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2018 में मोदी सरकार ने भौगोलिक कूटनीति में सफलता के परचम लहराए

2016 और 2017 का साल कश्मीर के लिए काफी हद काफी प्रचंड और गहन रहा है, खासकर उसकी भीतरी सुरक्षा और डोकलाम के मुद्दे को लेकर.

Updated On: Dec 31, 2018 08:25 PM IST

Syed Ata Hasnain

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2018 में मोदी सरकार ने भौगोलिक कूटनीति में सफलता के परचम लहराए

2016 और 2017 का साल कश्मीर के लिए काफी हद काफी प्रचंड और गहन रहा है, खासकर उसकी भीतरी सुरक्षा और डोकलाम के मुद्दे को लेकर. इन दोनों ही मामलों ने काफी हद तक भारत की सुरक्षा संस्थाओं की पेशानी पर चिंता की लकीरें खींच दीं थी. हालांकि, इस लिहाज़ से 2018 का साल पूर्व के इन दोनों सालों से बिल्कुल अलग रहा.

भारत ने इस साल भू-राजनीतिक क्षेत्र में अपने कदम बढ़ाने के अलावा, आंतरिक और बाहरी सुरक्षा के मसले को काफी आसानी और योग्य तरीके से सुलझाया. इस पूरी स्थिति को समझने और उसकी तारीफ करने से पहले ये जरूरी है कि हम इससे जुड़े कुछ मामलों की जांच कर ले, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण हैं-बड़ी वैश्विक शक्तियों जिनमें अमेरिका, रूस और चीन शामिल हैं, उनके साथ हमारे संबंधों को किस तरह से संचालित किया गया है ये समझ पाएं.

इसके बाद हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान और अन्य देशों के साथ हमारे संबंध कैसे रहे हैं. एक्ट-ईस्ट पॉलिसी, आंतरिक सुरक्षा मसले, जम्मू-कश्मीर का मसला और सीमा पर होने वाले हमलों से निपटने में हम कितने तैयार या सफल रहे हैं.

भारत और अमेरिका का संबंध परमाणु संधि होने के बाद से ही काफी अच्छा हो गया है, और ये संबंध पिछले कुछ सालों (मोदी-ओबामा राज) में रणनीतिक साझेदारी विकसित करने तक पहुंच चुका था. लेकिन, डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के साथ ही इस बात पर असमंजस की स्थिति थी कि वे इस रिश्ते को किस तरह से देखेंगे. लेकिन, साल 2018 ने ये दिखाया कि दोंनो देशों के बीच पहले से ज्यादा खिंचाव है, और अमेरिका भारत की भूमिका को लेकर सराहनीय नजरिया रखता है.

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दोनों देशों के विदेश और रक्षामंत्रियों के बीच होने वाली 2+2 बातचीत को जिस तरह से स्थगित किया गया, उससे दोनों देशों के द्विपक्षीय रिश्ते और बेहतर हुए. पूरे साल दोनों देशों के बीच लगातार गोष्ठियां और शिखर सम्मेलन होते रहे, लेकिन दो मुद्दे ऐसे थे जिनपर अमेरिका ने भारत को प्राथमिकता दी.

इनमें पहला भारत और रूस के बीच होने वाला एस-400 डील था, जिसमें अमेरिका की तरफ लगाया जाने वाला काउंटरिंग अमेरिकाज एडवरसरिज थ्रू सैंक्शंस एक्ट (सीएएसटीएसए) नहीं लगाया गया. इसके ठीक बाद अमेरिका ने भारत द्वारा ये चिंता जाहिर करने पर कि ईरान पर ये प्रतिबंध लगने से भारत को बिजली उत्पादन में दिक्कत हो सकती है और उसकी अफगानिस्तान नीति के लिए चाबहार पोर्ट का होना बेहद जरूरी है, अमेरिका ने ईरान पर लगाए जाने वाले प्रतिबंध में भी ढिलाई बरती.

