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क्या मेनस्ट्रीम मीडिया और सोशल मीडिया का फर्क मिटता जा रहा है?

पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर उठने वाले सवाल सिर्फ मीडिया समूहों के लिए नहीं है. सवालों के घेरे में पूरा सिस्टम और समाज है

Updated On: Jun 25, 2018 10:17 AM IST

Rakesh Kayasth Rakesh Kayasth

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क्या मेनस्ट्रीम मीडिया और सोशल मीडिया का फर्क मिटता जा रहा है?

मौजूदा केंद्र सरकार की सबसे योग्य मंत्रियों में शामिल सुषमा स्वराज आजकल ट्रोल्स के निशाने पर हैं. वजह है आनन-फानन कार्रवाई करके यूपी की एक महिला की मदद करना. तन्वी सेठ नाम वाली महिला ने यह शिकायत की थी कि पासपोर्ट ऑफिस में उन्हे सिर्फ इसलिए भेदभाव का शिकार होना पड़ा क्योंकि उनके पति मुस्लिम है.

तन्वी ने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को ट्वीट किया. इसके बाद विदेश मंत्रालय ने फौरन कार्रवाई की और तन्वी को उनका पासपोर्ट मिल गया. लेकिन कहानी में पेंच उस वक्त आया जब भेदभाव के आरोपी पासपोर्ट अधिकारी ने यह कहा कि तन्वी ने पासपोर्ट फॉर्म में कुछ जानकारियां छुपाई, इसलिए पूछताछ करना उनका फर्ज था. उन्होंने तन्वी के साथ कोई बदसलूकी नहीं कि बल्कि वे सिर्फ अपना काम कर रहे थे.

आरोपी अधिकारी विकास मिश्रा का बयान आते ही हजारों लोग मुस्लिम तुष्टिकरण का इल्जाम लेकर सुषमा स्वराज पर टूट पड़े. तन्वी का आरोप और पासपोर्ट अधिकारी की सफाई इस मामले के दो पक्ष हैं. कौन सही है और कौन गलत यह बात जांच पूरी होने के बाद सामने आएगी. इस लेख का विषय तन्वी पासपोर्ट प्रकरण नहीं बल्कि इससे जुड़ा मीडिया कवरेज और इस बहाने मौजूदा दौर की पत्रकारिता पर चर्चा है.

गैर-जिम्मेदार जल्दबाजी भारतीय मीडिया का स्वभाव

मौजूदा दौर में जब हम मीडिया की बात करते हैं तो उसका सीधा रेफरेंस इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से होता है. हालांकि प्रिंट मीडिया की भूमिका कम नहीं हुई है, खासकर हिंदी और बाकी क्षेत्रीय भाषाओं में छपने वाले अख़बारों की. डिजिटल माध्यम भी बहुत तेजी से पांव पसार रहा है. लेकिन इन सच यह है कि पिछले डेढ़ दशक में समाज पर सबसे ज्यादा प्रभाव इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का रहा है. इसलिए सबसे ज्यादा बात न्यूज़ चैनलों की होती है.

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इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के काम करने के तौर-तरीके हमेशा से से सवालों के घेरे में रहे हैं. पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों को ना मानना, ख़बर ब्रेक करने की हड़बड़ी में आधे-अधूरे तथ्य पेश करना, सतर्कता ना बरतना, गलती होने पर माफी ना मांगना, फूहड़ तरीके से निजता का हनन और कवरेज़ के दौरान अंसवेदनशीलता बरतना. दर्जनों ऐसी बातें हैं, जिन्हें लेकर दर्शकों को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से शिकायतें रही हैं.

सेल्फ रेगुलेशन के तमाम दावों के बावजूद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के काम करने तौर-तरीको में कोई बदलाव नहीं आया है. डिजिटल युग की शुरुआत के बाद आजकल खबरें न्यूज़ चैनलों से पहले ट्विटर और फेसबुक पर ब्रेक होती हैं. इस लिहाज से ख़बरें ब्रेक करने के मामले में चैनलों की भूमिका अगर खत्म नहीं हुई तो कम ज़रूर हो गई है. नयी परिस्थितियों में चैनलों के लिए मौका अपनी भूमिका को पुनर्परिभाषित करने है.

