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पैसिव यूथेनेशिया: इज्जत के साथ मरने का हक कैसे मिले?

अरुणा के मामले में हम देखते हैं कि इंसाफ ने हमेशा ही उसके साथ दगा किया. अरुणा के हमलावर पर डकैती और हत्या करने के मामले में मुकदमा चला

Updated On: Nov 01, 2017 09:42 AM IST

Pinki Virani

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पैसिव यूथेनेशिया: इज्जत के साथ मरने का हक कैसे मिले?

‘अरुणा की तरह जीने और आरुषि की तरह मरने से ज्यादा बुरा कुछ और नहीं हो सकता’- यह बात 2009 में ट्वीटर पर एक नौजवान ने बड़े निराशा के स्वर में लिखी थी. उस वक्त इन पंक्तियों की लेखिका ने पैसिव यूथेनेशिया को लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था.

मामला इस बात से जुड़ा था कि अरुणा शानबाग की जिंदगी को मेडिकल सपोर्ट (चिकित्सीय मदद) के सहारे जारी रखने को लेकर इन पंक्तियों की लेखिका संवैधानिक रूप से उसकी नजदीकी दोस्त मानी जा सकती है कि नहीं? हाल-फिलहाल एक दिन के अंतराल में दो अदालतों ने फैसले दिए हैं और इन फैसलों पर सोचते हुए उस नौजवान के ट्वीट से झांकती दुख भरी सच्चाई एक बार फिर से याद आ गई.

हाईकोर्ट के फैसले से आशंका उठती है कि क्या कभी आरुषि तलवार के हत्यारे पकड़े भी जाएंगे ? अरुणा के मामले में हम देखते हैं कि इंसाफ ने हमेशा ही उसके साथ दगा किया. अरुणा के हमलावर पर डकैती और हत्या करने के मामले में मुकदमा चला. इन दोनों अपराध के लिए उसे सजा मिली लेकिन यह सजा साथ-साथ चली. सो, अरुणा पर हमला करने वाला सात सालों के भीतर छूट गया. यह बात ‘अरुणा’ स्टोरी: द ट्रू स्टोरी ऑफ ए रेप एंड इट्स ऑफ्टरमैथ’ नाम की किताब में दर्ज खोज-बीन से साफ जाहिर हो जाती है.

सुप्रीम कोर्ट ने जीवन को जारी रखने संबंधी वसीयत यानी लीविंग विल ( बीमारी की अलग-अलग दशाओं में खून ना चढ़ाने से लेकर डॉक्टर की सहायता से मृत्यु प्रदान करने तक के बारे में किसी व्यक्ति का लिखित मेडिकल निर्देश) पर अपना फैसला सुरक्षित रखते हुए कहा है, 'हम कदम पीछे नहीं खींच सकते. यह( शानबाग के मामले में दिया गया फैसला) 2011 से ही प्रचलन में है. हमारे आगे साफ जाहिर है कि व्यक्ति के जीवन जीने के अधिकार की बिनाह पर यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि उसे मरने का भी अधिकार है. लेकिन हम इस बात की तस्दीक करते हैं कि हर व्यक्ति को गरिमा के साथ मृत्यु का अधिकार है.'

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भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा और जस्टिस ए के सीकरी, ए एम खानवलकर, डी वाय चंद्रचूड़ तथा अशोक भूषण की संवैधानिक पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के 2011 के एक ऐतिहासिक फैसले के हवाले से ये बातें कहीं.

साल 2011 का यह फैसला अपरोक्ष इच्छा-मृत्यु(पैसिव यूथेनेशिया) से संबंधित है और फैसले में असाध्य रोगों से ग्रस्त व्यक्ति के मृत्यु संबंधी अधिकार ( रोगी की पसंद-नापसंद) के बाबत कहा गया है.

फैसले में रोगी के खास चिकित्सीय हालात का जिक्र है जब मान लिया जाता है कि मरणासन्न रोगी की दशा यों ही जारी रहनी है और रोगी को दिए गए मेडिकल सपोर्ट के बारे में यह निर्णय करना होता है कि उसे जारी रखा जाए या बंद कर दिया जाए. अरुणा शानबाग के साथ 1973 में बर्बरता के साथ बलात्कार (अप्राकृतिक) हुआ था.

