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जहरीली शराब से मौत: यूनिफॉर्म टैक्स न होने के कारण राज्य बने अवैध स्मगलिंग के केंद्र

पिछले दिनों देश के दो राज्यों उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में जहरीली शराब पीने के बाद होने वाली मौतों की संख्या 100 के आंकड़े को पार कर गई है.

Updated On: Feb 13, 2019 05:56 PM IST

Pallavi Rebbapragada Pallavi Rebbapragada

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जहरीली शराब से मौत: यूनिफॉर्म टैक्स न होने के कारण राज्य बने अवैध स्मगलिंग के केंद्र

पिछले दिनों देश के दो राज्यों उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में जहरीली शराब पीने के बाद होने वाली मौतों की संख्या 100 के आंकड़े को पार कर गई है. हरिद्वार से लेकर सहारनपुर, कुशीनगर, रुड़की और मेरठ तक से लोगों के मरने की खबरें लगातार आ रही है. ये मौतें उत्तराखंड से लेकर उत्तर प्रदेश तक फैली हुई है.

रविवार की रात, जब जहरीली शराब से हो रही मौत की खबर पहली बार सामने आई, उसी वक्त राज्य सरकार ने ऐलान कर दिया कि वो इस मामले की जांच एक पांच सदस्यीय विशेष जांच-दल से करवाएगी. उत्तर प्रदेश की पुलिस ने गोरखपुर, चित्रकूट, महाराजगंज, मथुरा, गाजियाबाद और हमीरपुर के कई इलाकों में रेड भी डाली है.

इस बीच विपक्षी दलों ने सोमवार को राज्य विधानसभा इस मामले को लेकर जबरदस्त हंगामा कर दिया, उन्होंने इस मसले पर राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से इस्तीफे तक की मांग कर दी. राज्य सरकार पर लगे आरोपों के जवाब में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के नेताओं पर तीखा प्रहार किया. उन्होंने समाजवादी पार्टी के उन नेताओं पर हमला किया जिन पर राज्य में अवैध शराब के कारोबार में लिप्त होने के आरोप लगे हुए हैं.

Yogi Adityanath addresses the press Lucknow: UP Chief Minister Yogi Adityanath after addressing a press conference at his residence in Lucknow, Friday, Dec. 14, 2018. (PTI Photo/Nand Kumar) (PTI12_14_2018_000131B)

समाजवादी पार्टी के इन नेताओं पर राज्य के हरदोई, आजमगढ़, कानपुर और बाराबंकी के इलाकों में अवैध शराब का कारोबार करने का आरोप लगा हुआ है. सच तो ये है कि अवैध और जहरीली शराब से होने वाली इन मौतों के लिए, किसी एक राज्य की सरकार पर दोष डालना सही नहीं हो सकता है, और न ही राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के जरिए इस तरह की घटनाओं को दोबारा होने से रोका जा सकता है. भारत अपनी आजादी के 73वें साल में प्रवेश कर चुका है, लेकिन अभी तक हमारे यहां एक राष्ट्रीय अल्कोहल या शराब पॉलिसी का गठन नहीं किया जा सका है.

इस दिशा में गंभीर कदम या कोशिश की शुरुआत साल 2010 में ही हो पाई. वो भी तब जब डब्लूएचओ यानि वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाईजेशन या विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी ग्लोबल नीति की शुरुआत की. विश्व स्वास्थ्य संगठन की इस ग्लोबल पॉलिसी के तहत जहरीली शराब के इस्तेमाल को कम करने की दिशा में पहल करने की बात की गई थी. डब्लूएचओ की इस नीति को दुनिया के 193 देशों ने अपनाया था, ये सभी देश संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देश थे.

ये सब तब हुआ जब सिविल सोसायटी से जुड़े उसके साझेदार एक साथ आगे आए और उन्होंने मिलकर इंडियन अल्कोहल पॉलिसी अलाएंस यानि आएपीए का गठन किया. आईएपीए बाद में नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर सोशल डिफेंस एंड द मिनिस्ट्री ऑफ सोशल जस्टिस एंड एंपॉवरमेंट के साथ आकर जुड़ गया. इन तीनों विभागों ने विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी की गईं नियमावालियों का पालन करते हुए, एक राष्ट्रीय नीति का निर्माण किया, जिसका मकसद जहरीली शराब से होने वाले नुकसान को कम करना था.

