‘मुकदमों की दुनिया के नए मेहमान हैं टेक्नॉलॉजी और बायोमीट्रिक्स. इन दोनों मेहमानों का खुद के बारे में खास दावा है. टेक्नोलॉजी का दावा है कि वो ताकत देता है और बायोमीट्रिक्स का कहना है कि उसके सहारे किसी व्यक्ति की ठीक-ठीक पहचान की जा सकती है. इन दोनों को अगर एक साथ मिला दें तो फिर एक नई ही चीज सामने आती है. दोनों का एक साथ मिलना इस डिजिटल युग में प्रशासन के लिए अनदेखी-अनजानी चुनौतियां खड़ी कर सकता है.’
ऊपर लिखी बातें जस्टिस डीवाय चंद्रचूड़ के फैसले में कही गई हैं. जस्टिस चंद्रचूड़ पांच जजों की एक बेंच का हिस्सा थे. इस बेंच के बहुमत से सुनाए फैसले से अलग राय रखते हुए उन्होंने अपना फैसला सुनाया. पांच जजों की यह बेंच साल 2012 की रिट याचिका (दिवानी) संख्या 494 की सुनवाई कर रही थी. यह याचिका रिटायर्ड जस्टिस केएस पुट्टास्वामी तथा अन्य बनाम भारतीय संघ और अन्य से संबंधित है. आमफहम भाषा में हम इसे ‘आधार’ केस के नाम से जानते हैं.
बहुत कम मुकदमे होते हैं जिनपर पूरे देश की नजरें गड़ी हों. आधार (वित्तीय एवं अन्य अनुदान, लाभ तथा सेवा परिदान) अधिनियम 2016 की संवैधानिकता से जुड़ा मुकदमा ऐसे ही उदाहरणों में गिना जाएगा. इस पर सारे देश की नजरें टिकी हुई थी. यों आधार अधिनियम तो संसद में 2016 में पारित हुआ लेकिन बायोमीट्रिक्स पर आधारित विशिष्ट पहचान-संख्या के सहारे नागरिकों की पहचान को सत्यापित करने की दुनिया की इस विशालतम परियोजना की शुरुआत हुई थी 2009 में और शुरुआत से ही इस परियोजना की वैधानिकता को लेकर सवाल उठते रहे.
एक तरफ आधार-कार्ड की जरूरत पर सवाल खड़े करने वाले लोग थे तो दूसरे तरफ सरकार के इस सोच के हमराह भी कि यूआईडीएआई जो विशिष्ट पहचान संख्या मुहैया करा रही है उससे भारत सरकार को मदद मिलेगी और सरकार अनुदान तथा अन्य सहायता के साथ प्रत्येक नागरिक तक पहुंच सकेगी.
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अगर आप अपने बैंक (और बैंक के क्रेडिट कार्ड एक्जिक्टिव), सेल्युलर फोन ऑपरेटर या फिर अपने इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर के भेजे टेक्स्ट मैसेजेज की बाढ़ से उकता चुके लोगों में एक हैं तो फिर मैं यहां बाआसानी मान सकता हूं कि आपकी नजरें भी आधार एक्ट से जुड़े मुकदमे पर लगी होंगी. और अगर एक कदम आगे जाकर कहूं तो मैं आपके बारे में यह भी मान सकता हूं कि आपने आधार एक्ट के पक्ष में दी गई दलील या फिर उसके खिलाफ दिए गए तर्कों को कभी ना कभी पढ़ा ही होगा, बशर्ते आप पिछले कई महीनों से दीन-दुनिया से दूर पहाड़ की किसी कंदरा में ना रह रहे हों.
ये फैसला किसी खजाने से कम नहीं
आधार एक्ट के बारे में चले मुकदमे को लेकर कुल 1,448 पन्नों में लिखा गया फैसला अपने आप में किसी खजाने से कम नहीं. फैसले के किसी भी हिस्से को उठाइए और अपनी व्याख्या की सान पर चढ़ाइए, फिर आपको पता चलेगा कि इसका व्यक्ति की निजता की रक्षा के अधिकार पर क्या असर पड़ने वाला है. हां, इसके लिए यह भी जरूरी होगा कि आप आधार एक्ट की वैधानिकता को लेकर आए फैसले को निजता के अधिकार से जुड़े मुकदमे (जस्टिस केएस पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ) में आए फैसले के साथ मिलाकर पढ़ें.
