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बाबरी विवाद: सलमान नदवी की दलीलें उनकी विचारधारा जैसी ही उलझी हुई

मस्जिद को कहीं और शिफ्ट करने की वकालत करने वाले इस कट्टरपंथी इस्लामी धर्मगुरु की मंशा और इरादों को हम कैसे समझें?

Updated On: Feb 14, 2018 01:00 PM IST

Tufail Ahmad Tufail Ahmad

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बाबरी विवाद: सलमान नदवी की दलीलें उनकी विचारधारा जैसी ही उलझी हुई

मौलाना सैयद सलमान हुसैनी नदवी की ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) से छुट्टी कर दी गई है. मौलाना नदवी AIMPLB के कार्यकारी सदस्य थे. उन्होंने बाबरी मस्जिद को अयोध्या से किसी और जगह शिफ्ट करने की वकालत की थी. उनकी यह दलील बोर्ड के ज्यादातर सदस्यों को नागवार गुजरी और नतीजे में मौलाना नदवी को विदाई दे दी गई.

मौलाना सैयद सलमान हुसैनी नदवी ने बाबरी मस्जिद को कहीं और शिफ्ट करने की बात कहकर सबको हैरानी में डाल दिया था. मस्जिद को कहीं और शिफ्ट करने की वकालत करने वाले इस कट्टरपंथी इस्लामी धर्मगुरु की मंशा और इरादों को हम कैसे समझें? 8 फरवरी को सैयद सलमान हुसैनी नदवी ने बेंगलुरु में आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक श्री श्री रविशंकर से मुलाकात की थी. इस मुलाकात में नदवी के साथ कुछ अन्य मुस्लिम नेता भी मौजूद थे.

बाद में नदवी ने दलील दी कि इस्लाम में किसी मस्जिद को स्थानांतरित (शिफ्ट) करने की इजाजत है. लिहाजा बाबरी मस्जिद को अयोध्या से किसी और जगह शिफ्ट किया जा सकता है. यानी नदवी बाबरी मस्जिद विवाद को अदालत के बाहर सुलझाने का रास्ता निकाल रहे थे. लेकिन नदवी के इस बयान के महज तीन दिन बाद यानी 11 फरवरी को उन्हें ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के कार्यकारी सदस्य के रूप में बर्खास्त कर दिया गया. मौलाना सलमान नदवी की बर्खास्तगी का फैसला हैदराबाद में आयोजित AIMPLB की तीन दिवसीय में लिया गया. इस बैठक के दौरान AIMPLB के सदस्यों ने एक राय होकर कहा कि एक मस्जिद को न तो किसी को भेंट में दिया जा सकता है, न ही उसे बेचा या शिफ्ट किया जा सकता है.

नदवी को माना जाता है जिहाद समर्थक धर्मगुरू

मौलाना सैयद सलमान हुसैनी नदवी को जिहाद समर्थक धर्मगुरू माना जाता है. उन्होंने 1974 में जमीयत शबाब-इल-इस्लाम (इस्लामी युवाओं का संगठन) की स्थापना की थी. यह एक कट्टरपंथी संगठन है, जो युवाओं को इस्लामी क्रियाकलापों से जोड़ने की कोशिश करता है. इसके अलावा यह संगठन गैर-मुस्लिमों पर यह आरोप लगाता है कि वह दुष्प्रचार करके मुसलमानों को गुमराह कर रहे हैं. जमीयत शबाब-इल-इस्लाम के मुताबिक, 'इस्लाम के खिलाफ दुष्प्रचार के झंडाबरदार यहूदी, ईसाई और बहुदेववादी (हिंदू) हैं. यह सभी समुदाय मुस्लिम युवाओं को इस्लाम की मुख्यधारा से दूर करने की कोशिश में दिन-रात लगे हुए हैं.'

इस संगठन ने 1989 में जामिया सईद अहमद शहीद नाम का एक मदरसा स्थापित किया था, जिसे आगे चलकर यूनिवर्सिटी बनाने की मंशा है. सलमान नदवी का कहना है कि, 'मदरसे का नाम उस इस्लामिक नायक के नाम पर रखा गया है, जिसने इस्लाम में सुधार और पुनरुद्धार आंदोलन को जिंदा किया था.' वैसे इस्लाम को मानने वाले सभी जिहादी समूह खुद को सुधारवादी ही कहते हैं.

