जब मैं यह लिख रहा हूं, उस वक्त मेरे कान डीजे के शोर से फट रहे हैं. मेरी आत्मा इससे कहीं ज्यादा खतरनाक शोर से दहल रही है. आप सोचेंगे की मैं कोई कठ्मुल्ला हूं जो गाने-बजाने पर पाबंदी लगाना चाहता है. नहीं ऐसा कतई नहीं है, न मुझे किसी के शोर मचाने से गुरेज है और न ही नाचने-गाने से.
मुझे इस वक्त उस समाज पर अचंभा हो रहा है जिसका मैं खुद भी एक हिस्सा हूं. मैं इस वक्त जेएनयू के माही हॉस्टल के कमरा नंबर 104 में बैठा हूं. आज से ठीक एक साल पहले भी 14 अक्टूबर को मैं इसी कमरे में था जब कमरा नंबर 106 में रहने वाले नजीब अहमद को कुछ छात्रों ने पीटा था. इसकी अगली सुबह यानी 15 अक्टूबर को वो लापता हो गया. आज भी नजीब लापता है. और इस हॉस्टल में हर साल की तरह फ्रेशर्स मनाया जा रहा है, जिसमें नाच-गाना हो रहा है.
पर क्या मैं गुस्सा हूं? नहीं, मैं गुस्सा कतई नहीं हूं, मैं अपने आप से शर्मिंदा हूं.
हैं बाशिंदे इस ही बस्ती के हम भी, तो खुद पर भी भरोसा क्यों करें हम. -जॉन एलिया
मैं उस हॉस्टल का, उस यूनिवर्सिटी का, उस समाज का, और उस देश का हिस्सा हूं जिसका दूसरे इंसान के दुख से कोई सरोकार नहीं है.
इंसान की जान महज 'मुद्दा' है
मैं पहले भी नजीब के ‘मुद्दे’ पर लिखता रहा हूं. जी सही पढ़ा आपने, ‘मुद्दा’. नजीब ही क्यों इंसान की जान इस समाज में ‘मुद्दे’ से ज्यादा आखिर है भी क्या? कभी अखलाक़ का ‘मुद्दा’, कभी गौरी लंकेश का ‘मुद्दा’. बस जब तक की खुद हम या हमारे परिवार से कोई ‘मुद्दा’ नहीं बन जाता हम ‘मुद्दों’ की बात करते हैं. यह मान लेने में मुझे कोई हर्ज नहीं और किसी को भी नहीं होना चाहिए कि हम आज के दौर में इंसानी रिश्तों को भुला चुके हैं. भले ही हम कितना ही बोलते रहें कि सारे देशवासी भाई-बहन हैं, सारे हिंदू, सारे मुसलमान, सारे इंसान, सब एक समान हैं, पर असल में हम ऐसा नहीं मानते.
हमारे लिए हमारे घर की चारदिवारी में हमारे साथ रहने वाले पांच-दस लोग ही इंसान हैं बाकी लोगों के दुख हमारे दुख नहीं बल्कि ‘मुद्दा’ होते हैं.
15 अक्टूबर नजीब को लापता हुए एक साल पूरा हो जाएगा. इस एक साल में मैंने 6 लेख लिखे यह सवाल करते हुए कि चूक किसकी थी, गलती किसकी थी और जेएनयू छात्रसंघ का रोल क्या था? पर आज मैं किसी से सवाल नहीं करना चाहता. आज मैं खुद से सवाल कर रहा हूं क्योंकि मैं खुद उस समाज से अलग नहीं हूं जिसने नजीब को न सिर्फ लापता हो जाने दिया बल्कि उसे एक ‘मुद्दा’ बना कर छोड़ दिया.
