असम में एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन को अपडेट करने के मामले में मंगलवार को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की धमाकेदार एंट्री हुई. मौका था कैथोलिक बिशप्स कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया की गोष्ठी का, जहां ममता को मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाया गया था.
पूरे दिन बीजेपी और विपक्ष इस मुद्दे पर एकदूसरे पर हमला करते रहे. राज्यसभा में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने इसकी शुरुआत की. उन्होंने दावा किया कि नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़न को अपडेट करने का मामला, दरअसल असम समझौते के मुताबिक ही है और कांग्रेस की सरकारों में ‘इतनी हिम्मत नहीं थी’ कि इसे अपडेट करें. अब उनकी पार्टी और एनडीए पर इसे अपडेट करने की ज़िम्मेदारी है.
'24 मार्च 1971 के बाद भारत आने वाले लोगों को नागरिक नहीं माना जाएगा'
अपनी लच्छेदार भाषा में अमित शाह ने बात आगे बढ़ाई और पूछा कि जिन 40 लाख लोगों का नाम नेशनल रजिस्टर में नहीं है, उनमें से कितने बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं और विपक्ष क्यों उन्हें देश में रखना चाहता है? यहां परिभाषा का मुद्दा भी जुड़ा है. ये आप पर निर्भर करता है कि आप किसे घुसपैठिया मानते हैं और किसे शरणार्थी. शरणार्थी, यानी वो, जो दशकों से रहने मात्र से नागरिकता का हकदार हो जाता है. आपको बता दें कि भारत में 12 साल तक लगातार रहने से कोई भी व्यक्ति नागरिकता का हकदार हो जाता है. 2016 के नागरिकता संशोधन कानून के ज़रिए, अवैध तरीके से रहने वाले अप्रवासी सिख, बौद्ध, इसाई, जैन और पारसियों के लिए ये अवधि 12 साल से घटाकर 6 साल की जाने वाली है.
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प्रशासन ने तय किया था कि 24 मार्च 1971 के बाद भारत आने वाले लोगों को नागरिक नहीं माना जाएगा. इसका मतलब ये हुआ कि असम में जो लोग 50 बरस से रह रहे हैं, उन्हें नागरिकता के लायक नहीं समझा गया.
संसद के भीतर विपक्ष के नेता, जिनमें कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के भी नेता शामिल हैं, ने मिलकर इस मुद्दे पर काफी हंगामेदार विरोध किया. डेरेक ओ’ ब्रायन और गुलाम नबी आज़ाद, दोनों चाहते थे कि सदन का उस दिन का काम स्थगित कर इसी मुद्दे पर बहस हो. और जब ऐसा नहीं हुआ, तो जबरदस्त हंगामा हुआ और उसके बाद सदन को कई बार स्थगित करना पड़ा.
ममता ने मंगलवार को बम फोड़ा. एक गंभीर नोट से उन्होंने शुरुआत की, ये कहते हुए कि हमे एक ऐसा माहौल बनाना होगा जिसमें हम अपने पड़ोसी को प्यार कर सकें. ममता ने इस बात पर ताज्जुब जताया कि पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली के एक रिश्तेदार, जो असम की राज्य सरकार में कभी मंत्री हुआ करते थे, का नाम भी नेशनल रजिस्टर में नहीं है.
ममता ने अपनी वाकपटुता से माहौल को धीरे-धीरे गरमाया. उन्होंने कहा कि ‘बांटो और राज करो’ वाली बीजेपी की राजनीति से देश को गृहयुद्ध में झोंका जा रहा है. जबरदस्त नरसंहार होगा, गृहयुद्ध तो खैर शुरू ही हो चुका है. आमतौर पर असम के सभी जिलों में धारा 144 लगा दी गई है. आप कैसे अपने लोगों को मरने दे सकते हैं ? न जाने कितने गरीब लोग हैं जो पीढ़ियों से देश में रहते आए हैं, और अब उन्हें कहा जा रहा है कि वे यहां से चले जाएं. अगर ये देश अपने ही लोगों को यहां से चले जाने को कहता है, तो इस देश का भविष्य क्या होने वाला है?’