2017 में डोकलाम मुद्दे पर भारत और चीन के आपसी संबंध जिस कदर तनाव भले हो गए थे, उसको देखते हुए दोनों देशों ने जिस तरह से तात्कालिक मतभेद को भुलाकर, संबंधों में खोई हुई गर्माहट को वापस पैदा करने के लिए जो मेहनत की वो एक बड़ी उपलब्धि है.

हो सकता है कि संबंधों में आई गर्माहट स्थायी न हो लेकिन वुहान शिखर सम्मेलन और उसके बाद हुई कूटनीतिक व्यवहारों, जिसमें सोची और रूस को शामिल किया गया था और किंगडाओ में आयोजित हुआ एसएसीओ सम्मेलन, कहीं न कहीं दोनों देशों के बीच खोये हुए विश्वास को वापस पाने में मददगार साबित हुआ.

हालांकि, जिस तरह से बेल्ट एंड रोड इनिशियेटिव (बीआरआई) भारत के कई पड़ोसी देशों की नजरों में चुभ रहा है और वो इसका नजदीकी परीक्षण कर रहे हैं, उससे मुमकिन है कि साल 2019 में दोनों देशों के बीच एक बार फिर से दुर्भावना बढ़ जाए. जबकि, भारत लगातार इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव को कमजोर करने की कोशिश में लगा है.

मालदीव के साथ भारत के संबंध हमेशा से अच्छे रहे हैं और श्रीलंका में भी उसकी पकड़ अच्छी बनी हुई है. एक अच्छा मौका जो भारत ने गंवाया है वो है रोहिंग्या मुद्दा. अगर भारत इस मुद्दे पर थोड़ी और सक्रियता और तत्परता दिखाता तो शायद वो बांग्लादेश और म्यांमार पर भी अच्छा प्रभाव छोड़ता. भारत ने इस मामले की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए कुछ ज़्यादा ही एहतियात बरती, जिसका नतीजा ये हुआ कि इन दोनों देशों को लेकर भारत के रुख में अनिच्छा या रूखापन नजर आया.

लेकिन, इस तरह की जिम्मेदारियों से मुंह मोड़कर भारत का रणनीतिक तौर पर चीन के लिए जगह छोड़ना कितना सही है-ये बहस का विषय हो सकता है. हिमालय से सटे इस सीमाक्षेत्र में इससे पहले यानी साल 2011 से लेकर आजतक चीन की तरफ से कोई सैनिक हस्तक्षेप नहीं किया गया था. हालांकि, पैदल मार्च और ऑपरेशन दोनों ही तरफ से लगातार होते आए हैं.

गणतंत्र दिवस के मौके पर आसियन देशों के सभी नेताओं की मौजूदगी, इजरायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू, ईरान के राष्ट्रपति हासन रूहानी और जॉर्डन के राजा किंग अब्दुल्ला का एक के बाद एक भारत आना, और साथ ही पीएम मोदी का फिलिस्तीन, जॉर्डन और यूएई व ओमान का दौरा करना भी काफी महत्वपूर्ण था. इससे न सिर्फ इन देशों के साथ हमारे रिश्ते संतुलित हुए हैं बल्कि इससे ये भी साबित हुआ कि बहुपक्षीय संबंध स्थापित करना सिर्फ बड़ी शक्तियों का एकाधिकार नहीं है, बल्कि छोटे और मझोली ताकत वाले देश भी ये कोशिश कर सकते हैं.

PM Narendra Modi and Russian President Vladimir Putin

रूस के मामले में खासतौर पर, रूस की तरफ से कुछ दिक्कतों के बाद दोनों देशों के बीच के रिश्ते को दोबारा जिंदा किया गया है. सच तो ये है कि साल 2018 में भारतीय कूटनीति की उच्चतम मिसाल यही थी कि भारत ने कैसे न सिर्फ विपरीत परिस्थितियों का सामना किया बल्कि उससे सफलतापूर्वक रास्ता बनाते हुए बाहर भी आया और अपनी इज्ज़त व फायदे को भी बचाकर रखा.

