भारतीय सैनिकों के अपने सीनियरों के खिलाफ सोशल मीडिया पर अपनी शिकायतें शेयर करने से बड़ा विवाद पैदा हो गया है. विरोधियों ने भी इस मौके का इस्तेमाल मोदी सरकार के खिलाफ इसके राष्ट्रवादी रुख की आलोचना करने के लिए किया है.
तर्क दिया जा रहा है कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली जो सरकार अतिराष्ट्रवाद का खुल्लम-खुल्ला समर्थन करती है. जवानों का इस्तेमाल राजनीतिक फायदे में करने से भी नहीं चूकती है. वह असलियत में सैनिकों के हितों को लेकर कितनी लापरवाह है.
यह एक विनाशकारी राजनीतिक संदेश है. जिसका मकसद बीजेपी के राष्ट्रवाद को फर्जी और नकली साबित करना है.
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मुद्दों को लेकर राजनीति करने में कोई बुराई भी नहीं है. लोकतंत्र में मीडिया और आलोचक सरकार की बुराई करने और उस पर हमला करने के लिए आजाद हैं. साथ ही विपक्ष को भी अपनी संवाद रणनीति बनाने का पूरा हक है.
एक हद तक यह कहा जा सकता है कि बीजेपी को अपनी बोई गई उग्र-राष्ट्रवाद की फसल का नतीजा भुगतना पड़ रहा है.
सेना का इस्तेमाल राजनीति के लिए न हो
इस बहस में एक बड़ा खतरा छिपा हुआ है. न केवल इस बहस में तथ्यों के साथ खिलवाड़ करने की असीमित आजादी मौजूद है, बल्कि सैनिकों को बड़े राजनीतिक खेल में मोहरे की तरह से इस्तेमाल करने से अनुशासन, आज्ञापालन, रेगुलेशन और कमांड की सख्त व्यवस्था पर टिके संस्थान को ऐसा नुकसान पहुंच सकता है, जिसकी भरपाई नहीं हो सकती है.
इसके संकेत दिख रहे हैं. नए आर्मी चीफ जनरल बिपिन रावत को अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस मसले पर बोलने के लिए मजबूर होना पड़ा. 8 जनवरी को तेज बहादुर का वीडियो सामने आने के बाद से चार और जवान अपनी बात सोशल मीडिया पर रख चुके हैं.
जनरल रावत ने वादा किया कि वह कमांड में पैदा हुई संवाद की कमी के मसले पर तुरंत गौर करेंगे. उन्होंने सुझाव और शिकायत बक्से लगाने का ऐलान किया. जिन पर उनके दफ्तर की सीधी निगरानी रहेगी.
शुक्रवार को अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में आर्मी चीफ ने कहा, ‘एक सैनिक, एक सैनिक होता है. उसे अपना नाम बताने से डरना नहीं चाहिए क्योंकि उसकी पहचान गुप्त रखी जाएगी. उन्हें सीधे हमारे पास आना चाहिए. अगर वे उठाए गए कदमों से असंतुष्ट रहते हैं तो वे कोई भी दूसरा जरिया अपना सकते हैं.’
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आर्मी चीफ ने अपील की कि जवानों को या तो बेहतरीन शिकायत निवारण तंत्र का इस्तेमाल करना चाहिए. या फिर उन्हें शिकायत बक्सों के जरिए अपनी बात कहनी चाहिए. सैनिकों को सोशल मीडिया के जरिए शिकायत करने से बचना चाहिए. यह इस बात का संकेत है कि रावत के लिए यह समस्या कितनी गंभीर है.
सोशल मीडिया पर जाने से गंभीर खतरे पैदा होंगे
अगर आर्मी जवान और अर्धसैनिक बल एक स्थापित सिस्टम को छोड़कर अपनी शिकायतें सीधे जनता के बीच या अन्य मीडिया माध्यमों के जरिए लाने लगेंगे, तो इससे सरकार और सेना दोनों के सामने एक गहन चुनौती खड़ी हो जाएगी.