ममता ने उन बयानों पर भी प्रतिक्रिया दी, जिनमें कहा गया था कि असम में जो आज हो रहा है, वो कल बंगाल में भी होगा. ममता ने कहा कि वे बंगाल में इसकी कतई इजाज़त नहीं देंगी. उन्होंने कहा कि झारखंड और दूसरी जगहों पर ‘मॉब लिंचिंग’ की घटनाएं बढ़ रही हैं और दलित, मुसलमानों और ईसाइयों को निशाना बनाया जा रहा है. अमित शाह की तरह उन्होंने भी ‘रेटोरिक’ यानी लच्छेदार भाषा का इस्तेमाल किया और कहा, ‘उन हत्यारों से मैं कैसे कहूं कि उनके लिए मेरे दिल में प्यार है? मैं इतनी उदारमना नहीं हूं.’
सवाल ये है कि क्या ममता बनर्जी का ये भड़काऊ बयान खतरनाक है, और अगर नहीं भी है, तो क्या इसे उचित ठहराया जा सकता है? सैद्धांतिक तौर पर किसी जिम्मेदार नेता को सार्वजनिक तौर पर इस तरह के बयान नहीं देने चाहिए, जिनमें खून-खराबे और गृहयुद्ध छेड़े जाने की भविष्यवाणी की गई हो. संक्षेप में कहें तो ऐसे बयान मूर्खतापूर्ण हैं. बेहतर हो कि इस तरह के आग लगाने वाले बयान, नेता अपनी आपसी बातचीत में ही करें, सार्वजनिक तौर पर नहीं.
हालांकि हम ये भी कह सकते हैं कि ममता अपने भाषण में बस किसी ऐसी स्थिति का पहले से अनुमान लगा रही थीं, जिसकी भविष्य में उन्हें आशंका दिखती हो. खास तौर पर तब, जब उन्हें लगा हो कि असम में जो भी हो रहा है, उसका असर बंगाल में भी आज नहीं तो कल, पड़ना ही है.
अगर असम में ऐसा कुछ हुआ, तो बंगाल ये सारे कथित ‘अवैध’ लोग उसकी सीमा में शरण लेंगे. भाषा और संस्कृति की वजह से ये लोग बंगाल की जनता के बीच घुल-मिल भी जाएंगे. ये लोग वहां जाकर अपने कागज़ात भी बनवा सकते हैं, जिससे वे भारत की सीमा में रहने के अधिकारी हो जाएंगे.
शिवसेना ने इसी ‘घृणा’ को बाद में अपने वोट बैंक में बदल दिया
बंगाल की पहले से चरमराई व्यवस्था को इन लोगों को आत्मसात करने के लिए खुद को और फैलाना पड़ेगा, जैसा कि विभाजन के बाद 1947 में और फिर 1971 में हुआ था. समझदारी वाले और थोड़ा मानवीय दृष्टिकोण से देखें, तो इस तरह जिन लोगों को ‘अवैध’ कहकर भगाने का बात हो रही है, वे नागरिकता का दावा कर सकते हैं. लेकिन इसके आड़े जो चीज़ आ जाती है, वह है बंगालियों के प्रति हिकारत वाली दृष्टिकोण, खास तौर पर असम में मुस्लिम बंगालियों के प्रति.
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ये शिकायत कुछ हद तक तो सही कही जा सकती है, लेकिन ये गुस्सा वैसा ही है, जैसा महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों और उससे पहले दक्षिण भारतीयों के लिए मराठी भाषियों का था. इतिहास गवाह है कि शिवसेना ने इसी ‘घृणा’ को बाद में अपने वोट बैंक में बदल दिया.
निश्चित तौर पर असम में बीजेपी इन्हीं चिंगारियों को हवा दे रही है. बीजेपी विदेशियों को लेकर ऐसी घृणा फैला रही है, जो एक दिन असम के वैध निवासियों को भी जला देगी, फिर वे बंगाली हों, या बांग्लादेशी, जो दशकों से वहां रहते आए हैं, या यहीं पैदा हुए हैं और रहने के लिए किसी और जगह के बारे में उन्होंने कभी सोचा भी नहीं. और 2019 के चुनावों को देखते हुए, बीजेपी ये सब सिर्फ अपने वोट बैंक को कायम रखने के लिए कर रही है, सिर्फ असम में नहीं, बल्कि पूरे देश में.
दूसरे शब्दों में कहें तो जो ममता बनर्जी ने कहा, वो दुर्भाग्यपूर्ण और अनुचित दोनों ही था. लेकिन जो बीजेपी कर रही है, वो खतरनाक है. बावजूद इस बात के कि हम सब ये जानते हैं कि राजनीतिक फायदे के लिए पार्टियां इस तरह की बातें करती रहती हैं.
उम्मीद बस यही है कि असम में नेशनल रजिस्टर को अपडेट करने का जो भी काम हो रहा है, सुप्रीम कोर्ट उस पर नजर रखेगी.
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