लेकिन, 2019 ऐसा नहीं होने जा रहा है और इसका संकेत अभी अमेरिका द्वारा सीरिया से सैन्य वापसी का निर्णय लेने और अफगानिस्तान से सेना कम करने के फैसले से मिल गया है. हालांकि, इसपर अभी से ठोस तरीके से कुछ कहा नहीं जा सकता है, क्योंकि अफगानिस्तान से सैन्य वापसी की ख़बर भी पक्की नहीं है. इन सब में पाकिस्तान ही वो देश है, जिनके साथ न ज़्यादा की उम्मीद थी, न ज्यादा कुछ मिला. साल के पहले छह महीने में एक एक्टिव एलओसी होने के कारण सीजफायर ज्यादा प्रभावशाली लगा, लेकिन घुसपैठ में कोई कमी तब भी नहीं थी.

पाकिस्तान में नई सरकार आने और इमरान खान के प्रधानमंत्री बनने के बावजूद उसका जम्मू-कश्मीर के मामले में हस्तक्षेप जारी रहा. इमरान ख़ान पाकिस्तान सेना की हाथों के कठपुतली हैं, और सेना का मक़सद हर हाल में भारत पर दबाव डालकर शांति प्रक्रिया में दख़ल देना है.

सैद्धांतिक तौर पर करतारपुर कॉरिडोर के लिए भारत ने पहले ही हामी भर दी थी लेकिन, उसके साथ-साथ जिस तरह की घटनाएं हुईं उसने एक विरोधाभासी माहौल बना दिया था. पाकिस्तान जिस तरह से पंजाब में दोबारा आतंकवाद को जीवित करके, भारत के साथ एक छद्म युद्ध करना चाहता है, उससे भारत को 2019 में भी लड़ना होगा. जैसे-जैसे कॉरीडोर के लोकार्पण की तारीख नज़दीक आती जाएगी.

इन हालातों में पाकिस्तान के साथ दोबारा बातचीत शुरू करना लगभग असंभव है, और ये काफी हद तक 2019 के आम चुनावों के बाद केंद्र में किस पार्टी की सरकार बनती है उसपर भी निर्भर करता है. जम्मू कश्मीर में सेना को काफी बड़ी सफलताएं हासिल हुई हैं, लेकिन परिणाम के तौर पर देखा जाए तो वहां की जमीनी हालात में कोई खास बदलाव नहीं आया है, क्योंकि वहां उतने ही बड़े पैमाने पर आतंकी संगठनों में नई भर्तियां भी हो रही हैं. लोगों के मन में अलगाव बढ़ता जा रहा है, पर निकाय चुनावों में कश्मीर घाटी में कम वोटिंग होने के बाद भी चुनाव सफल रहा.

राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होने बाद उम्मीद की जा सकती है कि 2019 में वहां शासन बेहतर हो, हालांकि ये भी इस बात पर निर्भर करता है कि वहां अगला चुनाव कब होता है. कश्मीर की समस्याओं से निपटने के लिए एक ठोस रणनीति की जरूरत है. जो वहां के लोगों के भटकाव, युवाओं में बढ़ रही उग्रता, सोशल मीडिया से होने वाले जहरीले प्रोपेगैंडा से बचा सके. लेकिन, इसके लिए केंद्र, राज्य और अन्य संस्थाओं को साथ आना होगा.

भारत की मिलिट्री क्षमता को लेकर भी कुछ बुनियादी सवाल मन में कौंधते हैं. भारतीय एयरफोर्स को हर हाल में जल्द से जल्द नए एयरक्राफ्ट और एरियल प्लैटफॉर्म की ज़रूरत है. इस समय एयरफोर्स को कम से कम 42 स्कॉवर्डन चाहिए जबकि उनके पास सिर्फ 30 हैं.