साथ ही, मुंबई के अस्पताल के एक सफाई कर्मचारी ने अरुणा का गला कुत्ते की जंजीर से बांधकर घोंटने की कोशिश की थी. इस वजह से अरुणा को चार दशक से भी ज्यादा वक्त तक अचेत और मरणासन्न हालत में जिंदगी बितानी पड़ी.

अरुणा के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि उसकी देखभाल करने वाली नर्स-साथिन पैसिव यूथेनेशिया (अपरोक्ष इच्छामृत्यु) का बेशक विरोध कर रही हैं लेकिन अगर किसी समय उनका मन बदलता है तो वे मामले में मुंबई हाईकोर्ट की मदद ले सकती हैं.

अपरोक्ष इच्छामृत्यु(पैसिव यूथेनेशिया) से संबंधित यह फैसला ‘शानबाग जजमेंट’ कहलाता है और जब तक सुप्रीम कोर्ट खुद ही इस फैसले को उलट ना दे अथवा देश की संसद इसमें रद्दो-बदल ना कर दे तब तक उस फैसले की हैसियत एक कानून की है.

एक अर्थ में यह फैसला एक ऐसी दुखियारी औरत के हाथों मिले उपहार की तरह है जो खुद 2015 तक बिना देखे-बोले बेहोशी की हालत में बिस्तर पर लेटी हुई अपनी जिंदगी काट रही थी. फैसला एक उपहार की तरह है ताकि फिर किसी को इस दुखियारी स्त्री अरुणा शानबाग की तरह जीवन और मृत्यु के बीच अधर में फंसकर अपनी जिंदगी ना गुजारनी पड़े.

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‘शानबाग जजमेंट’ पर आशंका के बादल मई 2014 में मंडराने शुरू हुए. उस वक्त एक जज रिटायर होने वाले थे और मामले को नापसंद करने की वजह से उन्होंने इसे लीविंग विल(इच्छामृत्यु के वसीयतनामे वाले मामले) के साथ जोड़ दिया. एक याची (पेटिशनर) ने शानबाग जजमेंट का हवाला देते हुए उसे हर तरह की यूथेनेशिया(इच्छामृत्यु) को वैधानिक करार देने की वजह के रूप में गिनाया था.

मामला संवैधानिक पीठ को सौंपा गया. संवैधानिक पीठ का वक्तव्य( इसका ऊपर जिक्र आया है और यह एक समाचार से लिया गया है) दोनों मसलों को एक-दूसरे से अलग करता है और ऐसा नहीं लगता कि इसमें पहले के फैसले को पलट दिया गया है. विधायिका ने शानबाग जजमेंट पर अपनी तरफ से मंजूरी की मोहर 2014 में लगाई.

उस वक्त राज्य सभा में कहा गया कि इस फैसले की हैसियत एक कानून की है. इसे आधार बनाकर भारत सरकार असाध्य बीमारियों से ग्रस्त लोगों के उपचार और उन्हें बीमारी की खास स्थिति में दिए जाने वाले मेडिकल सपोर्ट को हटाने से संबंधित मैनेजमेंट ऑफ पेशेन्ट विद् टर्मिनल इलनेस, विड्रॉल ऑफ मेडिकल लाइफ सपोर्ट बिल की तैयारी कर रही है( हालांकि एक लंबा अरसा बीता है, संसद की मंजूरी वाले पैसिव यूथेनेशिया लॉ पर सरकार ने 2016 के मध्यवर्ती महीनों में लोगों से सुझाव मांगे थे).

यह एक सराहनीय कदम है क्योंकि लोगों से सुझाव मांगे जाने से कानून बनाने के प्रस्ताव का नाम बदलकर ‘द ट्रीटमेंट ऑफ टर्मिनली इल पेशेंट’ हो गया है और ठीक इसी कारण इन पंक्तियों की लेखिका ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को प्रस्ताव के कुछ सवाल उठाए जाने लायक हिस्सों के बारे में एक प्रतिवेदन(सबमिशन) भेजा. इन पंक्तियों की लेखिका ने ध्यान दिलाया कि पैसिव यूथेनेशिया(अपरोक्ष इच्छामृत्यु) की जरूरत वाले रोगी दरअसल उपचार को चलाते रहने के इच्छुक नहीं होते बल्कि बात इसके एकदम उलट है.