मैं भी हूं एक 'मुजरिम'
पिछले 15 अक्टूबर से अब तक मेरा हर दिन पिछले दिन से ज्यादा उलझन में गुजरा है. क्या आप जानते हैं कि मैं जो यहां ये लेख लिख रहा हूं नजीब की मां के बुलाए गए प्रोटेस्ट में सिर्फ दो बार गया हूं. जी हां सिर्फ दो, लगभग बीस बार बुलाए गए प्रोटेस्ट में से सिर्फ दो बार. मैं दूसरी बार के बाद जा नहीं पाया. मैं उस औरत का रोता हुआ चेहरा देख कर सहम जाता हूं. मैं खुद को मुजरिम पाता हूं, उस औरत का और उसके उस बेटे का, जो एक साल से लापता है.
मैं कैसे उस मां का सामना करूं जिसके बेटे को मेरे हॉस्टल में होने के बावजूद कुछ लोगों ने पीटा. मैं कैसे उससे नजरें मिलाऊं जिसका बेटा मेरे रहते हॉस्टल से गायब हो गया. मैं कैसे उसके सामने जाऊं? मुझसे नहीं होता. ये अपराध बोध मुझे हर रोज मारता है. रात को सोते-सोते कई बार आंख खुलती है तो लगता है कि मैं भी एक मुजरिम हूं.
सच कहूं तो हममें से बहुत ही कम लोग ही या शायद कोई नहीं, नजीब के लापता होने को अपने भाई या बेटे के लापता होने जैसा मानते हैं. डीजे का शोर इस बात की गवाह है कि उसके हॉस्टल ने उसे भुला दिया है. छात्रसंघ चुनाव के बाद निकला जीत का मार्च ये बताता है कि खुशियां किसी नजीब के जाने से नहीं रूकती.
ईद पर हमारा नए कपड़े सिलवा लेना और दिवाली पर मिठाई खा लेना, ये बताता है कि नजीब हमारे घर का हिस्सा है ही नहीं. और सिर्फ नजीब ही क्यों, गौरी, अखलाक़, कलबुर्गी, पहलू इनमें से कोई भी हमारे घर का हिस्सा नहीं है.
खुद को धोखा देना बंद कीजिए
आप मुझसे कहेंगे कि नहीं आप का दिल तो ऐसे ही रोता है जैसे कि ये सब आपके भाई-बहन हों. तो आप एक बार जाकर पूछिए और देखिए उन घरों को जिनसे जवान लड़के गायब हो जाते हैं. जिनके बाप को भीड़ मार डालती है. जिनकी मां को गोलियों से भूना जाता है. क्या उनके घरों में त्योहारों के पकवान बनते हैं? दिल पर हाथ रखिए और सच कहिए अगर ये नजीब आपका सगा भाई होता तो क्या इस साल ईद और दिवाली पर नए कपड़े आप पहनते?
इसलिए खुद को धोखा देना बंद कीजिए कि आपको फर्क पड़ा. आज हमें सिर्फ खुद से फर्क पड़ता है. हमें अच्छा खाने को मिले, अच्छा पहनने को और कुछ फेसबुक पर डालने को ‘मुद्दा’. साथ में उस ‘मुद्दे’ के लिए सड़क पर एक बैनर लिए अपना फोटो खिंचवा लेंगे और उसको लगा कर अपना कर्तव्य पूरा कर लेंगे.
मैं भी कहां से कहां निकल आया. मैं बता रहा था कि मैं किस अपराध बोध से गुजर रहा हूं. मैं सोचता हूं जब नजीब की मां का सामना करने से इतना डरता हूं तो फिर उस दिन ‘जिसका वादा है, जो लौह-ए-अज़ल से लिखा है’, उस दिन आखिर कैसे खड़ा हो पाऊंगा.
जब ख़ुदा यह पूछेगा कि क्यों मैंने दूसरे इंसान को अपना भाई-बहन नहीं समझा, क्यों उनकी जिंदगी को जिंदगी न समझ एक मुद्दा बना दिया. अगर आप में से कोई जानता हो कि ख़ुदा को क्या जवाब देना है? कैसे मुंह दिखाना है? तो मुझे बताइए. मैं तो नजीब की मां को ही मुंह दिखाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है.
(लेखक उस ही हॉस्टल में रहते हैं जिसमें जेएनयू के छात्र नजीब लापता होने से पहले रहते थे)
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