कुल हॉलीवुड वाला अपनाया, ढोल-नगाड़े बजाए, हिंदुस्तानी व्यंजनों पर लट्टू नजर आए और इस क्रम में जो देसीपना उन्होंने दिखाया वह उनके देशवासी कनाडा के लोगों को संकोच में डालने के लिए काफी था. भारतीय होने का उनका यह ताम-झाम भरा दिखावा यों तो सिख वोट बैंक को लुभाने के लिए था लेकिन इस दिखावे की तस्वीरें कनाडा के घरों में टेलीविजनी पर्दे पर जरूर ही नुमायां हुई होंगी.
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जस्टिन ट्रूडो ने अपने नाजो-अंदाज में देसीपन का जो तड़का लगाया वह नॉरमन रॉकवेल सरीखे कलाकारों को भले अच्छा लगे लेकिन हम हिंदुस्तानियों की जीभ पर तड़के का यह स्वाद ना चढ़ पाया. हम हिंदुस्तानियों को हैरत हुई, लगा कि आखिर जनाब ट्रूडो अपने को देसी दिखाकर जताना क्या चाह रहे हैं?
अगर सरकार और अवाम दोनों ट्रूडो को लेकर खास उत्साहित नजर नहीं आए तो इसके पीछे तीन वजहें गिनाई जा सकती हैं. जस्टिन अपने हाव-भाव में निहायत शरीफ , शर्मीले और मासूम नजर आते हैं सो सियासत के दुनिया के वास्तविक किरदार ना लगकर कुछ और जान पड़ते हैं.
एक बात यह भी हुई कि वे सपरिवार आए थे और लोगों के साथ उनका मिलना-जुलना सपरिवार होता था सो लोगों को जान पड़ा, भाई ये आदमी कौन है और उसे परेशानी क्या है जो ऐसे मिल रहा है. नतीजा ये निकला कि लोगों को झुंझलाहट हुई और इसे किसी विश्व-नेता के एतबार से अच्छा नहीं कहा जा सकता. मंजर कुछ ऐसा बन पड़ा था मानो कोई फ्रंटियर्समेन रेड इंडियनों के साथ सुलह के भाव से हुक्के सुलगा रहा हो और उनके भोजन का स्वाद पर झूठ-मूठ की वाह भरते हुए अपने शीशे की लाल-पीली-नीली गोटियां बेचने की बात सोच रहा हो.
भारतीयों का कनाडा से लगाव
जस्टिन की मामले में एक बात और थी. उनके हाथ में भारत के लिए जो उपहार थे उन्हें सियासी ऐतबार से बहुत जानदार नहीं कहा जा सकता. कनाडा में भारतीय मूल के तकरीबन 20 लाख लोग रहते हैं और 25 हजार की तादाद में भारतीय हर साल अमेरिकी स्वप्न-संसार का पीछा करते हुए कनाडा की धरती पर जा बसने के सपने सजाते हैं लेकिन ट्रूडो के एजेंडे में ऐसा जोर ना था कि भारत की सरकार बहुत उत्साह दिखाती, सो उसने उदासीनता बरती और यह साफ नजर आया.
नतीजतन, दुनिया के दो बड़े लोकतंत्र अपनी परंपरागत नजदीकी का वैसा इजहार ना कर पाये जिसकी उम्मीद की जा रही थी. कनाडा में बसे 4 लाख 70 हजार की तादाद में मौजूद सिख समुदाय के लोग धनी हैं और खालिस्तान के निर्माण के समर्थक भी. ट्रूडो की सरकार उन्हें अपनी बात कहने का मौका देती है. करेले के नीम चढ़ने की एक बात यह भी हुई कि कनाडा जा बसे एक भारतीय जसपाल अटवाल को वीजा दे दिया गया.
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अटवाल ने 1991 में पंजाब मंत्रिमंडल के तत्कालीन सदस्य मल्कियत सिंह सिद्धू की गोली मारकर हत्या कर दी थी. ट्रूडो ने पिछले साल टोरंटो में एक जलसे में शिरकत की थी. यह खालिस्तान समर्थक लोगों का जमावड़ा था और ट्रूडो के जलसे में शरीक होने को लेकर सवाल उठे थे. एक मुश्किल और पैदा हुई. सोफी ट्रूडो एक तस्वीर में अटवाल के बगल में खड़ी नजर आईं. उन्हें इस बात का अहसास ना था कि यह शख्स कौन है. यह तस्वीर भी बदमजगी की वजह बनी. अटवाल नाम के इस आतंकवादी को वीजा कैसे मिला इसकी अलग से जांच होनी चाहिए.
इसके बाद ट्रूडो के दौरे का एक तीसरा पहलू नजर आया. रिश्ते में जमी हुई बर्फ को तोड़ने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने ट्रूडो को गले लगाया लेकिन साफ दिख रहा था कि उनका मन भारी है. इस गले लगाने में वैसी कोई गर्मजोशी नहीं झांक रही थी जैसा कि अमूमन नजर आया करती है. यह पहल बहुत देर से हुई और इसे पर्याप्त भी नहीं कहा जा सकता.
दौरा सात दिनों का था और द्विपक्षीय संधि और एमओयू पर दस्तखत के लिहाज किसी खास मशक्कत की इस दौरे में जरुरत भी नहीं थी, सो सात दिन का यह दौरा यह मनुहार की बातों की मीठी चीशनी उबालते गुजर गया- उसमें मीठापन और गीलापन तो था लेकिन ठोस काम की बातें बहुत कम.
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