जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी कोई टापू नहीं है, जहां से आलोचनात्मक नजरिए से सोचने वाले इंसान धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं. लेकिन हाल के समय में ऐसा महसूस हुआ कि मानो इनको खत्म कर देने के लिए इनका पीछा किया जा रहा है. यह खासकर जेएनयू स्टूडेंट यूनियन के पूर्व प्रेसिडेंट कन्हैया कुमार की इस आधार पर गिरफ्तारी कि यूनिवर्सिटी कैंपस में कश्मीर को भारत से आजाद कराने के नारे लगे थे, के बाद से सही साबित हो रहा है. यह मामला जल्द ही राजनीतिक विवाद में बदल गया, जिसको देश भर से तमाम राजनीतिक दलों, टीचर्स, स्टूडेंट और विद्वानों से समर्थन मिला.
शब्द ‘असहमति’ ने जबसे जनमानस में जगह बनाई है, तभी से दक्षिण और वाम विचारधारा के बीच रस्साकशी तेज होती गई है. विचारधारा के इस खेल में वह लोग भी चोटिल होने से नहीं बचे, जिन्होंने दोनों पक्षों से दूरी बनाकर रखी. यूनिवर्सिटी ने अभी हाल ही में एक प्रोफेसर के खिलाफ यौन शोषण का आरोप लगने पर उनके खिलाफ आक्रामक प्रतिक्रिया की, लेकिन एक दूसरे मामले में एक प्रोफेसर, जिसके खिलाफ उनके स्टूडेंट ने ही यौन उत्पीड़न का मामला दबाने और गवाह के उत्पीड़न का आरोप लगाया, यूनिवर्सिटी ने एकदम मुंह सी लिया.
पहला मामला है प्रोफेसर अतुल जौहरी का. जौहरी के खिलाफ कैंपस के अंदर और बाहर भारी प्रदर्शन के दौरान उनके सरकार-समर्थक स्वभाव को भी सार्वजनिक किया गया. शिकायतकर्ता की तरफ से जारी प्रेस नोट में, जिसे स्टूडेंट एक्टिविस्ट उमर खालिद ने ट्वीट किया था, बताया गया कि, 'आरोपी जो कि बीजेपी/आरएसएस के मुखर समर्थक हैं, ने कहा है कि हम लेफ्ट समर्थक हैं और यह एक राजनीतिक साजिश है. जबकि हकीकत यह है कि हममें से कई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के रजिस्टर्ड मेंबर हैं. हम चाहते हैं कि यह मामला सैक्सुअल हैरेसमेंट के गंभीर मामले के तौर पर देखा जाए और इसे कोई राजनीतिक रंगत देने की कोशिश ना की जाए.'
Press statement by complainants in the Atul Johri case. #JohriHataoBetiBachao pic.twitter.com/GX9zqvEnNE
— Umar Khalid (@UmarKhalidJNU) March 21, 2018
जेएनयू के लोगों ने संसद की तरफ मार्च किया. हैशटैग #JohriHataoBetiBachao ट्विटर पर घूमता रहा. मामले में बॉलीवुड से भी समर्थन मिला जब गीतकार जावेद अख्तर ने इसे ट्वीट किया:
If the choice is between believing ten average , normal girl students who all are accusing a man for sexual abuse or that man , I will believe the girls . Atul Johri should be suspended by the JNU VC , today , RIGHT NOW
— Javed Akhtar (@Javedakhtarjadu) March 18, 2018
कांग्रेस नेता, जिसमें सुष्मिता देव और शर्मिष्ठा मुखर्जी भी शामिल थीं, पीड़िता से मिलीं और दिल्ली महिला आयोग की चेयरपर्सन स्वाति मालीवाल ने मामले में दिल्ली पुलिस द्वारा कार्रवाई नहीं करने के लिए उसकी तीखी आलोचना की और पीड़िता के लिए अपना समर्थन जताया. इस सक्रियता की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि जौहरी, जिनके खिलाफ आठ एफआईआर दर्ज कराई गई थीं, को गिरफ्तारी के चंद घंटों के अंदर ही जमानत मिल गई थी.
