केंद्र सरकार ने इस हफ्ते एक गजेट (राजपत्र) अधिसूचना के जरिए देश में, एचआईवी और एड्स प्रिवेंशन एंड कंट्रोल एक्ट 2017 को लागू कर दिया है. इस कानून को पिछले साल ही अप्रैल 2017 में राष्ट्रपति ने मंजूरी दे दी थी.
‘एचआईवी और एड्स प्रिवेंशन एंट कंट्रोल एक्ट 2017’ एक बेहद ही महत्वपूर्ण कानून है, जो देश में रह रहे एचआईवी पॉजिटिव और एड्स से पीड़ित लोगों को समान अधिकार देने की सुविधा मुहैय्या कराएगा. इस कानून के तहत किसी भी एचआईवी या एड्स पीड़ित व्यक्ति चाहे वो पुरुष हो या महिला, उसके साथ इस आधार पर कि वो इस बीमारी का शिकार है, न तो निजी या सरकारी शिक्षण संस्थानों और न ही उनकी नौकरी वाले संस्थानों में भेदभाव किया जा सकेगा.
क्या कहता है ये कानून?
इसके अलावा ये कानून किसी भी एचआईवी पॉजिटिव पीड़ित व्यक्ति के साथ किराए पर घर लेने और इलाज के दौरान भी किसी तरह के भेदभाव से उनकी रक्षा का भी दावा करता है. इस कानून में ये भी साफ तौर पर कहा गया है कि इस बीमारी से पीड़ित किसी भी व्यक्ति पर बिना उसकी मर्जी के किसी तरह की मेडिकल जांच या रिसर्च भी नहीं किया जा सकता है. कोई भी पीड़ित व्यक्ति को कोई संस्था या संस्थान इस बात के लिए बाध्य नहीं कर सकती है कि उसे नौकरी पाने या किसी तरह की सेवा पाने के लिए अपना एचआईवी स्टेट्स सार्वजनिक करना होगा. ये तभी जरूरी होगा जब वो व्यक्ति इसे लेकर सहज हो या फिर अदालत ने उसे ऐसे निर्देश दिए हों.
इसके अलावा ये कानून, पीड़ित लोगों के संपत्ति के अधिकार को भी सुनिश्चित करता है, कानून में साफ लिखा है कि 18 साल से कम उम्र का एचआईवी इन्फेक्टेड व्यक्ति का ये अधिकार है कि वो अपने परिवार के साथ रहे और उसके साथ न तो कोई रोक-टोक हो, न ही सामाजिक तिरस्कार या बहिष्कार, उसका और उसके परिवार दोनों का. जो लोग ऐसी हरकत करते पाए जाएंगे उन्हें दो से तीनसाल की जेल की सजा और कम से कम एक लाख रुपए की पेनाल्टी भरनी होगी. कभी-कभी दोनों ही. इन सब के अलावा एचआईवी पीड़ित महिलाओं और बच्चों की देखभाल के लिए विशेष ध्यान देने की जरूरत पर भी जोर दिया गया है.
पर सवाल ये है कि क्या ये कानून देश के सैंकड़ों एचआईवी और एड्स पीड़ित मरीजों के जीवन में क्या कोई बड़ा बदलाव लेकर आएगा? इसका जवाब है हां. अगर अब लोगों तक या फिर इस बीमारी से पीड़ितों मरीजों और उनके घरवालों तक इस कानून की जानकारी पहुंच सके. मसलन- इस कानून के लागू होने के साथ ही- अब ये सरकार की जवाबदेही बन जाती है कि वो एड्स/एचआईवी पीड़ित मरीजों को इलाज और बेहतर जिंदगी मुहैय्या कराए. अगर वो ऐसा करने में नाकाम साबित होता है तो उस मरीज के पास ये अधिकार है कि वो सरकार को कोर्ट ले जा सकती है क्योंकि अब इस कानून के बनने के बाद, इन सुविधाओं पर उस नागरिक का कानूनन अधिकार हो जाता है.