चूंकि आगे बहुत सारे चुनाव होने बाकी हैं सो कहा नहीं जा सकता कि संसद में पैसिव यूथेनेशिया पर कानून का मसौदा कब संसद में रखा जाएगा और लोगों को उसकी रूपरेखा के भीतर अपने सुझाव प्रस्ताव के हिस्से के रूप में लिखे हुए देखने को मिलेंगे.

हर मामले में हाईकोर्ट से मंजूरी लेने की अनिवार्यता पर भी स्वास्थ्य मंत्रालय को नए सिरे से सोचना होगा. चूंकि असाध्य रोगों से ग्रस्त व्यक्ति मृत्युशैय्या पर पड़ा अपनी आखिरी सांसें गिन रहा होता है इसलिए उसके दुख को नियमों का बोझ बढ़ाकर और ज्यादा गहरा करने की जरूरत नहीं. यह आशंका तो है कि किन्हीं मामले में रोगी अपने रिश्तेदारों या फिर डाक्टरों की बदनीयती का शिकार हो सकता है और इसे देखते हुए कुछ शर्त तथा सुरक्षा संबंधी उपाय किए जाने चाहिए.

इसके अंतर्गत कुछ मामलों में हाईकोर्ट जाने की राह अपनायी जा सकती है लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद कुछ व्यावहारिक और अमल में आ सकने वाले सुझाव दिए गए हैं. असाध्य रोगों से मरणासन्न अवस्था में आ चुके सभी रोगी बड़े शहरों में ही नहीं होते. इस कारण एक भरे-पूरे मेडिकल बोर्ड की व्यवस्था करना ऐसे रोगियों के लिए कारगर नहीं हो सकता.

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प्रतीकात्मक

यह बात भी अब तक अनजानी है कि सुप्रीम कोर्ट लीविंग विल( किसी व्यक्ति की इच्छामृत्यु के वसीयतनामे) पर अपना फैसला कब सुनाएगा. भारत सरकार ने लीविंग विल को लेकर अपना ऐतराज जताया है. सरकार का कहना है कि इसका दुरुपयोग हो सकता है.

बहराहल, इन मुश्किलों के पेशेनजर एक्टिव यूथेनेशिया (प्रत्यक्ष इच्छामृत्यु) को लेकर अपने सरोकारों का इजहार करते हुए कुछ सहायक उपाय(खासकर बुजुर्ग, विधवा तथा अवाछित संतति के मद्देनजर) किए जा सकते हैं.

द मेंटल हेल्थकेयर एक्ट 2017 में कुछ दिशा-निर्देश(एडवांस डायरेक्टिव) दिए गए हैं जैसे कि रोग अगर किसी खास अवस्था में पहुंच गया हो तो किन तरीकों से उपचार किया जा सकता है और किन तरीकों से नहीं. लेकिन यह दिशा-निर्देश सिर्फ मानसिक रोगों से ग्रस्त मरीजों के लिए है.

कुछ उपायों को बेशक लीविंग विल का हिस्सा मान लिया जाता है और एक भ्रम की स्थिति बनी रहती है लेकिन ऐसे वरिष्ठ नागरिकों के संदर्भ में जिन्हें हृदय संबंधी रोग नहीं हैं, अगर यह पाया जाए कि उनके हृदय ने काम करना बंद कर दिया है तो ‘डीएनआर’(डू नॉट रिसस्किटेट) जैसे उपाय का विधान किया जा सकता है.

इस उपाय के अंतर्गत डाक्टर को हिदायत होगी कि वरिष्ठ नागरिक के हृदय ने अगर काम करना बंद कर दिया है तो वह इसे अत्याधुनिक मेडिकल सपोर्ट के सहारे चालू रखने का इंतजाम ना करे.

या फिर, ‘डीएनआई’ ( डू नॉट इनट्यूबेट) का उपाय सोचा जा सकता है यानी डाक्टर हृदय को चालू करने की जरुरत को देखते हुए छाती पर दबाव डाल सकता है, दवा दे सकता है लेकिन कृत्रिम तरीके से सांस जारी रखने के लिए नलियां नहीं लगा सकता.