AIMC Pres @sushmitadevmp along with @INCHaryana Pres @AshokTanwar_INC joins #StudentLongMarch organized by JNU student's demanding Strict action in Sexsual Harassment cases against #AtulJohri. pic.twitter.com/JnCuEZpyq0
— All India Mahila Congress (@MahilaCongress) March 23, 2018
दो प्रोफेसरों का विरोध, दो विचारधाराओं की लड़ाई
ठीक इसी कैंपस में, जबकि एक धड़ा प्रोफेसर जौहरी के खिलाफ प्रदर्शन कर रहा था, एक और धड़ा एक प्रोफेसर महेंद्र पी. लामा के खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए भीड़ जुटाने की कोशिश कर रहा था. इस हफ्ते के शुरू में दिल्ली हाईकोर्ट ने जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी और इसके चार प्रोफेसरों के खिलाफ नोटिस जारी किया था. इन चार लोगों में सेंटर फॉर साउथ एशियन स्टडीज में काम करने वाले प्रोफेसर लामा के अलावा सेंटर फॉर साउथ एशियन स्टडीज के पूर्व चेयरपर्सन प्रोफेसर राजेश खराट, स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के डीन प्रोफेसर अजय कुमार पटनायक व एडमिस्ट्रेटिव ब्लॉक के रेक्टर-I चिंतामणि महापात्रा के नाम शामिल थे.
यह नोटिस जेएनयू में सेंटर फॉर साउथ एशियन स्टडीज के पीएचडी कैंडिडेट प्रशांत कुमार शर्मा की तरफ से दायर रिट याचिका पर जारी किया गया था, जिसमें उन्होंने दावा किया था कि प्रोफेसर लामा द्वारा यौन उत्पीड़न का शिकार बनाई गई एक स्टूडेंट की मदद करने पर उनको परेशान किया जा रहा है.
याचिकाकर्ता का दावा है वह चीन में सिचुआन प्रांत की राजधानी सिचुआन में यूनिवर्सिटी ऑफ चेंगदू में लामा और पीड़िता के साथ थे, जहां यौन उत्पीड़न की कथित घटना हुई. प्रशांत कुमार के अनुसार कहानी इस प्रकार हैः जब प्रोफेसर को पता चला कि प्रशांत ने पीड़िता की भारत वापसी के लिए फ्लाइट पकड़ने में मदद की है तो प्रशांत को विंटर सेमेस्टर 2018 में रजिस्ट्रेशन ना देकर उनको गैरकानूनी तरीके से यूनिवर्सिटी से निकालने की कोशिश की गई.
रिट याचिका में कहा गया है किः 'याचिकाकर्ता को रजिस्ट्रेशन दिए जाने और इस प्रकरण, जिससे उन्हें भारी आर्थिक नुकसान हुआ, अत्यधिक अकादमिक विलंब हुआ, और बहुत गहरी मानसिक पीड़ा पहुंची, की स्वतंत्र अनुशासनिक जांच (इसके बाद इसे 'जांच' कहकर संबोधित किया जाएगा) कराई जाए. आज की तारीख तक याची का पहले ही आठ महीने का अकादमिक समय बीत चुका है, जिसके कारण ना सिर्फ उनकी पढ़ाई का नुकसान हुआ बल्कि उन्हें स्कॉलरशिप भी नहीं मिली, जिससे उनके सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है.'
याचिका में आगे कहा गया है कि याची को प्रोत्साहित करने के बजाय चेयरपर्सन और सुपरवाइजर ने अपने निजी एजेंडे के लिए याची का करियर बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
‘याची यूनिवर्सिटी के नियमों के मुताबिक कन्फर्म पीएचडी स्टूडेंट है और चेयरपर्सन को उसको रजिस्ट्रेशन से इनकार करने का कोई अधिकार नहीं है. प्रतिवादी-2 (इसके बाद इन्हें ‘चेयरपर्सन’ कह कर संबोधित किया जाएगा) और प्रतिवादी-3 (इसके बाद इन्हें ‘सुपरवाइजर’ कह कर संबोधित किया जाएगा) द्वारा याची का शैक्षणिक करियर बर्बाद कर देने के बाद उसका प्रवेश वाइस चांसलर (इसके बाद इन्हें वीसी कह कर संबोधित किया जाएगा) के दखल से कन्फर्म हुआ.'
बड़ी मुश्किल में था शिकायतकर्ता
फ़र्स्टपोस्ट, यह जानने के लिए कि हावड़ा की झुग्गी बस्ती से निकलकर दिल्ली आए एक स्टूडेंट ने क्यों 93 पन्ने की रिट याचिका दायर की और क्यों वकील किया, जबकि यूनिवर्सिटी में समस्या समाधान का सिस्टम मौजूद है, दोनों पक्षों से मिला- पीड़ित और आरोपित से. याची के वकील दिब्यांशु पांडेय, जो बिना कोई फीस लिए उनका मामले में जिरह कर रहे हैं, ने कहा कि शिकायतकर्ता उस समय उनके पास आया, जब वह यूनिवर्सिटी से निकाल दिए जाने के कगार पर पहुंच गया था और उसके पास कहीं जाने का रास्ता नहीं बचा था. पांडेय ने बताया कि 'वह निकाल दिए जाने पर खुदकुशी कर सकता था. उसके पास दिल्ली में रहने का कोई ठिकाना नहीं था और एक झटके में उसकी सारी शैक्षणिक उपलब्धियां धूल में मिल जाने वाली थीं.'
