live
S M L

शुजात बुखारी हत्याकांड: क्या पत्रकारों के लिए 'कब्रगाह' बनता जा रहा भारत ?

साल 2015 में 28 मामले दर्ज किए गए. विगत दो वर्षों में यूपी सबसे ज्यादा कुख्यात रहा है जहां 64 मामले प्रकाश में आए

Updated On: Jun 16, 2018 09:30 AM IST

Ravi kant Singh

0
शुजात बुखारी हत्याकांड: क्या पत्रकारों के लिए 'कब्रगाह' बनता जा रहा भारत ?

एक पुरानी कहावत है कि हरकारे (दूत) को कभी मत मारो क्योंकि जब संदेश पहुंचाने वाला ही नहीं रहेगा तो आपकी बात सुनेगा कौन. लेकिन आज न तो यह कहावत रही और न ही इसका औचित्य. हरकारे जरूर हैं लेकिन खामोशी में क्योंकि गाहे-बगाहे उन्हें हमेशा के लिए शांत कर दिया जाता है.

हालिया मामला श्रीनगर का है. गुरुवार को कश्मीर के नामी पत्रकार-संपादक शुजात बुखारी की दहशतगर्दों ने हत्या कर दी. वे 'राइजिंग कश्मीर' अखबार के संपादक थे. हत्यारे कौन थे, कहां से आए थे, इसका फिलहाल पता नहीं चल पाया है.

मामला अकेला शुजात बुखारी का नहीं है और न ही 'राइजिंग कश्मीर' का है. पूरे देश के आंकड़े खंगालें तो यह नंगा सच सामने आएगा कि पत्रकार काफी मुश्किल हालातों में काम करते हैं और उन्हें अपनी बुलंद आवाज की कीमत अपने लहू से चुकानी पड़ती है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े बताते हैं कि 2015 से लेकर 2017 तक पत्रकारों पर तकरीबन 142 हमले हुए. इससे भी गंभीर मसला यह है कि 1992 से लेकर 2016 तक देश में लगभग 70 पत्रकारों की हत्या कर दी गई. इनमें ज्यादातर स्वतंत्र पत्रकार थे जिन्हें या तो घर के बाहर या उनके दफ्तर में मार दिया गया.

लहू की कीमत पर पर्दाफाश?

हत्या दर हत्या के बाद एक सवाल कॉमन है जो पीछे छूटता जाता है. हत्यारे चाहे राजनीति से हों या माफियागिरी से, उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि पत्रकारों को मारकर वे अपनी करतूतें छुपा लेंगे? इसका जवाब सीधा है कि पत्रकार सबसे आसान निशाना हैं जो अक्सर किसी के पर्दाफाश में लगे रहते हैं. ऐसे में क्या देश की जांच एजेंसियों का फर्ज नहीं बनता कि हत्या की साजिशों पर से पर्दा उठे और दोषियों को कठघरे में खड़ा किया जाए. लेकिन सजा और न्याय की क्या दशा है, इसे जानकर आप हैरत में पड़ जाएंगे कि पिछले एक दशक में देश के किसी पत्रकार की हत्या की गुत्थी नहीं सुलझ पाई है. इस नई फेहरिश्त में शुजात बुखारी का नाम भी दर्ज हो गया है.

हिंदुस्तान टाइम्स ने पिछले साल अपने एक संपादकीय में इस मुद्दे को गहराई से छुआ. अखबार ने लिखा, पत्रकारों पर हमले के खिलाफ प्रेस काउंसिल ने एक बड़ा कदम उठाते हुए इस अपराध के लिए 5 साल कारावास की सिफारिश की. दुर्भाग्यवश काउंसिल की बात अनसुनी कर दी गई और मामला जहां का तहां फंसा हुआ है. इतना ही नहीं, पत्रकारों पर हमले की शिकायत सुनने के लिए अबतक कोई प्रभावशाली कमेटी तक नहीं बन पाई है.