अब सवाल ये उठता है कि इस राष्ट्रीय नीति के तहत जो सुझाव दिए गए उनकी मौजूदा समय में क्या स्थिति है? जवाब है-‘निराशाजनक. ये कहना है अल्कोहल एंड ड्रग इनफर्मेशन सेंटर के निदेशक जॉन्सन एडायारानमुला का. जॉन्सन उस आईएपीए टीम के सदस्य थे, और मानते हैं कि शराब को हर हाल में संविधान में प्रयुक्त समवर्ती सूची का हिस्सा होना चाहिए. जहां केंद्र राज्य द्वारा बनाए गए किसी भी कानून को निरस्त कर एक नया कानून बना सकता है.

जॉन्सन पूछते हैं, 'अगर तंबाकू और नशीले पदार्थ एक राष्ट्रीय समस्या हैं, तो ऐसा क्यों है कि शराब अभी तक राज्य के अधीन आने वाला विषय है, वो भी तब जब संयुक्त राष्ट्र के साल 2030 के दीर्घकालिक लक्ष्यों में शराब से होने वाले नुकसान को, जनता की सेहत को खतरे में डालने वाले चार खतरों के रूप में चिन्हित किया गया है?'

जॉन्सन के अनुसार, 'एक के बाद कई स्वास्थ्य बजट में सिगरेट या बीड़ी पीने से होने वाले नुकसान का जिक्र किया गया है, लेकिन शराब से होने वाले नुकसान को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है. दिल्ली, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश जैसे राज्यों में शराब के व्यापार और उसके वितरण पर राज्य सरकारों का अधिकार है. लेकिन, कर्नाटक, गोवा और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में ऐसा नहीं है. इसकी वजह से वितरकों की चांदी हो जाती है. वे लोग इस कानून का फायदा उठाकर एक परमिट का इस्तेमाल कर, खुद को आवंटित किए गए माप से ज्यादा शराब का आयात करते हैं और टैक्स में मिली छूट का भरपूर फायदा उठा लेते हैं.

चूंकि, शराब संविधान की 7वीं अनुसूची में शामिल है, इसलिए राज्यों के पास उसके संबंध में जुड़े फैसले लेने के अधिकार हैं. इसका एक उदाहरण 2016 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया वो फैसला है जिसमें राष्ट्रीय और प्रदेश हाईवे से 500 मीटर की दूरी तक शराब की दुकान न चलाए जाने का आदेश दिया गया था.

लेकिन, अदालत के इस फैसले के कारण जिन लोगों की रोजी-रोटी पर असर पड़ा था, खासकर होटल के व्यवसाय से जुड़े लोगों पर, उस वजह से सुप्रीम कोर्ट को अपने ही दिए गए निर्णय को कमजोर करना पड़ा था. अदालत ने अपने फैसले को हल्का करने के लिए इसमें बाद में नया प्रावधान तक डाल दिया जिसके तहत ये कहा गया कि उसके द्वारा दिया गया पूर्व का निर्णय न तो लाइसेंसधारी दुकानों पर लागू होता है और न ही नगर-निगम के अंतर्गत आने वाले इलाकों में.

जिसका नतीजा ये हुआ कि राज्य सरकारों ने राष्ट्रीय राजमार्गों को डी-नोटिफाई करना शुरू कर दिया, और ऐलान कर दिया कि ये सड़कें या तो स्थानीय हैं या राज्य मार्ग. इसके अलावा जो एक और सुझाव आईएपीए की तरफ से दिया गया था वो देश में शराब को लेकर एक यूनिफॉर्म यानि एक समान टैक्स प्रणाली लागू करने की बात थी. हालांकि, जीएसटी लागू होने के बाद इस सुझाव को अमल करने का रास्ता साफ हो गया है. ऐसा शराब को जीएसटी के भीतर लाकर किया जा सकता है, और शराब को जीएसटी के भीतर लाने से ये भी होगा कि उसके परिवर्तनशील कीमत पर एक रोक लगेगी, जिससे अंतरराज्यीय स्मगलिंग पर भी काफी हद तक लगाम कसी जा सकेगी.