टिप्पणीकार फैसले को लेकर बहुत उत्साहित हैं. वे आधार अधिनियम पर आए फैसले के कुछ हिस्सों को पढ़ रहे हैं और कुछ पर आशंका में अंगुलियां उठा रहे हैं लेकिन इनमें से शायद ही कोई उस फैसले के बारे में सोच रहा है जिसे जस्टिस चंद्रचूड़ ने सुनाया है. जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में आधार एक्ट को मनी बिल की शक्ल में पारित करने के मसले पर तल्ख टिप्पणी की है और उसे गलत ठहराया है जबकि मामले में पांच जजों की बेंच के बहुमत का फैसला विधेयक को इस तरीके से पारित करवाने के पक्ष में दी गई दलील से सहमत जान पड़ता है.
जस्टिस चंद्रचूड़ ने बहुमत के फैसले से अलग राय रखते हुए अपना फैसला सुनाया और बिना किसी लाग-लपेट के बेबाक लफ्जों में लिखा कि, 'आधार एक्ट को धन विधेयक के रूप में पेश किया गया जो किसी विधेयक को नामंजूर करने या फिर उसमें संशोधन करने के अधिकार से राज्यसभा को वंचित करता है. आधार एक्ट को धन विधेयक के रूप में पेश करने से राज्यसभा के संवैधानिक हैसियत की अनदेखी हुई है. आधार एक्ट को धन विधेयक रूप में पारित करवाना संवैधानिक प्रक्रिया की अवहेलना है. इसने राज्यसभा को विधेयक के प्रावधानों में संशोधन करके उसे बदलने के हक से वंचित किया.'
जस्टिस चंद्रचूड़ ने क्या दिया है तर्क?
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश समेत खंडपीठ के अपने अन्य साथी न्यायाधीशों की राय के उलट जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में लिखा है कि आधार एक्ट एक खास तरीके से पारित किया गया और ठीक इसी कारण पूरा अधिनियम ही असंवैधानिक है. तत्व और सार (पिथ एंड सब्स्टांस) के सिद्धांत का उपयोग करते हुए और विस्तार से ये बताते हुए कि कोई धन विधेयक किस तरह पारित किया जाना चाहिए- जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में लिखा है कि किसी विधेयक को धन विधेयक कहलाने के लिए अनुच्छेद 110 (1) में वर्णित शर्तों का पालन करना जरूरी है और इन शर्तों के अनुकूल ना होने के कारण आधार एक्ट असंवैधानिक है. बहरहाल, जस्टिस चंद्रचूड़ के इस फैसले का फिलहाल कोई असर नहीं होने वाला क्योंकि खंडपीठ के बहुमत का फैसला आधार एक्ट को संवैधानिक (कुछ ही हिस्सों को अंसवैधानिक कहा गया जबकि बाकी को ठीक बताया गया है) ठहराता है.
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खंडपीठ के बहुमत के फैसले के प्रति पूरा सम्मान बरतते हुए यहां यह बात दर्ज की जानी चाहिए कि जस्टिस चंद्रचूड़ ने जो नजरिया अपनाया है वह बहुत सधा और सटीक है.
शासन किसी भी राजनीतिक दल का हो लेकिन सर्वोच्च सत्ता भारत के संविधान ही की है और जनादेश कितना भी मजबूत क्यों ना हो, वो संविधान की सर्वोच्चता को बदल नहीं सकता. केशवानंद भारती बनाम केरल प्रांत के मामले में यह बात एक बार नए सिरे से लिखी गई और आज किसी पत्थर की लकीर से कम नहीं. केशवानंद भारती मामले में जो फैसला आया उसे ही आज हम संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत के नाम से जानते हैं जो अपरिवर्तनीय है.
चंद्रचूड़ ने संवैधानिक प्रक्रिया की अवहेलना न हो, ये सुनिश्चित किया है
इसी कारण, बीते वक्त में भरपूर बहुमत होने के बावजूद जब सरकारों ने संविधान के प्रावधानों के उल्लंघन की कोशिश की तो देश की सर्वोच्च अदालत ने अपने कदम आगे बढ़ाए और यह सुनिश्चित किया कि संवैधानिक प्रक्रिया की कोई अवहेलना ना हो.
जस्टिस चंद्रचूड़ के फैसले पर हैरान होने की कोई बात नहीं. अगर हमने उम्मीद रखी थी कि सुप्रीम कोर्ट एक बार फिर से यह सुनिश्चित करे कि संवैधानिक प्रक्रिया की कोई अवहेलना ना हो तो जस्टिस चंद्रचूड़ ने बिल्कुल यही किया है.
यहां जस्टिस चंद्रचूड़ के कहे को एक बार फिर से दर्ज करना बेजा नहीं होगा. उन्होंने लिखा है, 'हमारे संविधान ने किसी भी संस्था को परम शक्ति नहीं दी है. हमारे संविधान ने निगरानी और अंकुश की व्यवस्था दी है.'
