दिल्ली के रेलवे स्टेशन या बस अड्डे पर अगर रहमाना फ़ारुखी आपसे कभी बिना बुर्के के भी टकरा गईं तो आप एक पल के लिए भी नहीं रुकेंगे.
वैसे भी बुर्के में सस्ती चप्पल, धूल से सने फटे-पुराने कपड़ों में किसी बूढ़ी औरत के लिए कौन रुकता है.
यूं तो रहमाना किसी दौलतमंद खानदान से नहीं हैं लेकिन उनके घरवालों ने उनको पढ़ाया लिखाया और किसी मिडिल क्लास परिवार की तरह उनकी शादी एक ऐसे आदमी से कर दी जो ठीक लगता था.
बस यहीं से रहमाना की जिन्दगी उस नर्क की ओर फिसलती चली गई जहां वो बगैर किसी गलती के भी आज मजबूर हैं.
रहमाना के पति दिल्ली में लाल किले पर हुए आतंकी हमले के दोषी हैं. रहमाना भी पति के साथ पकड़ी गईं पर बाद में बरी कर दी गईं.
वो अब दर-बदर भटक रही हैं. रहमाना से संजीव कुमार सिंह चौहान ने दिल्ली की सड़क पर मुलाकात की और उनसे उनकी कहानी जानी.
रहमाना की जुबानी उनकी अपनी कहानी
मेरा नाम रहमाना फ़ारुखी है. मुझ पर लाल किले के आतंकवादी हमले के षडयंत्रकारियों का साथ देने का आरोप लगा था. दिल्ली पुलिस ने मुझे गिरफ्तार किया. मैं पूरे पांच साल चार महीने चार दिन तिहाड़ जेल की सलाखों में कैद रही. निचली अदालत से मुझे 7 साल की सजा हुई थी.
हाईकोर्ट ने तमाम आरोपों से मुझे बरी कर दिया. उम्मीद थी कि बरी होने के बाद जिंदगी इज्जत से गुजार लूंगी. जेल जाने से पहले तक जिन रिश्तेदारों की मैं चहेती हुआ करती थी, वे सब मुझसे कतराने लगे.
मेरी बूढ़ी मां सोचती थी कि बेटी जब बरी हो चुकी है, तो कभी न कभी रिश्तेदार-समाज मेरी बेटी को अपना ही लेगा. बूढ़ी मां कमर युसूफ इसी उम्मीद में जी रही थीं लेकिन 2014 में वह परदा (इंतकाल) कर गईं.
नाते हैं नातों का क्या?
भाई-बहन, चाचा-ताऊ सबके अपने-अपने परिवार और अपनी जिम्मेदारियां हैं. वे सब अपने परिवारों में खुश हैं. अपने कुनबे में एक अदद मैं ही हूं जो इस हाल में है.
मैंने सोचा वक्त जख्म भर देगा. जेल काटकर लौटी हूं. आज नहीं तो कल हालात जरूर बदलेंगे.
आज जो लोग मुझसे नफरत कर रहे हैं. आने वाले कल में हकीकत से वाकिफ होने पर मुझे अपना लेंगे. लेकिन वैसा नहीं होता जैसा इंसान सोचता है. मेरे साथ भी वैसा नहीं हुआ.
कम नहीं हुईं दुश्वारियां
न मेरे जख्म भरे. न ही मेरे अपने ‘अपनी’ सोच बदल सके. लाख कोशिशों के बाद भी मैं अपनी दुश्वारियां कम करने में नाकाम रही हूं.
दर-ब-दर भटक रही हूं. जेल से बाहर आए 10 साल से ज्यादा वक्त गुजर चुका है. अदालत से बाइज्जत बरी हो चुकी हूं, लेकिन समाज में इज्जत नहीं मिल पाई.
‘मेरे वालिद नबाव युसुफ फ़ारुखी मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) के रहने वाले थे. पहली बीबी के इंतकाल के बाद उन्होंने दूसरी शादी मेरी मां क़मर युसुफ़ से की. दूसरी बीबी से मेरे वालिद को चार बहने और एक भाई हुआ. मैं चौथे नंबर की औलाद थी.
वालिद सन 1989 में परदा (स्वर्गवासी) कर गए. हम लोग मुरादाबाद के नवाब मज्जू खां के खानदानी हैं.
