सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने कहा है कि जब वह इलाहाबाद हाईकोर्ट में जस्टिस थे तो उन्होंने 1992 में उत्तर प्रदेश एक शिक्षक की बर्खास्तगी रद्द कर दी थी और इस मुद्दे पर वह महाभियोग के कागार पर पहुंच गए थे.
काटजू ने यह भी कहा है कि उन्हें लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जस्टिस को भारत का चीफ जस्टिस के रूप में नियुक्त करने की प्रक्रिया को समाप्त किया जाना चाहिए क्योंकि यह 'व्यवस्था दोषपूर्ण साबित हुई है.’
काटजू दिल्ली अैर मद्रास हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के रूप में तथा इलाहाबाद हाईकोर्ट में कार्यवाहक चीफ जस्टिस के तौर पर अपनी सेवा दे चुके हैं. उन्होंने अपनी पुस्तक ‘व्हिदर इंडियन जूडिशियरी’ में न्यायपलिका के अंदर की व्यवस्था पर विश्लेषणात्मक निगाह डाली है.
चीफ जस्टिस की नियुक्ति के बारे में वह लिखते हैं, ‘वरिष्ठतम न्यायाधीश सत्यनिष्ठ हो सकता है लेकिन इसके साथ ही वह औसत व्यक्ति भी हो सकता है. उसकी वरिष्ठता को नजरअंदाज करते हुए, वरिष्ठताक्रम में उसके बाद वाले न्यायाधीश को अथवा वरिष्ठताक्रम में निचले न्यायाधीश को चीफ जस्टिस नियुक्त किया जाना चाहिए अगर वह विलक्षण प्रतिभा वाला है और अपने फैसलों के लिए जाना जाता है.
नियुक्ति के कुछ ही महीने बाद लगभग बर्खास्त हो गया था
भारतीय प्रेस परिषद (प्रेस काउंसिल आफ इंडिया) के चेयरमैन रह चुके काटजू ने आरोप लगाया कि देश की कानूनी व्यवस्था का परिदृश्य उत्साहजनक नहीं है.
महाभियोग जैसी स्थिति पर अपने पहुंचने की घटना का जिक्र करते हुए वह लिखते हैं, ‘इलाहाबाद हाईकोर्ट में 1991 में स्थाई जस्टिस के तौर पर मेरी नियुक्ति हुई और इसके कुछ ही महीने बाद मैं लगभग बर्खास्त हो गया था.’
उन्होंने लिखा है कि उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जिले के एक उच्च विद्यालय प्रबंधन ने नरेश चंद नामक व्यक्ति को तदर्थ आधार पर जीव विज्ञान का शिक्षक नियुक्त किया था . जिला स्कूल निरीक्षक ने उसकी नियुक्ति को मंजूरी देने से इनकार कर दिया क्योंकि चंद अन्य पिछड़ा वर्ग से था और सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित थी.
उन्होंने लिखा है कि बाद में स्कूल प्रबंधन ने चंद की सेवा समाप्त करते हुए उसकी नियुक्ति रद्द कर दी थी जिसे ‘चंद ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी और यह मामला मेरे सामने आया. मैंने नियुक्ति रद्द किये जाने के प्रबंधन के फैसले को खारिज कर उसे दोबारा नियुक्त करने का आदेश दिया.’
एससी-एसटी सांसदों ने लिया महाभियोग लाने का फैसला
उन्होंने लिखा है, ‘यह फैसला 1992 में आया था. इससे पूरे देश में हंगामा मच गया. देश के विभिन्न हिस्सों में, खास कर छात्रों ने मेरे इस फैसले के समर्थन में कई रैलियां निकाली. तो कई स्थानों पर इसके विरोध में भी रैलियां आयोजित की गयी थी.’
उन्होने दावा किया कि उन्हें धमकी भरे और गुमनाम खत और टेलीफोन कॉल आने का सिलसिला शुरू हो गया. इलाहाबाद हाईकोर्ट में सुरक्षा व्यवस्था बढ़ा दी गई थी.
पूर्व जस्टिस ने पुस्तक में लिखा है, ‘समाचारपत्रों से मुझे यह जानकारी मिली कि संसद के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों ने दिल्ली में एक बैठक की और मेरे खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाने का निर्णय किया.’
उन्होंने लिखा है, ‘एक तरफ मैं हाईकोर्ट का जस्टिस नियुक्त हुआ था और उसके बाद मैं बर्खास्त किए जाने के कागार पर था. यह फैसला देने के बाद लंबे समय तक मैं टहलने नहीं जा सका था. हाईकोर्ट जाने के अलावा मैं अपने घर में कैद होकर रह गया था. सौभाग्य से यह आंधी छंटी और मैं बच गया.’
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