पारिवारिक और सामाजिक भेदभाव से मुक्ति
दूसरी और अहम बात जो इस कानून के बनने के बाद पीड़ित मरीज और उसके परिवार को मिलता है, वो है उनके साथ किसी भी तरह का भेदभाव न हो. न तो सामाजिक स्तर पर, न सांगठनिक स्तर और न ही मेडिकल स्तर पर. भारत जैसे देश में जहां जागरूकता की भयंकर कमी है, लोग छुआ-छूत जैसी धारणाओं से बाहर नहीं निकल पाए हैं, समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी सोशल स्टिगमा यानि सामाजिक कलंक जैसी मान्यताओं के सहारे चल रहा है, वहां कई बार देखा गया है कि उसका असर न सिर्फ मरीज और उसके परिवार को सामाजिक तौर पर झेलना पड़ता है, बल्कि कई बार ये भेदभाव अस्पतालों और डॉक्टरों के जरिए होता हुआ दिख जाता है. इसलिए ये कानून उन डॉक्टरों और मेडिकल प्रैक्टिश्नरों पर भी अंकुश लगाने की कोशिश कर रहा है जो कहीं न कहीं इलाज के दौरान ऐसे मरीजों के साथ भेदभाव करने लगते हैं.
एक्ट के तहत एक खास अधिकतर मरीजों को दिया गया है जिसे इन्फॉर्म्ड कन्सेंट के कॉर्नर में डाला गया है. इसमें ये कहा गया है कि हालांकि- ये सरकार की जिम्मेदारी और पीड़ित का अधिकार है कि उसका इलाज और देखभाल किया जाए, लेकिन इसके बाद भी-ऐसा करने या न करने का अंतिम फैसला मरीज का ही होगा. इसमें- उसके साथ किसी तरह की जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए, उसे इलाज के तरीकों के बारे में पता होना चाहिए और ये भी कि इलाज से उसे कितना फायदा होगा और कितना नुकसान. ये सबकुछ बताने के बाद अगर व्यक्ति उससे संतुष्ट होता है और खुद से इलाज के लिए शारीरिक और मानसिक तौर पर तैयार होता है तभी उसका इलाज शुरू किया जाना चाहिए. अदालत यहीं नहीं रुकती, वो ऐसे लोगों के आर्थिक अधिकारों को भी सुनिश्चित कर रही है, ये कहते हुए कि अगर कोई व्यक्ति एचआईवी पीड़ित है तो इस आधार उसके परिवार वाले न तो उसे घर से बेघर कर सकते हैं, और न ही संपत्ति से बेदखल. यानि, बीमारी अपनी जगह, व्यक्ति के नागरिक और पारिवारिक अधिकार अपनी जगह.
मरीजों को भी रखना होगा ध्यान
लेकिन, अदालत इसके साथ ही, एड्स के मरीजों और एचआईवी पॉजिटिव लोगों को ये भी कहती है कि उनकी समाज और देश के प्रति कुछ जिम्मेदारियां भी हैं जिसका निर्वाह करना उनकी तरफ से बहुत जरूरी है. उनके ऊपर भी कुछ रीजनेबल रेस्ट्रिक्शंस हैं. एक्ट में कहा गया है कि ऐसे मरीज जो अपनी इस घातक बीमारी से अवगत हैं और ये भी जानते हैं कि ये बीमारी शारीरिक संबंधों के जरिए उनके पार्टनर्स तक पहुंचता है तो ये उनकी जिम्मेदारी है कि वो इस बात का ध्यान रखें. शारीरिक संबंध बनाने के दौरान वो सभी तरह के जरूरी बचाव पर ध्यान दें, जिसमें कॉन्डोम का इस्तेमाल और इस्तेमाल की गई सीरींज शेयर न करना प्रमुख है. जो लोग जानकारी होने के बाद भी ऐसा करते हुए पाए जाएंगे या दोषी साबित होंगे, तब उन पर भी कार्रवाई की जा सकती है. इन लोगों पर अपने परिवार के बच्चों और महिलाओं का विशेष ख्याल रखने की बात भी कही गई है.
इस कानून को पास करते हुए सुप्रीम कोर्ट के बेंच के जज चीफ जस्टिस राजेंद्र मेनन और जस्टिस सी. हरिशंकर ने स्वास्थ्य मंत्रालय से पूछा कि आप एक कानून बनाते हैं लेकिन उसे नोटिफाई क्यों नहीं कराते? जजों के बेंच ने याद दिलाया कि इस मामले की सुनवाई पिछले साल 26 नवंबर को ही होनी थी जो बिना कोई कारण बताए लगभग एक साल से अटकी पड़ी है. इस सवाल के साथ दोनों जजों ने इस अधिनियम को पारित करते हुए उसे कानून का अमली-जामा पहना दिया. इस उम्मीद के साथ कि आने वाले समय में ये कानून इस जानलेवा बीमारी से पीड़ित मरीजों और उनके परिवारों के लिए राहत लेकर आएगा.
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