आखिर यह सईद अहमद शहीद थे कौन- जिनकी तारीफ पाकिस्तान में हर रोज तालिबान करता है? सईद अहमद शहीद उत्तर प्रदेश के रायबरेली के रहने वाले थे. उन्होंने इस्लामी धर्मशास्त्रों का हाई स्कूल स्तर तक का भी अध्ययन नहीं किया था. इसके बावजूद सईद अहमद शहीद ने अपने साथी और अनुयायी शाह इस्माइल देहलवी के साथ मिलकर 19वीं सदी के शुरुआती वर्षों में भारत में पहली जिहाद शुरू की थी. सईद अहमद शहीद की यह जिहाद ब्रिटिश शासन के खिलाफ नहीं, बल्कि पंजाब में सिख महाराजा रणजीत सिंह (1780-1839) के खिलाफ थी. महाराजा रणजीत सिंह ने पंजाब पर 1801-1839 के दौरान शासन किया था. सईद अहमद शहीद को नायक मानने वाले मौलाना सलमान नदवी आईएसआईएस के सरगना अबु बकर अल-बगदादी के भी समर्थक हैं. साल 2014 में जब अल-बगदादी ने खुद को अमीर-उल-मोमिनीन (मुसलमानों का नेता) घोषित किया था, तब नदवी ने उसके लिए एक बधाई पत्र जारी किया था.

abu bakr al baghdadi

विवादित बयान की वजह से ओमान से निकाले जा चुके हैं

हालांकि, नदवी ने बाद में अल बगदादी को लेकर अपने बधाई संदेश पर कई बार सफाई देने की कोशिश की, लेकिन उनकी कट्टरपंथी शिक्षाएं और विचारधारा चिंता का सबब हैं. मिडिल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट के एक वीडियो के मुताबिक, नदवी को पिछले साल ओमान से निष्कासित कर दिया गया था. नदवी को ओमान से इसलिए निकाला गया था, क्योंकि उन्होंने सऊदी अरब के राजा और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के खिलाफ भड़काऊ बयान दिया था. नदवी ने ट्रंप को 'दलाल' कहा था. नदवी ने आगे कहा था: 'जो लोग उनके (ट्रंप) सहयोगी हैं- वह चाहे दो पवित्र जगहों (सऊदी अरब) के राजा हों या कोई और- उन्हें भी दलाल ही माना जाता है. यहूदियों और ईसाइयों को हमारे सहयोगियों के तौर पर नहीं गिना जाना चाहिए.'

वैसे अयोध्या विवाद को अदालत के बाहर निबटाने के लिए नदवी की कोशिशों की सराहना की जानी चाहिए. इस मामले में उनके बयान को संदर्भ में रखना होगा. बाबरी मस्जिद विवाद को अदालत के बाहर आपसी सहमति से सुलझाने और बाबरी मस्जिद मुद्दे पर सलमान नदवी की हैसियत को चार तरीकों से समझा जा सकता है.

क्या है बदलाव की वजह?

सबसे पहला तरीका, वक्त के साथ किसी भी इंसान में बदलाव संभव है. सलमान नदवी भी शायद अचानक बदले हुए ऐसे व्यक्ति हैं, जो अब भारत में सांप्रदायिक सौहार्द की वकालत करते नजर आ रहे हैं. सलमान नदवी के रवैए से जाहिर है कि उन्होंने बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर काफी वैचारिक मंथन किया है. इसके अलावा ऐसा प्रतीत होता है कि नदवी 8 फरवरी से पहले दो बार और भी श्री श्री रविशंकर के साथ बैठक कर चुके हैं. नदवी और श्री श्री रविशंकर की पहली दो बैठकें 20 जनवरी और 3 फरवरी को हुई थीं. लेकिन उन बैठकों को गुप्त रखा गया. हालांकि, नदवी के पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए उनकी सफाई कमजोर नजर आती है.

दूसरी संभावना यह है कि 2017 विधानसभा चुनावों के दौरान उत्तर प्रदेश के दौरे पर मैंने लखनऊ में नदवी से मुलाकात की थी. मुलाकात के दौरान मौलाना नदवी ने मेरे साथ बहुत अच्छे से बात की थी. उन्होंने मेरे सभी सवालों का संक्षिप्त लेकिन स्पष्ट जवाब दिया था. लेकिन जब मैंने उनसे अबु बकर अल-बगदादी को बधाई वाले पत्र का जिक्र किया तो वह तमतमा उठे. उन्होंने सफाई देते हुए कहा कि: 'मैंने इस बात पर अबू बकर अल-बगदादी को बधाई दी थी, क्योंकि उसने शियों के जालिमाना मज़ालिम (इराक में शियाओं के क्रूर अत्याचारों) के खिलाफ जीत दर्ज की थी.' सलमान नदवी का मानना है कि शिया लोग मुसलमान नहीं हैं. शियों को लेकर ज्यादातर बरेलवी/सूफी समूह की सोच भी नदवी के जैसी ही है. शायद यह सबसे मजबूत वजह हो सकती है कि उन्होंने बाबरी मस्जिद को कहीं और शिफ्ट करने का सुझाव क्यों दिया.