सोशल मीडिया पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है. इसलिए वहां आनेवाली ख़बरों की वैधता हमेशा संदिग्ध रहेगी. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास एक संपादकीय ढांचा रहा है. ऐसे में न्यूज़ चैनलों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे तथ्यों की जांच-परख के बाद ख़बर जारी करें. आखिर इस देश में कोई तो होगा जो तथ्यों की जांच के बाद उसे वैधता प्रदान करेगा. हालांकि कुछ चैनलों ने वायरल वीडियोज़ की पड़ताल की मुहिम शुरू की है. लेकिन सच यह है कि इस देश के ज्यादातर न्यूज़ चैनल अपने कवरेज़ के कई मामलों में सोशल मीडिया की तरह ही अविश्वसनीय नज़र आते हैं. वे ख़बरें और अपनी बहस के मुद्धे भी ट्रेडिंग टॉपिक के आधार पर चुनते हैं. सनसनी पैदा करते हैं और बिना किसी फॉलोअप के टीआरपी बटोरकर ख़बर से बाहर निकल आते हैं.

प्रतीकात्मक तस्वीर

प्रतीकात्मक तस्वीर

तन्वी सेठ प्रकरण के कवरेज में लापरवाही

पासपोर्ट अधिकारी के कथित भेदभाव को लेकर तन्वी सेठ ने सीधे मीडिया को एप्रोच किया. उन्होने अधिकारी पर कुछ आरोप लगाए. कई न्यूज़ चैनलों ने ख़बर को हाथों-हाथ लपका और उनकी कहानी पूरे देश में प्रसारित कर दी.

अपनी आदत के मुताबिक एंकरों ने सरकार से लेकर सिस्टम तक को खूब लताड़ लगाई. उस वक्त किसी ने कहानी के दूसरे पहलू पर किसी ने गौर नहीं किया. यह पत्रकारिता का बुनियादी सिद्धांत है कि आप कोई भी ख़बर उस वक्त जारी नहीं कर सकते, जबकि मामले से जुड़े दोनों लोगो के पक्ष सामने ना आ जाएं. किसी एक पक्ष की कहानी को ब्रह्मवाक्य मानकर उसे राष्ट्रीय संकट बना देना सीधे-सीधे लापरवाही है.

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यह लापरवाही राष्ट्रीय मीडिया का स्थायी स्वभाव है. कई ऐसी ख़बरें आपको अलग-अलग चैनलों पर नज़र आ जाएंगी, जहां सिर्फ एक पक्ष होता है. दूसरे पक्ष की कहानी सिरे से गायब होती है. तन्वी सेठ प्रकरण में यही हुआ.

लेकिन बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं हुई. जिस तरह कुछ चैनलों ने तन्वी के इल्जाम को पूरी तरह सच माना उसी तरह आरोपी अधिकारी विकास मिश्रा का बयान सामने आने के बाद मीडिया के एक तबके ने उन्हें हीरो बना दिया. स्टूडियो में बैठे एंकर चीख-चीख कर यह कहने लगे कि तन्वी ने अपना पासपोर्ट बनवाने के लिए ड्रामा किया और पासपोर्ट अधिकारी पूरी तरह सही हैं.

कायदे से मीडिया काम दर्शकों के सामने तथ्य रखना है, ट्रायल करके फैसला सुनाना नहीं. लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यह काम लगातार करता आया है. तन्वी प्रकरण पर अगर आप हिंदी अख़बारों के कवरेज़ पर गौर करेंगे तो आपको समझ आएगा कि ख़बर बेचने की राष्ट्रीय प्रतियोगिता चल रही है, जिसमें पत्रकारिता के मानदंड पीछे छूट चुके हैं. कई अख़बारों ने इस ख़बर अपने कथित या तथाकथित सूत्रों के हवाले से नमक मिर्च लगाकर इस तरह पेश किया जो उनके बड़े पाठक वर्ग को पसंद आए. कुछ इसी तरह का कवरेज़ हम बलात्कार और हत्या जैसी संवेदनशील घटनाओं के मामले में भी देख चुके हैं.

बेजान नियामक संस्थाएं और बेलगाम कवरेज

भारतीय मीडिया को लेकर आवाम की राय कभी अच्छी नहीं रही है. लेकिन पिछले कुछ साल में यह बहुत ज्यादा खराब हुई है. अगर लोकतांत्रिक संस्थाओं के पतन की बात होगी तो सबसे पहले एक इंस्टीट्यूशन के तौर पर मीडिया के पराभव का जिक्र आएगा.

