पिछले दिनों सायरस मिस्त्री को टाटा संस के अध्यक्ष पद से बेदखल कर दिया गया. उन पर टाटा समूह के मूल्यों का पालन न करने का आरोप लगा.
कमोबेश इसी तरह 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस पार्टी के खिलाफ जाने के आरोप में पार्टी से निकाल दिया गया था.
47 साल पहले 12 नवंबर 1969 को कांग्रेस में हुए इस घटनाक्रम के बाद पार्टी दो फाड़ हो गई थी. टाटा समूह के अंदर भी 18 फीसदी हिस्सेदारी के साथ सायरस मिस्त्री ऐसा ही कुछ करने का माद्दा रखते हैं.
उन दिनों कांग्रेस पार्टी में हावी ‘सिंडीकेट’ ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए नीलम संजीव रेड्डी को उम्मीदवार बनाया था.
लेकिन ‘दुर्गा’ बनने से पहले ‘गूंगी गुड़िया’ मानी जाने वाली इंदिरा को इस पद पर ‘अपना’ उम्मीदवार चाहिए था.
इंदिरा ने राष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में वी वी गिरी को खड़ा किया और कांग्रेसजन से मतदान के समय अपनी ‘अंतरात्मा’ की आवाज सुनने का आव्हान किया. इस चुनाव के बाद वीवी गिरी भारत के राष्ट्रपति चुने गए थे.
टाटा संस ने भी जब मिस्त्री को अध्यक्ष पद से हटाया, तब उसे अंदाजा नहीं था कि सायरस के पास कुछ छिपे हुए अस्त्र भी हो सकते हैं.
एकजैसे विरोध का सामना
मिस्त्री ने अपनी चिट्ठी से सीधे रतन टाटा पर हमला बोला और समूह की कार्यशैली पर सवाल उठाकर उसे कटघरे में ला खड़ा किया. मिस्त्री आज भी समूह की कई कम्पनियों के अध्यक्ष हैं.
1969 के नवंबर में जो हालात कांग्रेस के थे, वैसे ही 2016 के नवंबर में टाटा समूह के हैं.
सवाल यह उठता है कि कांग्रेस पार्टी जनता के लिए है या फिर अपनी ही पार्टी के नियमों की गुलाम? ठीक इसी तरह टाटा समूह की प्रतिबद्धता पारसी समुदाय ट्रस्ट द्वारा तय मूल्यों के प्रति है या फिर निवेशकों के हित सुरक्षित करने में?
इंदिरा गांधी ने कांग्रेस सिंडीकेट एसके पाटिल, मोरारजी देसाई, एस निजलिंगप्पा और के कामराज के खिलाफ जाकर नई कांग्रेस का गठन किया.
राष्ट्रपति चुनाव में अपना उम्मीदवार जिताने के बाद 1971 के आम चुनाव में 44 प्रतिशत वोट हासिल किए. इन नतीजों के बाद दुर्गा के अवतार में आई इंदिरा ने 518 में से 352 सीटें जीत कर प्रचंड बहुमत हासिल किया था.
मिस्त्री के लिए इंदिरा जैसा चमत्कार दिखा पाना आसान नहीं होगा. इतिहास की किसी घटना से तुलना और उसका दोहराव कर पाना, दो अलग बातें हैं.
अगर मिस्त्री ऐसा करना भी चाहें तो उनके पास ही तरीका है. वो टाटा ट्रस्ट के नियंत्रण वाली टाटा टंस के बजाय ऐसी कंपनियों पर दांव खेल सकते हैं, जिनके निवेशकों में अपने हक की आवाज उठाने की आजादी है.
साइरस मिस्त्री के फैसलों पर सवाल
टाटा समूह से मिल रहे संकेतों से तो यही लगता है कि रतन टाटा अपने रसूख का इस्तेमाल करेंगे. इस रसूख के दबाव में जीवन बीमा निगम जैसी सरकारी कम्पनियां उनके पक्ष में जा सकती हैं. हालांकि दीपक पारेख सरीखे कुछ स्वतंत्र निदेशक पहले ही मिस्त्री के पक्ष में आ गए हैं.
संयोग से टाटा समूह की हर कंपनी में हिस्सेदारों का संतुलन है. टाटा के वित्तीय संस्थाओं और छोटे निवेशकों के बीच अभी काफी छींटाकशी होना बाकी है.
ये निवेशक कुछ कठिन सवाल भी उठा सकते हैं. मसलन
इससे कंपनी के निवेशकों में रोष भी था. टाटा समूह की तमाम कम्पनियां आज भी टाटा संस को ब्रैण्ड फीस देने पर मजबूर हैं. देखने वाली बात यह होगी कि टाटा इस बार क्या नई पेशकश ले कर आती है.
सायरस मिस्त्री में भले ही इंदिरा गांधी के 1971 जैसा करिश्मा न हो. लेकिन इतना तो साफ है कि जवाबदेही का मुद्दा उठाकर छोटे निवेशकों और वित्तीय संस्थानों में कमोबेश इंदिरा के ‘गरीबी हटाओ’ के नारे जैसा आकर्षण पैदा तो कर ही दिया है.
अब देखना यह है कि सरकारी वित्तीय संस्थाएं ‘सिंडीकेट’ के पक्ष में जाती हैं या फिर इसे चुनौती देने वाले मिस्त्री के खिलाफ?
इस कॉरपोरेट वॉर का नतीजा चाहे जो भी हो लेकिन यह पूरा घटनाक्रम 1969 में कांग्रेस के भीतर मचे बवाल से मिलता-जुलता है.
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