सलमान नदवी ने एक उर्दू मासिक पत्रिका 'अल्लाह की पुकार' के दिसंबर 2017 के अंक के एक संपादकीय को अपने फेसबुक पेज पर पोस्ट किया था. संपादकीय में बताया गया है कि बाबरी मस्जिद को मुगल शासक बाबर ने नहीं बल्कि अवध में उसके गवर्नर मीर बाकी ताशकंदी ने बनवाया था. मीर बाकी शिया समुदाय से ताल्लुक रखता था. लिहाजा अयोध्या की मस्जिद को 'मीर बाकी मस्जिद' के नाम से जाना जाता था, न कि बाबर के नाम से. एक बार यह साफ हो जाने पर कि मस्जिद का संबंध शिया समुदाय से है, तो नदवी के लिए यह स्वीकार्य करना आसान हो जाता है कि वह मुसलमानों की मस्जिद है ही नहीं क्योंकि नदवी के मुताबिक शिया लोग मुसलमान ही नहीं हैं.

muslim board

तीसरी वजह, एक बार यह स्थापित हो जाए कि बाबरी मस्जिद अगर मुस्लिम मस्जिद नहीं है, तो पत्रिका के संपादकीय के मुताबिक इस्लामी शरिया से मस्जिद को दूसरी जगह पर शिफ्ट करने की इजाजत मिल जाती है. लेकिन तर्क यह भी है कि क्या किसी मुस्लिम मस्जिद को भी शिफ्ट किया जा सकता है या नहीं.

संपादकीय में सवाल पूछे गए हैं कि,

1-क्या अन्य मस्जिदों की तुलना में बाबरी मस्जिद (मीर बाकी मस्जिद) का कोई विशेष धार्मिक दर्जा है?

2-क्या अयोध्या में इबादत के लिए मुसलमानों पास कोई और मस्जिद नहीं है?

3-क्या असाधारण परिस्थितियों में किसी मस्जिद को दूसरी जगह पर शिफ्ट किया जा सकता है?

4-अगर किसी मस्जिद में इबादत करना संभव नहीं है, तो क्या मस्जिद के तौर पर उसकी मान्यता बरकरार रहती है?

5-कुरान और हदीस (पैगंबर मुहम्मद की रीतियों) हमें इस संबंध में क्या निर्देश देते हैं?

6-इस्लामिक न्याय शास्त्र इस बारे में क्या कहता है?

इस्लामी शरीयत का तर्क देते हुए संपादकीय में कई निष्कर्ष निकाले गए हैं. इनमें से एक निष्कर्ष यह भी है कि इस्लाम में इबादत जमीन के लिए नहीं बल्कि अल्लाह के लिए की जाती है. इस बात का जिक्र बाबरी मस्जिद की जमीन के संदर्भ में किया गया था. उर्दू पत्रिका के संपादकीय में जितने भी निष्कर्ष निकाले गए उनका मुख्य तर्क यही रहा कि बाबरी मस्जिद को शिफ्ट किया जा सकता है.

नदवी ने इस संपादकीय को अपने फेसबुक पेज पर पोस्ट किया, इसका मतलब यही है कि वह ऐसी पहल का समर्थन करते हैं. हालांकि, ऐसी किसी भी पहल का विचार निश्चित रूप से बाकी इस्लामी धर्मगुरुओं के विचारों के एकदम खिलाफ है.

चौथी वजह, सलमान नदवी बाबरी मस्जिद विवाद को अदालत के बाहर निबटाने को लेकर क्यों अडिग हैं, इसकी एक अहम वजह हो सकती है: मस्लेहत (सुविधा या विवेक). इस्लामी धर्मशास्त्र में मस्लेहत को सभी प्रमुख विद्वान स्वीकार करते हैं. इस सिद्धांत का लंबे समय से पालन भी किया जा रहा है. अलीगढ़ से प्रकाशित एक त्रैमासिक तहकीकात-ए-इस्लामी में मस्लेहत के इस सिद्धांत पर काफी चर्चा हुई थी.

इमाम इब्न तैमियाह और शाह वलिउल्लाह देहलवी जैसे प्रमुख इस्लामिक विद्वानों ने इस सिद्धांत को स्वीकार किया है. ऐसा संभव है कि सलमान नदवी भी इस सिद्धांत से प्रेरित हों. और नदवी को लगता हो कि अयोध्या विवाद को हल करने के लिए यह सिद्धांत उपयोगी साबित हो सकता है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कुछ ऐसी ही वजहों से 1947 में जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक मौलाना अबुल अला मौदूदी समेत ज्यादातर इस्लामी धर्मगुरुओं ने भारत के विभाजन का विरोध किया था.

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