मुरादाबाद के महाराजा हरिश्चंद्र डिग्री कॉलेज से मेरी ग्रेजुएशन की तालीम पूरी हुई. इसके कुछ समय बाद ही सन् 1993 में बड़ी बहन मुझे मुरादाबाद से दिल्ली ले आयीं.
निकाह ने बनाया गुनहगार
मेरी शादी का विज्ञापन पढ़कर मोहम्मद अशफ़ाक़ ने निकाह के लिए फोन किया. उसने बताया कि उनका दिल्ली के ओखला-बटला-हाउस इलाके में एक साइबर कैफे है. अशफ़ाक़ ने कहा था कि उसके वालिद का इंतकाल हो चुका है और मां जम्मू में अकेली रहती हैं.
वो मुझे देखने के लिए दिल्ली मेरी बहन के फ़्लैट पर आए. पहली मुलाकात में ही मैने अशफ़ाक़ को बता दिया था कि मैं हड्डी की गंभीर बीमारी से पीड़ित हूं. इसके बाद भी अशफ़ाक़ ने निकाह के लिए हामी भरी.
8 दिसंबर 2000 को पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मी नगर इलाके में स्थित एक परिचित के मकान में अशफ़ाक़ और मेरा निकाह हो गया.
मेरी तरफ से निकाह में मेरी बड़ी बहन, बहनोई, मां और भाई शामिल हुए. अशफ़ाक़ की तरफ से दो लोग निकाह में शामिल हुए. वे दोनों कौन थे मुझे अपने निकाह और बर्बादी के 12 साल बाद भी नहीं पता चल पाया है.
खत्म नहीं हुआ इंतजार
आर्थिक तंगी थी. रमजान चल रहे थे. इसलिए निकाह तो हो गया, मगर रुखसती (विदाई) बाद के लिए छोड़ दी गयी थी.
रुखसती की तारीख नसीब होती उससे पहले ही 22 दिसंबर 2000 की रात लाल किले पर आतंकवादी हमला हो गया.
जिसमें मेरे शौहर अशफ़ाक़ गिरफ्तार कर लिए गए. तब मुझे उसी रात पहली बार पता चला कि मोहम्मद अशफ़ाक़ साहब न जम्मू के रहने वाले हैं. न हिंदुस्तानी हैं. वह दरअसल पाकिस्तानी हैं और उनका नाम मोहम्मद आरिफ़ है.’
22 दिसंबर 2000 को रात करीब 9 बजे आतंकवादियों ने दिल्ली के लाल किले पर अचानक फायरिंग करना शुरू कर दिया. इस हमले में तीन लोग मारे गए.
22 दिसंबर की सुबह लेकर आई काली रात
22 दिसंबर के दिन में सुबह करीब 10-11 बजे अशफ़ाक़ मेरी बहन के फ्लैट पर आ गए थे. वो इलाके की मस्जिद में जुमे की नमाज पढ़ने गए.
लाल किले पर हमले के बाद जब पुलिस ने गाजीपुर में बहन के फ्लैट पर छापा मारा. मैं पुलिस वालों को लुटेरा समझने की भूल कर बैठी थी.
उस रात पुलिस के छापे से करीब एक घंटे पहले ही अशफ़ाक़ मेरी बहन के फ्लैट पर पहुंचे थे. उन्होंने खाना खा लिया था. कॉफी भी पी थी.
रात को अचानक जोर-जोर से दरवाजा खटखटाने पर हमने दरवाजा खोला. दरवाजा अशफ़ाक़ ने खोला या मैंने अब याद नहीं है.
उन हथियारबंद अजनबी लोगों ने घर की औरतों को एक जिप्सी में और घर में मौजूद भाई और अशफ़ाक़ को दूसरी जिप्सी में डाल लिया और अनजान जगह की ओर जब पड़े.
जब जिप्सियां रुकीं तो पता चला कि वो दिल्ली पुलिस की लोधी कालोनी स्थित स्पेशल सेल का दफ्तर था’.
डरावने सपने से भी बदतर थी जिंदगी
गिरफ्तारी के करीब 10 दिन बाद अदालत ने मुझे न्यायिक हिरासत में भेज दिया था. वैन से उतरकर जेल की देहरी पर कदम रखे. पहली बार जेल का दरवाजा देखा था.
यही वो जेल है..जिसके तसव्वुर से अच्छे-अच्छों को पसीना आ जाता है. सोचकर सहम गयी. चाहकर भी कुछ बोल न सकी. न कोई सुनने वाला था.
