आर्टिकल 35ए की वैद्यता को लेकर शुरू हुई बहस दिल्ली के एनजीओ 'वी द सिटीजंस' के 2014 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करने के बाद हुई है. इसमें यह कहा गया कि तब इसे कुछ समय के लिए लागू किया गया था.
यह जरूरी है कि इस मुद्दे पर किसी भी सार्थक नतीजे के लिए हम इसके विधायी इतिहास को देखें. 1954 में राष्ट्रपति के आदेश से आर्टिकल 35ए को भारत के संविधान में जोड़ा गया था. राष्ट्रपति द्वारा आर्टिकल 370 के तहत जम्मू-कश्मीर राज्य में इसे अस्थायी प्रावधान के रूप में जारी किया था. 1954 में राष्ट्रपति का यह आदेश इस तरह के आदेशों का सबसे विस्तृत विवरण था. इसे 1952 में भारत सरकार और जम्मू-कश्मीर शासन के बीच हुए दिल्ली समझौते के तहत एजेंडा लागू करने के लिए जारी किया गया था.
राष्ट्रपति के इस आदेश के साथ भारत के संविधान में आर्टिकल 35ए को भी शामिल कर लिया गया. यहां यह जरूरी है कि संविधान के अलावा किसी भी कानूनी दस्तावेज में प्रावधानों को जोड़ने या हटाने के लिए उस कानूनी दस्तावेज में संशोधन की आवश्यकता पड़ती है. संविधान में इसके लिए एक निश्चित और स्थापित प्रक्रिया है जिसके तहत संशोधन किया जा सकता है. आर्टिकल 35ए को लागू करने में आर्टिकल 368 के तहत जिक्र की गई इस प्रक्रिया के साथ छेड़छाड़ की गई है.
आर्टिकल 368 के तहत संविधान संशोधन की इस प्रक्रिया में देश की संसद और कुछ मामलों में राज्यों के विधानसभा को भी शामिल किया जाता है. बहरहाल, आर्टिकल 35ए को राष्ट्रपति ने, अपने विशेष शक्तियों और अधिकारों का उपयोग कर, संविधान में डालवाया था. इस तरह यह पूरी प्रकिया संसद के जरिए लागू नहीं करवाई गई थी.
भारत के राष्ट्रपति ने इस मामले में संसद को जानकारी दिए बिना विधायी शक्तियों का उपयोग किया. देश के संविधान की योजना के तहत, राष्ट्रपति कार्यकारी के मुखिया हैं और आर्टिकल 123 को छोड़कर उनकी भूमिका बहुत सीमित है. इसलिए, 1954 का राष्ट्रपति का यह आदेश संविधान के आर्टिकल 368 का भी उल्लंघन है.
आर्टिकल 35ए को लागू करने की प्रक्रिया अवैध और हड़बड़ीपूर्ण
आर्टिकल 35ए को लागू करने में अपनाई गई अवैध और हड़बड़ीपूर्ण प्रक्रिया सबके सामने है. आर्टिकल 35ए के प्रावधानों के तहत जम्मू-कश्मीर के निवासियों को विशेष अधिकार दिए गए हैं. साथ ही राज्य सरकार को भी यह अधिकार हासिल है कि वो किसे अपना स्थायी नागरिक माने और उन्हें विशेष सहूलियतें, लाभ और अधिकार दे. इस विशेष कानून के तहत राज्य में बाहरी कोई भी व्यक्ति संपत्ति (जमीन) नहीं खरीद सकता, न ही वो यहां सरकारी नौकरी कर सकता है. साथ ही वो यहां चलाए जा रहे सरकारी योजनाओं, छात्रवृत्ति (स्कॉलरशिप) का भी लाभ नहीं ले सकता है.
इसलिए इन प्रावधानों के लागू होने से देश में नागरिकों के दो वर्गों (क्लास) के निर्माण को बढ़ावा मिलता है. जिसमें एक वर्ग को जम्मू-कश्मीर में विशेष अधिकार हासिल है और दूसरे को नहीं. यह संविधान के आर्टिकल 14 की मूल भावना के विरुद्ध है, जो कहता है कि राज्य अपने नागरिकों के बीच लिंग, जाति, पंथ, धर्म या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा. इसमें यह भी कहा गया है कि राज्य किसी भी व्यक्ति के कानून के सामने समानता से इनकार नहीं कर सकता और भारत के भौगोलिक क्षेत्र के भीतर उसे कानून सम्मत सुरक्षा नहीं दे सकता.
दूसरे शब्दों में कहें तो, इसका मतलब है कि कोई भी व्यक्ति या लोगों का समूह विशेष अधिकार की मांग नहीं कर सकता है. सबसे महत्वपूर्ण बात, आर्टिकल 14 'व्यक्तियों' का जिक्र करता है न कि 'नागरिकों' का. इसलिए, किसी व्यक्ति के लिए आर्टिकल 14 के तहत अधिकार के आह्वान (मांग) के लिए उसका भारत का नागरिक होना भी आवश्यक नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट ने कई अवसरों पर कहा है कि मौलिक अधिकार हमारे संविधान का सबसे पवित्र हिस्सा है, और किसी भी परिस्थिति (हालत) में इसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मौलिक अधिकार भारत के संविधान के मूल संरचना का हिस्सा भी हैं, इसमें संशोधन नहीं किया जा सकता है. आर्टिकल 368 के जरिए भी संविधान में संशोधन नहीं किया जा सकता. इसलिए, आर्टिकल 35ए आर्टिकल 14 का सीधे तौर पर उल्लंघन है.
NGO की दाखिल याचिका पर केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में जवाब देने से इनकार किया
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इस पर राज्य सरकार के साथ उचित तरीके से असहमति जताई है. सुप्रीम कोर्ट में एनजीओ की दाखिल याचिका पर केंद्र ने जवाब देने से इनकार किया है. इसका अर्थ हुआ कि यदि आर्टिकल 35ए को हटा लिया जाता है तो जम्मू-कश्मीर में भारतीय नागरिक और अन्य राज्यों में रहने वाले नागरिकों के बीच अधिक कानूनी समानता होगी. राजनीतिक दृष्टि के लिहाज से भी, जम्मू-कश्मीर के लिए ऐसे विशेष कानूनी प्रावधानों का होना अप्रत्यक्ष रुप से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस बात की स्वीकृति है कि राज्य एक विवादित क्षेत्र है, इसलिए, देश के भीतर इसे विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त है.
यह उचित समय है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में संज्ञान ले. पहली नजर में यह राजनीतिक लाभ के मकसद से बना कानून और अवसरवादिता के अलावा कुछ नहीं दिखता, जिसे अवैध प्रक्रिया के जरिए एक अतिरिक्त संवैधानिक तरीके से लागू कर दिया गया था. एनजीओ की यह याचिका आर्टिकल 35ए को अल्ट्रा वायर्स घोषित करने का एक स्वागतयोग्य कदम है.
(लेखक मुंबई स्थित नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में कानून पढ़ाते हैं और आईआईटी बॉम्बे में रिसर्च फेलो के तौर पर कार्यरत हैं)
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