अस्पताल के बिस्तर पर बैठे नयन कलोला कहते हैं, 'मैं तो सिर्फ ओजत नदी में वियर (बहाव को नियंत्रित करने के लिए नदी के किनारे बनाए गए बंधे) के करीब धड़ल्ले से चल रहे रेत खनन को रोकना चाहता था.'
गुजरात में जगन्नाथ जिले के अच्छी बागवानी वाले वनथाली कस्बे के एक स्थानीय किसान व आरटीआई एक्टिविस्ट कलोला को रेत माफिया ने उनकी कारगुजारियों का विरोध करने के लिए आठ महीने पहले अगवा करके बेरहमी से पीटा था और वह अभी तक बिस्तर से उठ नहीं सके हैं.
45 वर्षीय कलोला को पिछले साल मई में कार सवार बदमाशों ने उस समय अगवा कर लिया था, जब वह अपने खेत की ओर जा रहे थे. यह उसी दिन हुआ था जब ओजत नदी में अवैध रेत खनन के खिलाफ स्थानीय लोगों ने वनथाली कस्बे में दिन भर का बंद बुलाया था.
वह याद करते हैं कि बस स्टैंड के पास एक कार में जबरदस्ती बिठाने के बाद, उन्हें पास के एक गांव में ले जाया गया जहां करीब आधा दर्जन लोगों ने उन्हें लोहे की रॉड से पीटा. हमलावरों ने उन्हें गंभीर नतीजे भुगतने की चेतावनी दी और उन्हें रेत खनन के मामले में दखल नहीं देने के लिए कहा.
राज्य सरकार द्वारा करीब एक दशक पहले बनाए गए इस बंधे ने इस इलाके को संपन्न बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है. इसने न केवल आसपास के इलाके की 50,000 से अधिक आबादी को बेहतर पेयजल आपूर्ति में मदद की है, बल्कि भू-जल स्तर को सुधारने और समुद्र से मिट्टी में होने वाले खारेपन की समस्या पर भी रोक लगाई. इससे पूरा क्षेत्र मशहूर केसर आम, केला, चीकू और जामुन के उत्पादन के बड़े बागवानी क्षेत्र में बदल गया.
तत्कालीन जिला कलेक्टर ने गुजरात हाईकोर्ट के 2003 के दिशानिर्देशों, जो इस तरह की गतिविधि को प्रतिबंधित करता है, की धज्जियां उड़ाते हुए बंधे के पास रेत खनन की इजाजत दी थी. कलोला बताते हैं, 'जिन लोगों को लीज दी गई थी, वो नदी के किनारे नुकसानदेह स्तर से ज्यादा गहराई तक खुदाई कर रहे थे. अगर यह नदी में रेत-खनन के लिए अदालत के दिशानिर्देश के अनुसार कहीं भी 3 मीटर तक सीमित होता, तो यह हम फिर भी बर्दाश्त कर लेते, लेकिन वे अंधाधुंध खनन कर रहे थे और यह हमारे लिए तबाही ला सकता था.
नदी-तल में अंधाधुंध रेत खनन के कई प्रतिकूल नतीजे हुए. इसने नदी के बहाव को बदल दिया जिससे कई बार बाढ़ आई और अगर ऐसा ही चलता रहता तो हमारी जिंदगी बर्बाद हो जाती. हम अपनी आजीविका के लिए नदी पर निर्भर हैं और रेत माफिया को सिर्फ पैसे से मतलब है.
कलोला की कहानी गुजरात में रेत माफिया की आपराधिक प्रकृति से जुड़े कई मामलों में से एक है, जहां देश के अन्य हिस्सों की तरह मोटे तौर पर दो तरह से अवैध रेत खनन चल रहा है.
पहला राज्य भर में 60 से अधिक नदियों में कानूनी रूप से पट्टे पर लिए गए क्षेत्रों में अवैध खनन करना यानी नियमों की धज्जियां उड़ाना और अनुमति दी गई गहराई से अधिक खुदाई करके अनुमति से अधिक रेत निकालना. दूसरा पूरी तरह से अवैध है और यहां बिना किसी अनुमति के रेत का खनन हो रहा है.
गुजरात में विपक्षी कांग्रेस के दो मुखर विधायकों जवाहर चावड़ा और ललित वसोया आरोप लगाते हैं कि अवैध रेत खनन में पुलिस, खनन व भूविज्ञान विभाग और सड़क परिवहन विंग सहित सरकार के विभिन्न विभागों के बीच साठगांठ है.
जूनागढ़ जिले के माणावदर से विधायक चावड़ा कहते हैं, 'सरकार के इस पर अंकुश लगाने के लिए कदम उठाए जाने के दावे के बावजूद, हकीकत में कुछ भी नहीं किया गया है. यह चारों तरफ खुलेआम चल रहा है.'
विधायक चावड़ा ने एक्टिविस्ट कलोला पर हमले के विरोध में हुए प्रदर्शन में भाग लिया था और पुलिस ने उन्हें हिरासत में भी लिया था. उन्होंने उस समय ओजत नदी के पास पट्टे को निरस्त कराने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
चावड़ा आरोप लगाते हैं, 'स्थानीय पुलिस से लेकर सरकार के ऊपरी स्तर तक, सभी की रेत के अवैध धंधे में हिस्सेदारी है. रेत माफिया को हर स्तर पर पूरी सुरक्षा दी जाती है. सभी को ‘मुफ्त’ मिलने वाली रेत के लिए खनन अधिकारियों को एक बस तय धनराशि का भुगतान करना होगा, जो इसके एवज में अवैध धंधे से सुरक्षा के लिए पुलिस सहित सभी को निचले पायदान से लेकर ऊपरी स्तर तक हिस्सा बांटते हैं.'