चलते चलते कब जेल की ड्योढ़ी के भीतर मेरी गिनती हो गई पता ही नहीं चला. चल तो अपने ही पांवों पर रही थी, मगर मेरे पांव मेरे बदन का हिस्सा हैं. इसका अहसास नहीं हो पा रहा था.
जेल की कोठरी में पहुंची तो वहां पहले से तमाम औरतों की भीड़ मौजूद थी. सब देख मुझे ही रही थीं मगर बोल कोई नहीं रही थी.
कब रात गुजर गई. कब नींद आ गई. पता नहीं चला. सुबह औरतों ने उठाया. जेहन में था कि घर में सो रही हूं.
...जब जिंदा लाश बन गई थी मैं
नींद खुली तो ख्याल आया अरे मैं तो जेल में हूं. एक बार को लगा बेहोश हो जाऊंगी. बिना एक बूंद पानी पिए हुए और बिना एक कौर रोटी का खाए देखते-करते चार दिन गुजर गए.
जिंदगी नरक बन चुकी थी और बदन जिंदा लाश. चौथे दिन पहली बार जेल की रोटी लेने के लिए बाकी औरतों के साथ लाइन में लगी.
तब अहसास हुआ कि यही वो जेल है जिसके नाम से अच्छे-अच्छों को पसीना आ जाता है. जेल के नाम से क्यों कांप जाती है रुह...यह भी समझ चुकी थी.
जेल वैन अदालत आते-जाते सोचा करती थी...काश इस दुनिया में अगर कोई मेरी सुन ले तो मैं कूदकर सबको बता दूं चीख चीख कर कि मैं बेकसूर हूं. ...मगर यह मेरा मन मेरी सोच थी.
कोई तो सुने कि बेकसूर हूं मैं
बड़ी जद्दोजहद के बाद अदालत ने जमानत दे दी. जमानत के लिए एक लाख रुपए का इंतजाम करना था.
एक महीने तक जमानत की रकम का इंतजाम न हो पाने के कारण जेल में ही कैद रही. अपने सब नजरें फेर चुके थे. अम्मी बूढ़ी, बीमार, बेबस थीं.
बड़ी बहन कोर्ट कचहरी के धक्के खाकर मुरझा गईं थीं. किसी तरह रिश्ते की एक फूफी (बुआ) को रहम आया.
उन्होंने 75 हजार का इंतजाम किया. 25 हजार का इंतजाम था. तब जाकर जेल के बाहर निकल पाई.
कैद से बुरी रिहाई
जेल से बाहर आकर जो कुछ भोगा वो जेल से अंदर से भी बुरा था. बूढ़ी अम्मी और एक अदद बड़ी बहन के अलावा सब बेगाने हो चुके थे.
कभी स्टेशन पर कभी बस अड्डे पर रात गुजरने लगी. कोई एक दिन अपनी छत के नीचे रात गुजरवा देता, तो अगले दिन आंखे मोड़ने लगता.
जब अपनों को इस कदर दूर होता देखा तो लगा कि इस खुली हवा में घुट-घुटकर मरने से बेहतर तो तिहाड़ जेल की जिंदगी ही थी.जहां कम के कम कोई अपना तो बेगानों की तरह पेश नहीं आ रहा था.
सरेआम हो जाती बेआबरु
जेल से बाहर आने पर खुद को मर्दों की भूखी नजरों से बचाना भी मुश्किल था. एक दिन सराय काले खां (निजामुद्दीन स्टेशन के करीब) पर एक अजनबी हाथ धोकर पीछे पड़ गया था.
मैं जान बचाने के लिए चप्पलें छोड़कर नंगे पांव बेतहाशा भागती रही थी. कम-से-कम जेल की चार दिवारी के भीतर तो बेआबरु होने का डर नहीं था.
22 दिसंबर 2000 को लाल किले पर हमला हुआ था. हमले के तीन दिन बाद रात को मैं गिरफ्तार हुई. उस वक्त भी मेरे हाथों में शादी की मेंहदी लगी हुई थी.
निकाह तो हो गया लेकिन रुखसती (विदाई रस्म) का इंतजार आज भी है. अब कहां जाऊं क्या करूं.
आज दिल्ली की सड़कों, रेलवे-स्टेशन, बस-स्टैंड्स या फिर बसों में काले या फिर सफेद रंग के बुरखे में कहीं भी किसी को भी दिखाई पड़ सकती हूं.
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