यह काम सचमुच बड़े संतुलन की मांग करता है. मरीज को सही समय पर विशिष्ट जरुरत के मुताबिक उपचार पाने का हक है साथ ही अपने रोग के उपचार के संबंध में उसकी मर्जी-नामर्जी का सवाल जुड़ा है और उपचार के हक के साथ मरीज की पसंद-नापसंद के हक का भी तालमेल बैठाना है.

लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि मौत जीवन की समाप्ति का इंतजार करके नहीं आती. अगर किसी असाध्य बीमारी ने धर लिया तो स्पष्ट हो जाता है कि मौत अब होनी ही है. ऐसी हालत में इंसाफ यही कहता है कि जितना जीवन शेष बचा है उसकी गुणवत्ता के बारे में मरीज खुद फैसला करे.

इसी सोच की टेक पर कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने 2014 की जुलाई-अगस्त में राज्यों से कहा कि वे पैसिव यूथेनेशिया, एक्टिव यूथेनेशिया और लीविंग विल पर अपनी राय दें. मामले से जुड़े एक पक्ष ने अदालती प्रक्रिया के सहायक के तौर पर नियुक्त एमिकस क्यूरी तेहमतन अध्यार्जुनिया के माध्यम से अपनी राय रखी.

इसमें मानवीय गरिमा का सवाल उठाया गया था, कहा गया था कि मृत्यु के मामले में भरी-पूरी आबादी वाला यह देश व्यक्ति के अधिकारों का सम्मान नहीं करता.

pinki virani

लेखिका पिंकी विरानी. अपने को अरुणा शानबाग का करीबी दोस्त बताने की इन्हीं की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने पैसिव यूथेनेशिया बारे में अपना फैसला सुनाया और फैसले को कानून का दर्जा हासिल हुआ.

चूंकि मामले में अभी फैसला का आना बाकी है, सो इससे जुड़ी हुई अर्जियों के बारे में जानकारी अभी सार्वजनिक नहीं की जा सकती. संसद के पारित करने की स्थित में आ चुके पैसिव यूथेनेशिया बिल को लेकर बेशक इन अर्जियों के आधार पर कुछ संशोधित और ठोस सुझाव दिए गए हैं.

इन्हीं सुझावों में एक है कि असाध्य बीमारियों से पीड़ित लोगों समेत सभी हिंदुस्तानियों को जो अभी सक्षम हैं, डीएनडी(डू नॉट डिस्टर्ब, डिटोरिएट, डिजेनरेट, डिमिनिश—बीमार देह को ज्यादा परेशान ना करने, उसे और ज्यादा गलने या क्षतिग्रस्त ना करने के बारे में ) का हक हासिल होना चाहिए.

यह मौत से जुड़ी गरिमा की बात है और इस गरिमा का हनन ना हो इसका अधिकार लोगों को होना चाहिए. कोई मरीज असाध्य बीमारी की चपेट में आकर मरणासन्न पड़ा हो और उपचार के सारे उपाय आजमा लिए गए हों तो पैसिव यूथेनेशिया के अंतर्गत मरीज के रिश्तेदार निर्णय करते हैं कि मरीज को मेडिकल सपोर्ट जारी रखा जाए या नहीं.

ठीक इसी तरह कोई व्यक्ति चाहे तो पैसिव यूथेनेशिया लिए ‘डीएनडी’ लिख सकता है ताकि वह अपने परिवार-जन और साथियों को अपने शरीर के अंगों के एक-एक करके शिथिल पड़ने और आंखों के हमेशा के लिए बंद होने के दृश्य को देखते रहने की पीड़ा से बचा सके. यह बात नैतिक रूप से जायज जान पड़ती है.

डीएनडी के अंतर्गत किसी नुमाइंदे का नाम लिया जा सकता है जो मरीज की चिकित्सा संबंधी पसंद-नापसंद से जुड़े पहलुओं पर नजर रखेगा. ऐसा व्यक्ति मरीज के रक्त-संबंधियों में से कोई हो सकता है. पति या पत्नी यह भूमिका निभा सकते हैं, बालिग संतान को यह भूमिका दी जा सकती है या फिर इनमें से कोई ना हो तो यह भूमिका सत्यापन के आधार पर किसी करीबी दोस्त को दी जा सकती है.