यूपी, एमपी, बिहार में हालत बदतर

कुछ ऐसी ही बात इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट भी बताती है. कुल 142 दर्ज मामलों में 144 केस 2014 के थे जबकि 2015 में 28 मामले दर्ज किए गए. विगत दो वर्षों में यूपी सबसे ज्यादा कुख्यात रहा है जहां 64 मामले प्रकाश में आए लेकिन गिरफ्तारी के नाम पर महज 4 लोग ही धरे गए. यूपी के बाद मध्य प्रदेश (26 मामले) और बिहार (22 मामले) का नाम आता है.

पत्रकारों पर हमले के कुल मामले देखें तो इन तीन राज्यों में 79 फीसदी घटनाएं हुईं. मध्य प्रदेश को थोड़ा अच्छा इसलिए मान सकते हैं क्योंकि यहां सबसे ज्यादा गिरफ्तारियां (42 फीसदी) हुईं. 2014 में 10 और 2015 में 32 गिरफ्तारियां.

पत्रकारों की जिंदगी भारत में कितनी मामूली और खतरनाक है इसे जानना हो तो कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट का एक पाई चार्ट देखें. चार्ट के खंबे आपको लाल दिखेंगे जो उन कलमकारों के खून से रंगे हैं जिन्हें पर्दाफाश करने के एवज में चुकाने पड़े हैं. भारत में हत्याओं का दौर कैसे जारी है, इससे जानने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें.

इडियास्पेंड से साभार

इडियास्पेंड से साभार

वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम और हम

फ्रीडम अपने आप में काफी 'वेग' शब्द है. इसके कई अर्थ हैं. जैसे कि स्वाधीनता, आजादी, मुक्ति, स्वच्छंदता, स्वतंत्रता आदि, आदि. इसे भारतीय पत्रकारिता से जोड़ कर देखें और पता करें कि उपरोक्त बताए गए अर्थों में यह कितना जायज है और दुनिया इस आजादी को किस नजरिए से देखती है.

भारत के संविधान में प्रेस की आजादी को धारा 19(ए) में रखा गया है जो सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति और बोलने की आजादी देता है. इतना के बावजूद 2017 के वर्ल्ड प्रेस फीडम इंडेक्स में शामिल 180 देशों में भारत का स्थान फिसलकर 136 पर पहुंच गया. फिर सवाल है कि किस बात की अभिव्यक्ति और किस बात की आजादी या स्वाधीनता?

Shujaat Bukhari

कभी हमने सोचा कि भारत जैसे इतने विशाल और प्राचीन लोकतांत्रिक देश में प्रेस के लिए किसी गवर्निंग बॉडी का न होना कितनी गंभीर बात है. हमने नहीं सोचा तभी आजतक इस दिशा में रत्ती भर प्रगति नहीं हो पाई और भारत हर साल फ्रीडम इंडेक्स में अधोगति को प्राप्त होता चला गया.

चौथे खंबे की जड़ों में मट्ठा डालने की साजिश?

दुनिया लाख 'प्रेस्टीट्यूट' के लांछन लगाए लेकिन क्या उसे अपनी जमीर से नहीं पूछना चाहिए कि जब सरकारें और जांच एजेंसियां अपना काम बाखूबी नहीं निभा रही हैं, तो पत्रकार क्यों न लोगों के खैरख्वाह बनें. लेकिन लगता है चौथे खंभे की आजादी किसी को फूटी आंखों नहीं सुहा रही तभी समय-दर-समय इसकी जड़ों में मट्ठा डालने का काम हो रहा है. इससे क्या आवाजें दब जाएंगी? कतई नहीं क्योंकि आज दूसरे को मारने वाले कल आप पर भी हमला बोलेंगे और तब आपके पास लाचारी के अलावा कुछ नहीं बचेगा. हाल की घटनाएं कुछ ऐसी ही स्थिति बयां कर रही हैं.

0

अन्य बड़ी खबरें

वीडियो
KUMBH: IT's MORE THAN A MELA

क्रिकेट स्कोर्स और भी

Firstpost Hindi