प्रिंट मीडिया के रेगुलेशन के लिए प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया नाम की संस्था है. एक समय यह संस्था शिकायत मिलने पर अपनी तरफ से पूरी छानबीन करती थी. दोषी पाए जाने वाले अखबार की संस्था औपचारिक रूप से निंदा करती थी. प्रेस काउंसिल की प्रेस विज्ञप्ति में सब कुछ विस्तार से बताया जाता था कि अख़बार के खिलाफ क्या शिकायत थी और जांच में क्या पाया गया है.

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इस विज्ञप्ति को आरोप के घेरे में आए अखबार समेत तमाम समाचार पत्र छापते थे. लेकिन बदलते वक्त के साथ प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया लगभग एक निर्जीव संस्था बन गई. इससे जुड़े लोग बताते हैं कि काउंसिल के निंदा प्रस्ताव वाली प्रेस विज्ञप्ति को अखबारों ने छापना तक बंद कर दिया.

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बेलगाम कवरेज का सवाल उठा तो सरकार ने इसकी नकेल कसने की तैयारियां शुरू की. प्राइवेट चैनलों के मालिकों की संस्था एनबीए ने दलील दी कि लोकतंत्र के लिए मीडिया का स्वतंत्र होना ज़रूरी है. सरकारी दखल नहीं चलेगा. अगर कुछ शिकायतें हैं तो उन्हे दूर करने के लिए हम सेल्फ रेगुलेशन लाएंगे. इसके लिए एनबीए की पहल पर सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जे.एस. वर्मा (अब दिवगंत) की अध्यक्षता में सेल्फ रेगुलेशन की एक संस्था एनबीएसए का गठन किया गया. सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधियों के अलावा प्रमुख न्यूज़ चैनलों के संपादक भी इस संस्था का हिस्सा बने.

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एनबीएसए का काम दर्शकों से मिली शिकायतों की छानबीन करना था. संस्था ने इस बात की व्यवस्था रखी थी कि अगर कोई चैनल आपत्तिजनक कंटेट चलाने का दोषी पाया जाता है, तो उसे माफी मांगनी पड़ेगी. शुरू में इस संस्था ने सक्रियता दिखाई और कई बड़े चैनलों को लगातार माफीनामा चलाना पड़ा. लेकिन इसके बावजूद एनबीएसए रेगुलेशन की प्रभावी संस्था नहीं बन पाई. सदस्य चैनलों ने ही इस संस्था को ठेंगा दिखाना शुरू कर दिया. कुछ चैनल तो माफी का सवाल आते ही इस संस्था से अलग हो गए. अंदाजा लगाया जा सकता है कि साफ-सुथरे कंटेट के प्रति प्रतिबद्धता का स्तर क्या है?

अलग-अलग डिजिटिल प्लेटफॉर्म के आने से न्यूज़ वेबसाइट्स की संख्या और लोकप्रियता बहुत तेजी से बढ़ रही है. इसी रफ्तार से बढ़ रही हैं, वेब पोर्टल्स के खिलाफ शिकायतें. अक्सर यह कह जाता है कि संपादक नाम की संस्था लगातार कमज़ोर हुई है. कुकुरमुत्ते की तरह उगे बहुत से न्यूज़ पोर्टल्स को देखकर लगता है कि ये बिना किसी संपादक के ही चल रही हैं. भड़काउ कंटेट से लेकर फोटोशॉप की गई तस्वीरों का इस्तेमाल आम बात है.

दिलचस्प बात यह है कि इस देश में वेबसाइट्स के रेगुलेशन के लिए अभी तक कोई संस्था नहीं है. सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने वेबसाइट्स और न्यूज़ पोर्टल्स के नियम-कायदे तय करने के लिए 10 सदस्यों वाली एक कमेटी बनाई है. कमेटी की रिपोर्ट कब आएगी और इसमें क्या सिफारिशे होंगी अभी इस बारे में कहना मुश्किल है.

डिजिटल प्लेटफॉर्म की स्थिति अपने आप में बहुत अलग है. यहां प्रिंट और टीवी के कंटेट दोनों हैं. फिर इनका रेगुलेशन कौन करेगा? क्या कोई तीसरी संस्था बनाई जाएगी? अगर बन भी गई तो क्या गारंटी है कि बड़ी तादाद में परोसे जा रहे झूठे, भड़काऊ और मानहानि करने वाले कंटेट पर अंकुश लगाया जा सकेगा?

