जब आगे बढ़े नार्थ-ईस्ट, तो जल मरें लेफ्टिस्ट.
इसी नारे के साथ एबीवीपी ने नॉर्थ--ईस्ट कार्ड जेएनयू कैंपस में खेला. इसलिए नॉर्थ-ईस्ट के तीन मुख्यमंत्री को कैंपस में बुलाया लेकिन दांव उल्टा पड़ता दिखाई दे रहा है.
अब उल्टे नॉर्थ-ईस्ट स्टूडेंट फेडरेशन (एनईएसएफ) ने आरोप लगाया कि उन्हें कार्यक्रम में अंदर नहीं जाने दिया गया. हमें अपने सीएम से बात करने से रोका गया. नॉर्थ-ईस्ट के स्टूडेंट और तमाम एबीवीपी विरोधी छात्र इकाइयों ने विरोध में शांति मार्च निकाला. मुंह पर काली पट्टी बांध कर आइसा, डीएसएफ, एसएफआई, एनएसयूआई, बापसा इत्यादि पार्टियों ने गंगा ढाबा से चंद्रभागा हॉस्टल तक मार्च किया.
आइसा की काउंसलर अदिति चटर्जी ने अपने फेसबुक पर एबीवीपी पर तंज कसते हुए लिखा, 'ABVP अब तक का चुनाव ABVP+ मुगल दरबार में पार्टी+ संसद दर्शन + अथाह पैसा + JNU admin + तीन राज्य के मुख्यमंत्री के गठबंधन के साथ लड़ रहा है.
नजीब का मुद्दा भी इस चुनाव में फिर से जोड़ पकड़ रहा है. बापसा और बासो इस मुद्दे को उठा रही है. गौरतलब है कि जेएनयू का छात्र नजीब एबीवीपी के कुछ लोगों से मारपीट के बाद कैंपस से गायब हो गया था सीबीआई भी उसे ढूंढ़ने में असफल रही है. समय-समय पर यह मुद्दा भी केंद्र में आ जाता है.
एबीवीपी ने अपना पक्ष कमजोर होते देख स्कॉलरशिप की राशि बढ़ाने और दलित पिछड़ों के आरजीएनएफ को सुचारू रूप से जारी रखने को अपने एजेंडे में शामिल कर लिया. आगे डीयू का भी चुनाव है इसलिए इसको अखिल भारतीय रूप दे दिया. देशभर में एबीवीपी ने इसके लिए प्रदर्शन किया. जेएनयू में भी इसके लिए जुलूस निकाला गया. उन्होंने सरकार से मांग की कि गैर शोध छात्रों को दी जाने वाली एमसीएम की राशि 2 हजार से बढ़ा कर 4 हजार की जाय. इसी तरह उन्होंने नॉन नेट फेलोशिप की राशि को भी बढ़वाने का वादा किया. अति उत्साह में एक संभावित प्रत्याशी ने तो इतना तक कह दिया कि अगर हमारी बात नहीं मानी गई तो हम सरकार गिरा देंगे. जाहिर सी बात है इसपर खूब तालियां मिली.
एबीवीपी इस बार अंतिम मौका मान कर चल रही है. बीजेपी सरकार भी अपने अंतिम साल में प्रवेश कर चुकी है. लोकसभा चुनाव से पहले यह अंतिम छात्रसंघ चुनाव है. एबीवीपी पर जेएनयू प्रशासन से सांठ-गांठ का आरोप लगता रहा है. इसलिए जुलूस में नक्सली वीसी हाय-हाय के नारे लगा कर एबीवीपी ने खुद को प्रशासन से अलग दिखाने की कोशिश की. साथ ही साथ उन्होंने जय भीम, जय भारत का नारा देकर दलित छात्रों को भी रिझाने की कोशिश शुरू कर दी है.
बापसा की कोई पैरेंट पार्टी नहीं है. भले ही विचारधारा और नाम की वजह से उसका बसपा से संबंध होने का भरम होता है लेकिन इसकी कोई औपचारिक घोषणा नहीं है. इस वजह से बापसा प्रचार के लिए दलित बहुजन बुद्धिजीवियों का सहारा लेती है. आरक्षण के मुद्दे पर बापसा ने भी एक पब्लिक टॉक का आयोजन किया. जिसमें आदिवासी चिंतक सोना झरिया मिंज मुख्य वक्ता थीं.
लेफ्ट यूनिटी ने अपने पत्ते छुपा कर रखे हैं. आने वाले कुछ दिनों में उनकी रणनीति सामने आएगी. एनएसयूआई के कैडरों की संख्या बढ़ी है इसमें कोई शक नहीं. कैंपस में उसकी गतिविधि भी बढ़ी है. लेकिन एनएसयूआई के अंदर कई धरे हैं इसलिए कह पाना मुश्किल है कि क्या एनएसयूआई एकजुट होकर अपना मजबूत दावा पेश कर पाएगी.
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