भारत एक कृषि प्रधान देश है और देश में कृषि से जीविकोपार्जन की प्रथा काफी सालों से चली आ रही है. लेकिन पहले कृषि कार्य केवल आर्थिक वजहों से नहीं किया जाता था. इसमें अपने तरह की एक संस्कृति जुड़ी हुई रहती थी, जिसमें कई लोग एक साथ मिल-जुलकर त्योहारी माहौल में काम किया करते थे. जिस दिन खेतों में जुताई होती थी उस दिन जुताई से संबंधित विशेष गान और नृत्य का आयोजन होता था, बिल्कुल त्योहारों की तरह से. उसी तरह से जिस दिन खेतों में बुवाई होती थी उस दिन अलग तरह से नाच-गाकर खुशियां मनाई जाती थी. ये काम उत्सवी माहौल में किए जाते थे. फसल की कटाई के समय भी खुशियां मनाई जाती थी और ये परंपरा तो आज तक पोंगल और संक्रांति के रूप में कायम है. जिस तरह से अभी लोग उत्सव मनाते हैं उसी तरह से पहले भी त्योहारों को उत्साह के साथ मनाते थे. पहले के जमाने में भी गीत संगीत और नृत्य ग्रामीण जीवन का हिस्सा हुआ करते थे.
लेकिन आज कल ये सब धीरे-धीरे बदलता जा रहा है. कृषि में उत्सवी माहौल का समापन हो रहा है और अब खेती आपसी भाईचारे और खुशी का प्रतीत नहीं बल्कि कर्जों और निराशा की तस्वीर बन चुकी है. आज भी हमारे अधिकतर किसान भाई बंधु केवल इसलिए खेती से जुड़े हुए हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि वो इसके अलावा कुछ और कर ही नहीं सकते हैं. अगर आप इसे आंकड़ों में देखेंगे तो आपको देश में किसानों की बिगड़ती हालत का अंदाजा लग जाएगा. देश में पिछले बीस सालों में लगभग 3 लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली है.
जबरदस्त स्वास्थ्य संकट
ग्रामीण भारत के एक और परिदृश्य में बदलाव हुआ है और वो बदलाव जुड़ा है ग्रामीणों के स्वास्थ्य से. आम लोगों के मन में सामान्य रूप से ग्रामीणों की छवि ऐसे बनी हुई है कि वो भले ही गरीब होते हों लेकिन वो कद काठी से मजबूत और स्वस्थ्य होते हैं. लेकिन आज आप किसी गांव में जाएं तो स्थिति इसके विपरीत मिलेगी. उदाहरण के लिए अपेक्षाकृत संपन्न राज्य तमिलनाडु के ही एक गांव का उदाहरण लें, यहां पर गांवों में रहने वाले लगभग 60 फीसदी ग्रामीणों का सही तरीके से शारीरिक विकास ही नहीं हो सका है. महिलाओं की स्थिति तो और भी ज्यादा खराब है. ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि जो खाना वो खाते हैं उसमें पोषक तत्वों की भारी कमी होती है. मतलब उन्हें हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद भी स्वास्थ्यवर्धक और पौष्टिक खाना नसीब नहीं हो पाता है.
इससे पहले जब किसान अपने तीन चार एकड़ की जमीन पर जीवन निर्वाह करने के लिए खेती करते थे तो वो अन्न उपजाते थे जिसकी उन्हें जरूरत होती थी. इससे उनकी पूरी तरह से पौष्टिक और संतुलित आहार की कमी पूरी हो जाती थी. लेकिन अब इसमें भी समस्या सामने आने लगी है. अब भारत में औसतन भूमि अधिकार घटकर 2.5 एकड़ पहुंच गया है. ढाई एकड़ में आप ज्यादा कुछ उपजा नहीं सकते. लेकिन जिन किसानों के पास ज्यादा जमीन है भी, वो भी अपने खेतों में ज्यादातर नगदी फसल उपजा रहे हैं. इससे उनके पास पैसा तो आ रहा है लेकिन उनका ध्यान इस बात पर नहीं जाता है कि उन्हें अपने खाने में पोषक तत्वों के लिए खर्च करना चाहिए. उदाहरण के लिए दक्षिण भारत के गावों में रहने वाले ग्रामीणों का मुख्य भोजन चावल, प्याज, मिर्च और इमली है.
गरीबी और पोषण की कमी ने बड़ी और गंभीर स्वास्थ्य समस्या खड़ी कर दी है. भारत में कुपोषित बच्चों की संख्या पूरे विश्व में सबसे ज्यादा है. डायबिटीज, रुमेटाइड आर्थराइटिस, अस्थमा, श्वसन संबंधी समस्याएं और अन्य कई बीमारियां यहां के लोगों के लिए आम हो गयी हैं.