कुछ मीडिया विशेषज्ञ प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटिल संस्थानों के लिए एक मीडिया काउंसिल बनाने की सुझाव देते हैं. यह कहा जाता है कि अगर काउंसिल को संस्थानों को लाइसेंस देने या रद्ध करने का अधिकार होगा तो उसके फैसले बाध्यकारी होंगे और इससे पत्रकारिता के स्तर में सुधार आएगी. लेकिन मौजूदा परिस्थितियो में यह बात दूर की कौड़ी लगती है.

FAKE NEWS

पेड न्यूज़, फेक न्यूज़ , एजेंडा न्यूज़ और उससे आगे…

पेड न्यूज़ एक अंतरराष्ट्रीय समस्या है. दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है, जहां इसे लेकर चिंता ना हो. पेड न्यूज़ का सीधा मतलब पैसे लेकर किसी के पक्ष में या किसी के खिलाफ ख़बरें चलाना है. आलोचना के बावजूद भारत में यह ट्रेंड लगातार बढ़ा है.

फेक न्यूज़ भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आने बाद से लगातार बढ़ा है. फर्जी स्टिंग ऑपरेशन जैसे मामलों कुछ चैनल ऑफ एयर तक हो चुके हैं. सोशल मीडिया के विस्तार के बाद यह लाइलाज मर्ज बनता जा रहा है. दुनिया के कुछ बड़े सर्च इंजन लोगों को इस बात की ट्रेनिंग दे रहे हैं कि फेक न्यूज़ की पहचान किस तरह करें. लेकिन बीमारी इस कदर फैल चुकी है कि इसका ठीक होना मुश्किल नज़र आता है.

एजेंडा न्यूज़ भी एक बड़ी बीमारी है. एजेंडा न्यूज़ का सीधा मतलब है कि किसी ख़बर का केवल वही पहलू दिखाना जिससे किसी खास पक्ष को फायदा हो. मान लीजिए कहीं पुलिस मुठभेड़ होती है. पुलिस ने दावा किया कि मारे गए लोग अपराधी थी. मरने वालों के परिवार वालों कहना हो कि वे मजदूर थे और उन्हें आधी-रात को घर से उठाया गया था.

मीडिया सिर्फ पुलिस का पक्ष दिखाये या सिर्फ उनके परिवार वालों का पक्ष दिखाये तो यकीनन उसे एजेंडा न्यूज़ माना जाएगा. एजेंडा न्यूज़ किसी खास समूह, संस्थान या विचारधारा के साथ लगाव का नतीजा भी हो सकता है. यह ज़रूरी नहीं है कि उसके लिए पैसे लिए या दिए हो. लेकिन मामला चाहे जो भी हो, ये स्थितियां लोकतांत्रिक समाज के लिए बेहद खतरनाक हैं.

मीडिया से जुड़े सवाल बहुत बड़े और जटिल हैं. किसी एक लेख में तमाम सवालों को समेट पाना संभव नहीं है. कुछ लोग कॉरपोरेट मीडिया को तमाम बुराइयों की जड़ मानते हैं. लेकिन यह बात पूरी तरह सच नहीं है. दुनिया में बहुत से ऐसे मीडिया समूह हैं, जिनकी मिल्कियत कॉरपोरेट के हाथ में है. लेकिन पत्रकारिता की गुणवत्ता से जुड़े मानकों पर वे पूरी तरह खरे उतरते हैं. उनके काम करने का तरीका पारदर्शी है. अगर गलती हो जाए तो वे अपने पाठक या दर्शकों से माफी भी मांगते हैं. सवाल यह है कि यह सब भारत में क्यों नहीं हो सकता?

जवाब सिर्फ चंद संपादकों को नहीं बल्कि पूरे समाज को देना पड़ेगा. अक्सर यह कहा जाता है कि लोकतंत्र में जनता को वैसी ही सरकार मिलती है, जिसकी वह हकदार होती है. यही बात मीडिया पर भी लागू होती है. जनता अगर घटिया कंटेट की सराहना बंद कर दे और झूठ फैलाने वाले समाचार माध्यमों का बहिष्कार करे तो हालात बदल सकते हैं. लेकिन क्या फिलहाल ऐसा होना मुमकिन लगता है? यकीनन ज्यादातर लोगों का जवाब नकारात्मक होगा.

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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