साथ ही उन्होंने यह भी लिखा है कि, 'हमारे कानूनों के लिए जरूरी है कि वे अपने बुनियादी सिद्धांत को औपनिवेशिक अतीत के चंगुल से आजाद करें. अदालत को यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि संवैधानिक पद या संस्था को शक्तियां दी गई हैं तो उन शक्तियों का न्यायिक पुनरावलोकन नहीं किया जा सकता.'
पूरे अधिनियम को ठहराया असंवैधानिक
यहां यह दर्ज करना जरूरी है कि जस्टिस चंद्रचूड़ ने किसी खास हिस्से को नहीं बल्कि पूरे आधार अधिनियम को ही असंवैधानिक ( खंड एल, अनुच्छेद 3) करार दिया है. आधार अधिनियम राज्यसभा में इस तरीके से पेश किया गया कि राज्यसभा उसमें कोई संशोधन ना कर सके और ठीक इसी कारण जस्टिस चंद्रचूड़ ने आधार अधिनियम को अपने फैसले में असंवैधानिक ठहराया है.
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यहां भारतीय संसद की कार्य-प्रक्रिया को लेकर हम बड़े संक्षेप में याद करने की कोशिश करें तो हमें दिखेगा कि धन विधेयक के मामले में राज्यसभा को संशोधन करने का अधिकार हासिल नहीं है. राज्यसभा धन विधेयक में बदलाव करने की सिफारिश भर कर सकती है और जरूरी नहीं कि इन सिफारिशों को लोकसभा मंजूर करे. लोकसभा इन सिफारिशों को मानने के लिए बाध्य नहीं है. दूसरे शब्दों में कहें तो राज्यसभा धन विधेयक में अगर कोई बदलाव देखना चाहती है तो लोकसभा ऐसे किसी भी बदलाव को पूरी तरह खारिज कर सकती है.
आधार अधिनियम को पारित किए जाने में गड़बड़ी कहां हुई? मुझे लगता है भरपूर बहुमत वाले किसी भी दल के बारे में यह शंका की जा सकती है कि राज्यसभा ने अगर निगरानी और अंकुश की कोई पहल की है तो ऐसी पहल को धता बताते हुए ऐसी ही प्रक्रिया अपनाकर वह दल किसी विधेयक को पारित कर कानून का रूप दे देगा. अपनाई गई यह प्रक्रिया न्यायिक पुनरावलोकन में सही पाई जाती है या नहीं यह तो बाद की बात है लेकिन यहां असल सवाल तो यही है कि प्रक्रिया के दुरूपयोग की आशंका है.
यूआईडीएआई और भारत सरकार ने आधार एक्ट को धन विधेयक के रूप में पारित करवाने के पक्ष में बाकी बातों के साथ-साथ यह दलील भी दी कि नागरिकों को अगर अनुदान, लाभ और सेवा मुहैया करायी जानी है तो फिर यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि जिस व्यक्ति का हक बनता है उसे ही ऐसा अनुदान, लाभ और सहायता-सेवा हासिल हो. खंडपीठ ने बहुमत वाले फैसले में सरकार की यह दलील मानी है. अटॉर्नी जनरल ने अदालत में तर्क रखा था कि आधार अधिनियम की धारा 7 ही उसका मुख्य प्रावधान है और अनुच्छेद 110(1) के अंतर्गत अधिनियम के इस हिस्से को धन विधेयक के रूप में पारित करना जायज है. खंडपीठ के बहुमत वाले फैसले में इस तर्क को भी ठीक माना गया है.
जस्टिस चंद्रचूड़ इन दलीलों से सहमत नहीं थे.
जो लोग डेटा की सुरक्षा और निजता के अधिकार से जुड़े कानून की समझ बनाना चाहते हैं उनके लिए आधार एक्ट के मामले में आया फैसला ज्ञान का खजाना साबित हो सकता है.
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आधार एक्ट को लेकर आए फैसले से फिलहाल एक बात सुनिश्चित हो गई है. आधार परियोजना लगातार दो केंद्र सरकारों की चहेती बनी रही और अब इस परियोजना की वैधानिकता पर सर्वोच्च अदालत की मोहर लग चुकी है.
एक बात तय है. आधार एक्ट पर आए फैसले ने हमें कुछ अनोखे सवालों के बीच ला खड़ा किया है और इन सवालों के लिए अनूठे उत्तर तलाशने होंगे. और जब तक इन सवालों के उत्तर नहीं मिल जाते आप भी मेरी तरह उन नागवार टेक्स्ट मैसेजे की अनदेखी करें जिनमें याद्दहानी के अंदाज में आपसे कहा जाता है कि अपना बैंक अकाउंट और सेल्यूलर फोन-नंबर आधार से लिंक करवा लो.
(लेखक बाम्बे हाईकोर्ट में वकील हैं)
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