वास्तव में, बहुत तरीकों से ग्रामीणों का उत्साह कमजोर हो चुका है. मानसिक बीमारी पहले ग्रामीणों में बहुत कम ही पाई जाती थी लेकिन अब वहां पर इसके कई मामले सामने आने लगे हैं और अब ये बीमारी भी वहां पर सामान्य बीमारियों की श्रेणी में शामिल हो गई है. ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि पहले जिसके साथ भी इस तरह की समस्या थी, उसे अकेला नहीं छोड़ा जाता था. उसको परिवार और समाज की तरफ से सहयोग किया जाता था. लेकिन आज के समय में पीड़ितों को अपनेपन का भरोसा और मनोरंजन, नृत्य आदि से मिलने वाला मनोवैज्ञानिक सहयोग मिलना तेजी से समाप्त हो रहा है.
किसानों को एकजुट करना
अगर हम ग्रामीण भारत को आदर्श रहने योग्य जगह में तब्दील करना चाहते हैं तो हमें कृषि व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव करके खेती को लाभदायक प्रक्रिया बनाना होगा. लेकिन इस प्रक्रिया में सबसे बड़ा अवरोधक है जोत की भूमि का छोटे टुकड़ों में बंटा होना. किसानों को गरीबी और मौत के रास्ते पर ले जाने के दो मुख्य कारक हैं पहला सिंचाई में निवेश की कमी और दूसरा बाजार से बिजली को लेकर मोलभाव का अभाव. इन पर ध्यान कम दिए जाने की वजह से ये महत्वपूर्ण कारक सामान्य लोगों की पहुंच से दूर हैं.
हमलोग इस परिस्थिति को बदलने की कोशिश कर रहे हैं. इसके तहत हम किसानों को एकजुट करके कम से कम 10 हजार एकड़ भूमि के साथ फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गनाइजेशन्स (एफपीओ) बनाना चाहते हैं. इस व्यवस्था के तहत हरेक किसान अपनी जमीन पर व्यक्तिगत रूप से खेती कर सकता है लेकिन लघु सिंचाई और उत्पाद की मार्केटिंग की जिम्मेदारी उन कंपनियों पर होगी जो कि उस क्षेत्र में पूरी योग्यता रखती हों.
स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी हम बदलाव लाने की जमीन तैयार कर रहे हैं. हम लोग ग्रामीणों को इस बात के लिए जागरूक कर रहे हैं कि वो एक ड्रमस्टिक और एक पपीता का पेड़ लगाने के अलावा अपने घर और उसके आसपास हरियाली बढ़ाने की कोशिश करें. इस पहल ने ग्रामीणों के स्वास्थ्य में नाटकीय सार्थक बदलाव लाने का काम किया है. इसके अलावा हम लोग गांवों में हर्बल गार्डन लगाना भी शुरू कर रहे हैं जिससे कि ग्रामीणों को छोटी-मोटी बीमारियों के इलाज की दवाई उन्हें अपने आसपास ही मिल जाया करे.
हमलोग कुछ गांवों को मॉडल गांवों में तब्दील करने की प्रक्रिया में जुटे हुए हैं, जिससे कि उन गावों में लोगों का जीवनस्तर बेहतर हो सके. मॉडल गावों में खेल के मैदान, जिम, योगशाला, कंप्यूटर सेंटर, लाइब्रेरी, महिलाओं के लिए क्राफ्ट सेंटर और टॉयलेट्स जैसी सुविधाएं मौजूद होंगी. इस तरह के मॉडल ग्राम देश के अन्य ग्रामों के लिए नजीर की तरह होंगे और इनका इस्तेमाल अन्य गांवों में बदलाव लाने के लिए किया जाएगा.
ग्रामीण परिवेश में बदलाव की ये प्रक्रिया फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गनाइजेशन्स के इर्द-गिर्द ही घूमेगी क्योंकि ग्रामीण जनसंख्या में अधिकतर संख्या किसानों की ही है और उनका मुख्य पेशा खेती करना है. वैसे ग्रामीण क्षेत्रों में किसी तरह के बदलाव की गुंजाइश तभी संभव है जब खुद ग्रामीण इस बदलाव में हिस्सा लें. मूल रूप से हमारा मकसद ग्रामीणों को समृद्ध बनाना और प्रेरित करना है जिससे कि वो अपना जीवन संवार सकें.
ये कुछ ऐसा नहीं है जिसे कोई एक संगठन या सरकार कर सके. इसके लिए इंडस्ट्री को सरकार, एनजीओ और संबंधित लोगों के साथ सहभागिता करनी पड़ेगी और जमीन पर कार्यों को अंजाम देना पड़ेगा. हम हमेशा सोचते हैं कि हिंदुस्तान 130 करोड़ लोगों का देश है. लेकिन बदलाव के लिए सोचने का तरीका ये नहीं है. आप किसी एक जिले के बारे में सोचो और उसे बदल डालो. हम इसके बारे में लंबे समय से केवल बातें ही करते आ रहे हैं, लेकिन अब इसे करने का समय आ गया है.
(लेखक योगी और ईशा फाउंडेशन के संस्थापक हैं)
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