सैन्य बलों की दशा और जवानों की हालत को लेकर सामान्यीकरण की कोशिशें पूरे जोरशोर से चल रही हैं.
हमें यहां सावधान रहने की जरूरत है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जवान की व्यथा पूरी तरह से सच होगी.
मीडिया से हो सकता है नुकसान
शिकायतों का चरित्र ढांचागत नाकामी को दिखाता है. सैनिकों को अक्सर बेहद कड़े नियमों से गुजरना पड़ता है. उन्हें भ्रष्टाचार और दूसरी तकलीफों का शिकार होना पड़ता है.
भारतीय सैन्य बल हमेशा से आदरणीय रहे हैं. लेकिन, यह सोचना कि इनमें कोई भ्रष्टाचार नहीं है, एक गलती होगी. आर्मी चीफ के शिकायत निवारण मैकेनिज्म को बेहतरीन बताने के बावजूद सिस्टम में बड़ी खामियां मौजूद हैं. इनके चलते सैनिकों में हताशा पैदा हो रही है. जिसकी वजह से कई बार जवानों का गुस्सा बेतरतीब निकलता है.
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इस संवेदनशील मसले को मीडिया की अतिसक्रियता के जरिए हल नहीं किया जा सकता है. इसका हल वर्दी में मौजूद सभी अफसरों को खलनायक के तौर पर दिखाने से भी नहीं मिल सकता है. इस सबसे जवानों को आंतरिक की बजाय बाहरी रूप से हल ढूंढने का प्रोत्साहन मिलेगा. इससे संस्थान के तानेबाने को नुकसान पहुंचेगा.
डिफेंस और सिक्योरिटी मामलों के विश्लेषक कर्नल (रिटायर्ड) जयबंस सिंह ने फ़र्स्टपोस्ट के देबव्रत घोष को बताया, ‘शिकायतों को हल करने के लिए जनता के बीच जाने की भूल जाइए. आंतरिक मैकेनिज्म इतना मजबूत है कि किसी को कमांडिंग ऑफिसर के पास तक जाने की जरूरत नहीं पड़ती. स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर्स, तय नियम और उच्च दर्जे का शिकायत निवारण मैकेनिज्म मौजूद है. बाहरी दखल की कोई जरूरत नहीं है'.
जयबंस सिंह जम्मू कश्मीर, श्रीलंका और पूर्वोत्तर में भारतीय सैनिक अभियानों का हिस्सा रह चकुे हैं. उन्होंने कहा, 'शासन के अलावा, भाईचारे से पूरी फोर्स एक साथ जुड़ी होती है. ऑपरेशन के दौरान कोई जवान या अफसर नहीं होता. हर कोई एक बराबर होता है. एक अफसर के तौर पर मेरे तीन दशक के सेवाकाल में मैंने 20 साल जवानों के साथ फील्ड पर गुजारे हैं. मैंने भी वही खाया जो उन्होंने खाया. वहीं रहा हूं जहां बाकी के जवान रहे’.
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इस बात पर गंभीर चर्चा होनी चाहिए कि क्या अंग्रेजों के वक्त का सहायक या बड़ी सिस्टम आज के दौर में प्रासंगिक है या नहीं. सीओएएस (चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ) इस पर गौर करने के लिए राजी हैं. यह राहत की बात है.
जवान के डाले गए वीडियो से सरकार और सुरक्षा प्रतिष्ठानों के लिए एक सुनहरा मौका मिला है. वह खामियों को दुरुस्त करे और रिफॉर्म की प्रक्रिया शुरू करे. सैनिकों की भावनाओं की कद्र न करना नाइंसाफी होगी. इन्होंने अपने करियर दांव पर लगाकर शिकायतें की हैं. इन जवानों के डाले गए वीडियो का इस्तेमाल कर के ओछी राजनीति नहीं करनी चाहिए.
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