राजकोट जिले के धोराजी से विधायक वसोया भादर नदी, जो कि इस क्षेत्र में उद्योगों के साथ-साथ कारोबार के लिए भी एक महत्वपूर्ण जल संसाधन है, में प्रदूषण और अवैध रेत खनन के खिलाफ अभियान चला रहे हैं. वसोया कहते हैं कि राज्य विधानसभा में और अन्य मंचों पर इस मुद्दे को उठाने के बावजूद पुलिस व दूसरे विभागों और रेत माफिया के बीच साठगांठ के चलते धंधा बेरोक-टोक चल रहा है. वह कहते हैं, 'हमारे अंदाजे के मुताबिक सिर्फ भादर से ही अवैध रूप से कम से कम 40 टन बालू से भरे 400 ट्रक रेत रोजाना निकाली जाती है.'
घायल आरटीआई एक्टिविस्ट और दो विधायकों द्वारा लगाए गए आरोपों की पुष्टि सुदूर आदिवासी बहुल छोटा उदयपुर जिले में ओरसंग नदी में धड़ल्ले से चल रहे अवैध रेत खनन के बारे में एक स्थानीय पत्रकार द्वारा बताई गई स्टोरी से भी होती है.
वह नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, 'रेत माफिया बहुत ताकतवर हैं और कुछ भी कर सकते हैं. यहां तक कि स्थानीय पत्रकार भी उनसे डरते हैं. वो लोगों को धमकी देते हैं कि उन लोगों को एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत फंसा देंगे या मार डालेंगे. उन्होंने इस समुदाय के लोगों को अपने साथ मिला लिया है और विरोधियों के खिलाफ उन्हें आगे कर देते हैं. उनके पास पूरी पुलिस सुरक्षा है क्योंकि वे उन्हें भुगतान करते हैं.
वह बताते हैं, 'उनके पास इतना ज्यादा पैसा इसलिए है क्योंकि उन्हें रेत के लिए किसी भी रॉयल्टी या कीमत का भुगतान नहीं करना होता. वे ट्रकों में ओवरलोडिंग भी करते हैं. वे नदी से रेत उठाते हैं और उसे बाजार में बेच देते हैं. उनके खिलाफ कोई नहीं बोलता, क्योंकि पुलिस कभी कुछ नहीं करती. एक ट्रैक्टर रेत के लिए वे करीब 2000 रुपए का अवैध भुगतान करते हैं और 5000-6000 रुपए कमाते हैं. राज्य भर में इस धंधे के कारण सरकार को करोड़ों रुपए की रॉयल्टी का नुकसान होता है. इस समय साधारण रेत की रॉयल्टी प्रति टन 40 रुपए है. अवैध रेत का कारोबार सैकड़ों करोड़ का है.'
दूसरी ओर, राज्य के खनन और भूविज्ञान विभाग का दावा है कि हाल के दिनों में राज्य सरकार द्वारा किए गए कई उपायों जिनमें ड्रोन निगरानी-आधारित छापे शामिल हैं, से अवैध रेत खनन के खिलाफ अच्छे नतीजे मिल रहे हैं.
राज्य में मृदा एवं भूविज्ञान विभाग में अतिरिक्त निदेशक डीएम शुक्ला बताते हैं कि पिछले साल मई में चार नदियों- साबरमती, तापी, ओरसांग और भादर में पायलट परियोजना के तहत सीएम विजय रूपाणी द्वारा त्रिनेत्र ड्रोन सर्विलांस सिस्टम का उद्घाटन किया गया था. इस परियोजना में अब नर्मदा, माही और भोगावो नदियों को भी शामिल कर लिया गया है.
वह कहते हैं, 'सभी जिलों में गड़बड़ी को रोकने के लिए टास्क फोर्स भी बनाई गई है. इन सबके नतीजे में इसमें लगभग 50% की कमी आई है. ड्रोन आधारित छापे से अवैध रेत खनन करने वालों में डर पैदा हो गया है.'
ड्रोन प्रणाली कैसे काम करती है, इस बारे में विस्तार से बताते हुए वह कहते हैं कि मुखबिर अवैध खनन के बारे में जानकारी देते हैं और फिर बाहरी एजेंसी द्वारा संचालित इन ड्रोनों को साइट पर भेजा जाता है. 'ये अवैध खनन करने वालों के खिलाफ सबूत इकट्ठा करने में हमारी मदद करते हैं. करीब 120 मीटर की ऊंचाई पर उड़ान भरते हुए ये जमीन से एक छोटी चिड़िया की तरह दिखते हैं और इनका आसानी से पता भी नहीं लगाया जा सकता है. पहले जब पुलिस और खनन विभाग की टीमें ऐसी जगहों पर जाती थीं, तो वो भाग जाते थे. इसके अलावा पहले सबूतों की कमी के कारण उन्हें अदालत से सजा दिलाना और जुर्माना लगाना मुश्किल था.
(रजनीश मिश्रा अहमदाबाद स्थित फ्रीलांस लेखक हैं और 101Reporters.com के सदस्य हैं, जो जमीनी स्तर पर काम करने वाले पत्रकारों का अखिल भारतीय नेटवर्क है.)
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