गुजरात, बिहार, नगालैंड और लक्षद्वीप जैसे राज्यों में शराब की बिक्री पर रोक लगी हुई है. केरल में, वामदलों की मिली-जुली सरकार ने पूर्व की सरकार द्वारा शराब पर लगाई गई पाबंदी को कमजोर किया. साल 2017 में, राज्य में शराब की खरीद फरोख्त काफी हद तक, हर तरह की पाबंदी से मुक्त हो गई. जबकि, शराबबंदी के दौर में, राज्यभर में शराब की कम से कम 730 दुकानों पर ताला लगा दिया गया, लेकिन इन सभी कोशिशों पर बहुत जल्द पानी फेर दिया गया. मणिपुर में पूर्व मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह ने ऐसी कोशिश की कि किसी भी तरह से कम से कम राज्य असेंबली की कैंटीन में शराब की बिक्री पर लगी पाबंदी हटा दी जाए, लेकिन ऐसा हो न सका. आज सालों बाद में राज्य में शराब पर जो बैन लगाया गया था वो बदस्तूर जारी है.

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प्रतीकात्मक तस्वीर

साल 2013 में पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट में, कई केंद्रीय विभागों में तालमेल की कमी का सवाल उठाया गया. एक तरफ जहां सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय (एमओएसजीई) शराब के इस्तेमाल और उसकी रोकथाम से जुड़े कार्यक्रम चलाता है. ऐसे नेटवर्क और सामर्थ्य के निर्माण कार्य में लगा है जिसकी मदद से शराब से बचाव, शराबबंदी, निगरानी का कार्य करता है. वहीं दूसरी तरफ स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय शराब छुड़वाने से जुड़े कार्यक्रम आयोजित करवाता है. टैक्स और एक्साइज की जिम्मेदारी वित्त मंत्रालय और राज्य एक्साइज विभाग की जिम्मेदारी होती है.

इन विभिन्न विभागों के बीच कहीं भी एक व्यवस्थित तालमेल की कमी देखी गई है. इसलिए होता ये है कि शराब के उत्पादन और उसकी बिक्री का कोई विस्तृत राष्ट्रीय आंकड़ा मौजूद नहीं है.

साल 2004 में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने रजत रे के नेतृत्व में एक अध्ययन पर पैसा लगाया. रजत रे मनोविज्ञान विभाग के पूर्व प्रमुख और नेशनल ड्रग डिपेंडेंस ट्रीटमेंट सेंटर (एनडीडीटीसी) के पहले निदेशक के तौर पर काम कर चुके हैं. साल 2018 में शराब से होने वाले नुकसान पर एक नया राष्ट्रीय अध्ययन जारी किया गया, जिसे इसी मंत्रालय ने वित्तीय स्तर पर प्रायोजित किया है. ये अध्ययन रिपोर्ट अपने अंतिम चरण में है और इसे जल्द ही सार्वजनिक किया जाएगा.

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एम्स स्थित नेशनल ड्रग डिपेंडेंस ट्रीटमेंट सेंटर के प्रोफेसर डॉ. अतुल अंबेकर इस अध्ययन कार्य का नेतृत्व कर रहे हैं. उन्होंने फर्स्टपोस्ट से बातचीत करते हुए बताया कि बाजार में वैध और अच्छी गुणवत्ता की शराब की कमी के कारण ही ब्लैक मार्केट का फैलाव हो रहा है, खासकर उन इलाकों में जहां सामाजिक तौर पर शराब का सेवन को न सिर्फ़ स्वीकृति मिली हुई है, बल्कि वो दैनिक जीवन का एक हिस्सा बना हुआ है. हरिद्वार में जहरीली शराब से जो मौतें हुईं हैं, वहां पर शराब का सेवन किसी की मौत के बाद हुए तेरह दिनों के श्राद्ध कार्यक्रम के दौरान किया गया था.

प्रोफेसर अंबेकर बताते हैं कि घर में जो शराब बनाई और तैयार की जाती है, उससे ज्यादा नुकसान नहीं होता है. असल नुकसान, उन छोटे-छोटे इकाइयों में होता है जहां शराब की डिस्टिलेशन यानि खिंचाव या आसवन किया जाता है. ये इकाईयां ज्यादातर अवैध तौर पर चलाई जाती हैं.

एम्स में सीनियर सोशल साइंटिस्ट के तौर पर कार्यरत एचके शर्मा, जो भारत में अवैध और जहरीली शराब के इस्तेमाल पर पिछले तीस सालों से शोध कर उस पर लगातार लिख रहे हैं, वो कहते हैं कि, भारत जहरीली और अवैध शराब एक बहुत बड़ा बाजार है.