रूस के साथ एस-400 एयर डिफेंस सिस्टम खरीदने की जो डील हुई है, उससे हमारी वायु शक्ति काफी हद तक बढ़ जाएगी, लेकिन उसे होने में काफी वक्त़ लगेगा. नेवी भी सबमरीन की गिरती संख्या के कारण कमज़ोर पड़ रही है, जो सबमरीन अभी हमारे पास हैं, वो भी इतने पुराने पड़ गए हैं कि उनपर ज़्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता है.

हिंद महासागर में पीएलए नेवी से मिलने वाली धमकियों और हमारा ‘इंडो-पैसिफिक’ क्षेत्र बनाने में इंडो-एलिमेंट के लिए, अमेरिका का मैनेजमेंट पर निर्भर होने के कारण ये ज़रूरी हो जाता है कि भारतीय नेवी अपनी क्षमता को और बेहतर करे.

भारतीय सेना की नस दो कपटपूर्ण धमकियों से कमज़ोर पड़ती है. एक पर्याप्त उपकरणों की अनुपलब्धता है, जो जितनी ज़रूरत है उससे काफी कम और पीछे चल रही है. आलम ये है कि, छोटे हथियारों के लिए भी जिन औजारों या कल-पुर्जों की जरूरत पड़ती है वो भी काफी पुराने और आदिम समय के हैं. गोला-बारूद की स्थिति बेहतर हो रही है लेकिन जैसे-जैसे तोपखानों की संख्या बढ़ाई जा रही है और उसे सुधारा जा रहा है, वैसे-वैसे ये संदेह भी बढ़ता जा रहा है कि जितना गोला-बारूद मंगाया जा रहा है, वो पर्याप्त अनुपात में हो पाएगा या नहीं.

सेनाओं को इस समय और ज्यादा औजारों, हथियारों और उपकरणों की जरूरत है, और इस समय जो रक्षा बजट है वो 1.47 प्रतिशत है. ऐसे में इस बजट के साथ सेनाओं की रक्षा हथियारों और उपकरणों की जरूरत को अगले कुछ साल तक के लिए पूरा नहीं किया जा सकता है. जबतक कि साल 2019 में देश की रक्षा बजट में एक बड़ी वृद्धि की जाए.

2019 और आने वाले कई साल रक्षा उपकरणों के प्रबंधन और उन्हें उपलब्ध कराने के लिहाज़ से भारत के लिए काफी चुनौतीपूर्ण साल होंगे. खासकर, तब जब सेना और नागरिकों के बीच रिश्ते खराब होते जा रहे हैं.

अच्छा ये होगा कि हम अपनी बात को मिलिट्री कूटनीति की कुछ सकारात्मक चीजों से खत्म करें. जैसे, विदेशी सैन्य शक्तियों के साथ होने वाले सशस्त्र संयुक्त अभ्यास की सफलता जिसमें भारत का प्रदर्शन उच्च श्रेणी का रहा. साल के अंत में पीएलए और मालदीव की सेना के साथ चेंगड़ू में एक संयुक्त सैन्य अभ्यास रहा, जो काफी सफल था. इसके अलावा भारतीय वायुसेना द्वारा अमेरिकी वायुसेना के साथ मिलकर हाई-प्रोफाइल कोप इंडिया एक्सरसाइज को अंजाम दिया गया. इतना ही नहीं भारतीय नेवी ने भी अपना फ्लैगशिप मालाबार अभ्यास को सफलतापूर्वक पूरा किया.

ये सब इस साल तीनों सेना की तरफ से किए जाने वाले कुछ प्रमुख आयोजन थे. इसके अलावा भी कई अन्य इवेंट का आयोजन किया गया, जिसने भारत की तीनों सेनाओं की ताकत और उनकी मिलिट्री सहभागिता के बढ़ते असर की बखान करता है. जिसपर, चढ़कर काफी हद तक भारत की राजनीतिक डिप्लोमेसी की जाती है.

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