वह सवाल उठाते हैं कि जेएनयू से कोई एक्टिविस्ट या इसकी स्टूडेंट कम्युनिटी ने प्रशांत (जो कि चीन से नवंबर 2017 में लौट आए थे) के समर्थन में क्यों नहीं आवाज उठाई. 'जब वह मेरे पास आया तो उसके ऊपर एक लाख रुपए से ज्यादा का कर्ज था, और इस कर्ज का कारण यह था कि जब प्रशांत की सिनॉप्सिस उसके स्कूल ने पास नहीं की तो प्रशांत को चीन में अपना कोर्स छोड़ देना पड़ा और फौरन लौट आना पड़ा, जिससे उसको स्कॉलरशिप नहीं मिली. तीन लोग थे, जिनको उसकी स्कॉलरशिप पास करनी थी- सुपरवाइजर (प्रो. लामा), चेयरपर्सन (प्रो. खराट) और डीन (प्रो. पटनायक).' पांडेय का कहना है कि सिनॉप्सिस पर मंजूरी लेने के लिए तकनीकी रूप से प्रशांत को वापस भारत आने की जरूरत नहीं थी. पांडेय सवाल उठाते हैं कि खुद को समता और न्याय की अगुवा कहने वाली एक यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट को आखिर वकील करने की जरूरत क्यों पड़ी? वह महसूस करते हैं कि सिर्फ जेएनयू ही नहीं बल्कि कहीं भी, मानवाधिकार के मुद्दों का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए.
फ़र्स्टपोस्ट की प्रशांत से भी बात हुई. प्रशांत ने बताया कि मनमाने तरीके से रजिस्ट्रेशन से इन्कार कर दिए जाने से उनको पैसों का भारी नुकसान हुआ व मानसिक पीड़ा हुई और जिसके कारण आखिरकार उनको अदालत की शरण लेनी पड़ी. हॉस्टल व अन्य सुविधाएं हासिल करने के लिए हर स्टूडेंट को हर सेमेस्टर में यूनिवर्सिटी में रजिस्ट्रेशन कराना होता है. स्टूडेंट को हर सेमेस्टर में नया आईडी कार्ड जारी होता है, जिसके ना होने पर कैंपस में दाखिल होना मुश्किल है. 20 मार्च 2018 को, जब हाईकोर्ट ने जेएनयू और चार अन्य को नोटिस जारी किया, तो यूनिवर्सिटी ने हाईकोर्ट के सामने मौखिक रूप से सहमति दी कि प्रशांत को हॉस्टल से नहीं निकाला जाएगा. प्रशांत ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया कि उनकी तीन मांगें हैं- पहली उनको फौरन रजिस्ट्रेशन दिया जाए, दूसरी उनका सुपरवाइजर फौरन बदला जाए और तीसरा उनका उत्पीड़न करने वालों के खिलाफ अनुशासनात्मक जांच शुरू की जाए.
आईसीसी के पास कोई लिखित शिकायत नहीं
फ़र्स्टपोस्ट ने महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न के मामलों को देखने के लिए यूनिवर्सिटी की आंतरिक संस्था आईसीसी से संपर्क किया. आईसीसी के पीठासीन अधिकारी ने कहा कि जांच चल रही है और गोपनीयता का प्रावधान होने की वजह से ऐसे संवेदनशील मामले में अंतिम फैसला होने तक इसका उल्लंघन करके आरोपी या मामले के बारे में कुछ नहीं बताया जा सकता.
फ़र्स्टपोस्ट द्वारा अधिकारी से यह पूछने पर कि प्रोफेसर जौहरी के मामले में इस प्रावधान को क्यों तोड़ दिया, जवाब मिलाः 'इस मामले में कोई शिकायतकर्ता, कोई प्रत्युत्तरदाता, कोई वकील आईसीसी के पास नहीं पहुंचा. हमारे पास जौहरी के खिलाफ कोई लिखित शिकायत नहीं आई.' अब सवाल है कि अगर एक तयशुदा ढांचा और प्रक्रिया है तो इन मुद्दों को सड़कों पर सुलझाने के लिए बाहरी शक्तियों की, चाहे वह राजनेता हो या एक्टिविस्ट, जरूरत ही क्यों पड़ती है?