ये छोटी-छोटी शराब बनाने वाली इकाइयां अक्सर शराब में इस्तेमाल की जाने वाली एथेनॉल की जगह मिथाइल अल्कोहल का इस्तेमाल करते हैं. एचके शर्मा ने अवैध और जानलेवा जहरीली शराब बनाने की प्रक्रिया को समझाते हुए हमें बताया, ‘चूंकि इस रसायन का फैक्ट्रियों में खूब इस्तेमाल होता है, इसलिए इसे हासिल करना बहुत आसान होता है. शराब और ज्यादा असरदार बनाने के लिए, उसमें फैटी एसिड, यूरिया और एमोनियम क्लोराइड भी मिला दिया जाता है.'

फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ने साल 2015 में दी गई अपनी रिपोर्ट में बताया, 'अवैध शराब का बाजार, साल 2002 के बाद काफी बढ़ गया है. अवैध शराब की इस बढ़ती खपत के कारण जो वैध डिस्टिलर्स  हैं, उन्हें कम से कम 14,140 करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है. ‘हम बड़ी आसानी से ये कह सकते हैं कि इस समय भारत में जितना भी शराब का उत्पादन हो रहा है उसका 25 से 35 प्रतिशत इन अवैध ठेकों पर किया जा रहा है.’ ये जानकारी भी एचके शर्मा ने हमें दी.

साल 1994 में, आंध्रप्रदेश की कांग्रेस सरकार पर इतना दबाव था कि उन्हें राज्य में ताड़ी की बिक्री पर पाबंदी लगानी पड़ी थी. ताड़ी की बिक्री से राज्य सरकारों को लाखों का एक्साइज ड्यूटी मिला करती थी. ऐसा करने के पीछे की वजह राज्य के नेल्लोर गांव के दुबांगुता में रहने वाली कुछ साक्षर और शिक्षित महिलाओं का संगठन था. दिल्ली के नरेला में जहां मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के काफिले पर कुछ दिन पहले हमला किया था, वहां एक अकेली महिला ने अवैध शराब के खिलाफ आंदोलन खड़ा कर दिया है. इस इलाके में राजस्थान के सांसी समुदाय के लोग भी बहुतायत में बसे हैं, जो अवैध और जहरीली शराब बनाने के लिए कुख्यात हैं. लेकिन, आंध्रप्रदेश की महिलाओं की तरह ये महिला सफल नहीं हो पाई है.

39 साल की परवीन जो चार लड़कियों की मां है, उसने पश्चिमी दिल्ली के नरेला में, सांसी के इन शराब डीलरों का भंडाफोड़ करने की बहुत कोशिश की, उसने उनके खिलाफ न सिर्फ एफआईआर दर्ज कराई बल्कि उसके इलाके में अवैध शराब के धंधे को उजागर करते हुए, डीसीपी और दिल्ली महिला आयोग को चिट्ठियां तक लिखीं (ये चिट्ठियां फर्स्टपोस्ट के पास भी हैं). साल 2017 में सोशल मीडिया पर एक वीडियो भी सामने आया था, जिसमें देखा गया था कि कैसे ये अवैध शराब कारोबारी परवीन के मारपीट कर रहे हैं, जिसके बाद दिल्ली महिला आयोग में उसे सुनवाई के लिए बुलाया गया था.

परवीन कहती है, 'आज तक आरोपियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की गई है, उसे लगता है कि ये बहुत ही निराशाजनक है कि दिल्ली का मिक्स्ड लैंड यूज कानून लोगों को अपने घरों से शराब उत्पादन की छूट देता है और इस अवैध कारोबार की कोई जांच तक नहीं हो पाती है. शालीन मित्रा, जो कि दिल्ली सरकार में एक सलाहकर्ता के तौर पर कार्यरत हैं, कहते हैं- पुलिस और एक्साइज डिपार्टमेंट के बीच जो तालमेल की कमी के कारण ही परवीन को अपनी लड़ाई में हार का सामना करना पड़ा है.

वे पूछते हैं कि, अगर केंद्र सरकार इस संबंध में एक मजबूत कानून बना लेती, तो क्या उसकी मदद से जिला और पंचायत स्तर पर भी इस तरह के अवैध कारोबारियों पर सख्त नजर रखी नहीं जा सकती थी? सिर्फ प्रतिनिधियों द्वारा जारी किए गए विज्ञापनों और शराब आपूर्ति से जुड़े विभाग के अधिकारियों को शून्य जिम्मेदारी देकर, ये अवैध और जहरीला व्यवसाय बड़ी आसानी से फलफूल रहा है. जहरीली शराब से होने वाली ये मौतें किसी एक सरकार की लापरवाही का नतीजा नहीं है, बल्कि ये कई सरकारों के तौर-तरीकों और उनकी नैतिक शक्ति की सामूहिक विफलता है.

( इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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