डीएनडी का अधिकार तंत्रिका-तंत्र(न्यूरो) और मस्क्यूलोस्केलेटल रोगों जैसे पार्किन्सन, हंटिंग्टन और अल्झाइमर के रोगियों को भी मिलना चाहिए क्योंकि पैसिव यूथेनेशिया के लिए रोग की जिन अवस्थाओं का जिक्र किया गया है वैसी दशा इन रोगों से ग्रस्त मरीजों की भी हो सकती है.

रोग की पहचान हो जाए तो इसके तुरंत बाद ‘डीएनडी’ के रूप में मरीज अपनी पसंद-नापसंद जाहिर कर सकता है. आखिर ऐसे रोगियों को जिन्हें मृत्युशैय्या पर एकदम अशक्त होकर गिरने से पहले अपने मस्तिष्क के तंतुओं को एक-एक करके मरता देखना है, अपनी आवाज को धीरे-धीरे बंद होते महसूस करने की पीड़ा झेलनी है, किस लिए बिस्तर पर पड़े-पड़े पीठ के घावों की यातना सहते हुए मरने का अभिशाप झलने के लिए मजबूर किया जाय?

जान पड़ता है कि पैसिव यूथेनेशिया के कानून की बुनियादी बातें भारत में ठोस रूप ले चुकी हैं. संसद में पारित हो सकने लायक कानून का मसौदा बन जाए तो इस सिलसिले में चीजें और भी ज्यादा स्पष्ट होकर सामने आएंगी.

मिसाल के लिए शानबाग जजमेंट तथा अन्य के मामले में कोर्ट से की गई याचना के अनुकूल आत्महत्या के बारे में कहा गया कि वह अपराध नहीं है, हां आत्महत्या के लिए उकसावा देना अब भी अपराध की श्रेणी में है.

इसी सोच की टेक पर कोर्ट ने मंजूरी दी कि अस्पतालों में मॉरफिन की ज्यादा मात्रा रखी जा सकती है. डाक्टरों ने शानबाग जजमेंट का हवाला दिया था.

शानबाग जजमेंट के ही कारण मरणासन्न हालत में पड़े मरीज के चिकित्सीय और वैधानिक अधिकारों की बातों पर रोशनी पड़ी थी. अगर इन बातों का ध्यान रखें तो फिर पैसिव यूथेनेशिया के खास संदर्भ में ‘डीएनडी’ गैर-कानूनी कैसे हो सकता है ? डीएनडी की रुपरेखा अगर न्याय-प्रक्रिया या फिर संसद के हाथों मंजूरी हासिल करके सामने आती है तो और भी बेहतर कहलाएगा. आखिर मौत का इंतजार कर रहा कोई मरीज शोक-संताप में पड़े अपने प्रिय संगी-साथियों और परिजनों को किसी दोष-भावना से उबारना चाहता है तो उसकी इस चाह को असंवैधानिक कैसे करार दिया जा सकता है ?

गालिब का एक शेर है- मरते हैं मरने की आरजू में, मौत आती है मगर नहीं आती. इस शे’र का सहारा लेकर कहें तो असल सवाल यह है कि किसी भारतीय को उस समय क्या करना चाहिए जब मरने की आरजू में मौत का इंतजार लगा हो और मौत देरतक आये ही नहीं ?

क्या किया जाए जब मस्तिष्क काम करना बंद कर चुका हो और तब भी कृत्रिम रूप से सांस देना जारी रखा गया हो ? ऐसी मरणासन्न दशा में मेडिकल सपोर्ट के सहारे किसी रोगी को 10 साल से लेकर 40 साल तक रखा जा सकता है.

इन सवालों पर बात कीजिए. डॉक्टर, दोस्त, परिवार के लोग, संगी-साथियों सबसे खुलकर बात कीजिए. डीएनडी के बारे में बात करना गैर-कानूनी नहीं है. कौन जानता है कि कानून आपकी ऐसी बातों पर सचमुच कभी ध्यान दे !

(राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता पिंकी विरानी ने पांच बेस्टसेलर पुस्तकें लिखी हैं और बच्चों को यौन-दुष्कर्ष से बचाने के कानून के बनने में मददगार रही हैं)

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