प्रशांत की परेशानियों के बारे में जानने और जेएनयू की एक स्टूडेंट आरती दैव्या द्वारा अपने फेसबुक प्रोफाइल पर जारी की एक पोस्ट और एक अन्य स्टूडेंट की पोस्ट को देखने के बाद फ़र्स्टपोस्ट ने प्रोफेसर लामा से बात की, जो कि साउथ एशियन स्टडीज के सम्मानित विद्वान हैं और गोरखालैंड की मांग में काफी मुखर रहे हैं. उन्होंने कहा कि उन्हें हाईकोर्ट से जारी नोटिस की कॉपी नहीं मिली है और वह मुकदमे के तथ्यों से अनजान हैं. 'मैं नोटिस के आने का इंतजार कर रहा हूं. मैं आईसीसी के गोपनीयता के प्रावधान से बंधा हुआ हूं, इस कारण आईसीसी में दायर मेरे खिलाफ मामले के स्वरूप का विवरण आपको नहीं दे सकता,' उन्होंने कहा कि शिकायत देने वाली दो लड़कियां अपनी पीएचडी का फर्स्ट ड्राफ्ट जमा नहीं पाई थीं, इसलिए उन्होंने आरोप लगाया कि उनके द्वारा उनका मानसिक उत्पीड़न किया जा रहा है. प्रशांत का रजिस्ट्रेशन नहीं किए जाने के मामले में लामा ने कहा कि ऐसा उच्च अधिकारियों के साथ प्रशांत के मतभेदों के चलते उस दौरान हुआ, जब प्रो. लामा देश से बाहर सिचुआन यूनिवर्सिटी में थे, जहां वह डेढ़ साल से पढ़ा रहे हैं.
हम प्रो. खराट से भी मिले, जिनका कहना था कि वह अवकाश पर हैं और उन्होंने अभी हाईकोर्ट के नोटिस का अध्ययन नहीं किया है, और वह अपने खिलाफ आईसीसी में चल रही जांच में पेश हो रहे हैं. इस सबके बीच कैंपस में स्टूडेंट लीडर्स के पास साझा करने के लिए अपनी ही कहानियां हैं. जेएनयूएसयू प्रेसिडेंट गीता कुमारी ने कहा कि एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दी गई है और साथ में जोड़ा कि चूंकि उन्हें शिकायत का स्वरूप नहीं पता है और उन्हें नहीं पता कि पीड़ित क्या चाहते हैं, इसलिए साफ नहीं है कि क्या कार्रवाई की जा सकती है.
इस बीच जेएनएसयू के पूर्व जनरल सेक्रेटरी और एबीवीपी के सदस्य सौरभ शर्मा सवाल उठाते हैं कि यह मुद्दा स्टूडेंट यूनियन की प्राथमिकता में क्यों नहीं शामिल है? सौरभ शर्मा पूछते हैं कि 'प्रोफेसर जौहरी के निलंबन की मांग करने में पूरी यूनिवर्सिटी एकजुट थी और बीजेपी व आरएसएस से उनके संबंध को बार-बार मुद्दा बनाया जा रहा था. अब जबकि एक खास प्रोफेसर, जिनके खिलाफ कुछ स्टूडेंट्स रैली निकाल रहे हैं, वामपंथ की विचारधारा से जुड़ा निकला तो अनोखे किस्म की चुप्पी है. क्या इन स्टूडेंट्स के अधिकार की कोई कीमत नहीं है?'
यह कट्टरपंथी विचारधाराओं के बीच मध्यम मार्ग के अभाव का यह सबसे दुर्भाग्यशाली परिणाम है. 1996 में एक अमेरिकी भाषाविद व दार्शनिक जॉर्ज पी लैकॉफ ने एक किताब लिखी थी, मोरल पॉलिटिक्सः हाऊ लिबरल्स एंड कंजरवेटिव थिंक. जेएनयू की तयशुदा विचारधारा और सरकारी मशीनरी के कुछ फैसलों के संदर्भ में इस वाक्य को दोबारा गहराई से पढ़ने की जरूरत है. किताब का लेखक यह समझने के लिए कि क्यों लिबरल और कंजरवेटिव एकदम अलग जुबान बोलते हैं और एक दूसरे की चिंताओं को लेकर उलझन में पड़ जाते हैं ‘अवचेतन राजनीतिक वैश्विक दृष्टिकोण’ मॉडल का निर्माण करता है. एक शिकायत तो एकाकी कानूनी लड़ाई रह जाती है, जबकि दूसरी शिकायत के समर्थन में आंदोलन खड़ा हो जाता है और नेशनल हेडलाइंस बन जाती है. यह तथ्य बताता है कि पीड़ित व्यक्ति नहीं बल्कि उस शख्स की विचारधारा का महत्व है, जिसके खिलाफ उत्पीड़न की शिकायत की गई है.
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