दिल्ली की एक अदालत ने बुधवार को पूर्व कोयला सचिव एचसी गुप्ता को जमानत दे दी. ये उन्हें सीबीआई कोर्ट द्वारा सजा सुनाए जाने के थोड़ी ही देर बाद हुआ. सीबीआई की विशेष अदालत ने पूर्व कोयला सचिव एच.सी. गुप्ता को तीन साल के कारावास की सजा सुनाई थी. ये सजा उन्हें पश्चिम बंगाल में कोल ब्लॉक आवंटन में हुए घोटाले में आपराधिक साजिश और कदाचार के ज़ुर्म में सुनाई गई. ये मामला असाधारण तो है ही, भारतीय प्रशासनिक ढांचे के लिए डरावने अपशकुन की तरह भी है.
सबसे पहले मैं आपको ये बता दूं कि मैं एचसी गुप्ता को व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानता. लेकिन ये जरूर जानता हूं कि वे अपनी बढ़िया साख के लिए मशहूर अफसरों में गिने जाते हैं. और ये साख ऐसे ही नहीं बनी है, 35 बरस की शानदार नौकरी के दौरान बनी है. उनकी छवि के बारे में आप किसी भी ऐसे शख्स से पूछ सकते हैं, जो उन्हें जानता हो या जिसने उनके साथ काम किया हो.
लोग एक सुर से उन्हें ऐसा दुर्लभ ईमानदार अफसर बताएंगे, जिसका सर्विस रिकॉर्ड शानदार रहा, और अपने जीवन में जबरदस्त तौर पर निर्भीक और बेहद अनुशासित रहा. वे एक ऐसे अफसर के तौर पर जाने जाते थे, जिसे आदर्शवाद और समर्पण का पैमाना माना जाता रहा. अजीब सा लगता है जब ऐसे किसी अफसर को भ्रष्टाचार के मामले में सजा सुनाई जाती है.
साफ तौर पर गुप्ता की ओर से सिफारिशें करना कोई आपराधिक इरादा नहीं था (हालांकि अदालत ने इसे दुर्भावनापूर्ण बताया था) और न ही कोई ऐसा सबूत था जिससे कि ये साबित हो सके कि किसी व्यक्तिगत लाभ के लिए एचसी गुप्ता ने ये सिफारिशें कीं. तो सवाल ये है कि अगर उनके द्वारा की गई सिफारिशें, बिना किसी व्यक्तिगत लाभ या फायदे के आधिकारिक तौर पर नेकनीयती से की गईं हैं, तो उन्हें सजा क्यों दी जा रही है ? वह भी एक बार नहीं, कई बार?
इसकी एक बड़ी वजह वह कानून है, जिसे भ्रष्टाचार निवारक अधिनियम के नाम से जाना जाता है. खास तौर पर इस कानून का बदनाम सेक्शन 13(1)(d) और उसका इस्तेमाल. हालांकि किस्मत से इसमें अब संशोधन कर दिया गया है. हालांकि ये संशोधन हाल ही में किया गया है और एचसी गुप्ता के केस में इसे लागू नहीं माना जाएगा.
ध्यान से देखें, तो एचसी गुप्ता दरअसल परिस्थितियों के शिकार हुए हैं. ये परिस्थितियां 2012 से शुरू हुई थीं, जब सीएजी की एक ड्राफ्ट रिपोर्ट लीक हो गई, जिसमें कोल ब्लॉक आवंटन को लेकर सरकारी नीति को त्रुटिपूर्ण बताया गया था. लीक हुई इस रिपोर्ट में ऑडीटर्स की ओर से परिकल्पना कर ली गई कि अगर सरकार की नीति के हिसाब से कोल ब्लॉक आवंटन हुआ होता, तो 1,86,000 करोड़ का संभावित नुकसान हो जाता.
मीडिया, राजनीतिक दल, जनहित याचिकाओं, अदालतों और जांच एजेंसियों ने एक के बाद एक 1,86, 000 करोड़ के इस घोटाले को खूब उछाला. हालांकि इस मामले के आने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने बड़े शानदार ढंग से 1993 से लेकर 2010 तक आवंटित सभी कोल ब्लॉक निरस्त कर ये संकेत दे दिया कि सारे आवंटन ‘गैर कानूनी’ थे. इस फैसले से जांच करने वाली एजेंसियों को खुली छूट भी मिली कि वे दोषियों को कानून की गिरफ्त में ले आएं.
इस मामले के बारे में लोगों, यानी आम जनता की राय ये बनी कि इन आवंटनों से सरकारी खजाने से 1,86000 करोड़ रुपए की लूट कर ली गई है. अब किसी को तो इस अपराध में सूली पर चढ़ाना था. बलि के लिए किसी बकरे की जरूरत थी. जिन 17 सालों पर सवालिया निशान लगाए गए हैं, उनमें से सिर्फ तीन साल एचसी गुप्ता कोयला सचिव रहे.
दुर्भाग्य से इस अपराध के लिए दोषी उन्हें ही मान लिया गया. आमतौर पर माना जाता है कि सिस्टम में कुछ भी गड़बड़ है. तो उसका ठीकरा ब्यूरोक्रेसी के माथे फोड़ दो. ऐसा मान लिया जाता है कि सारी जिम्मेदारी नौकरशाहों की है. लोगों को पसंद भी आता है अगर किसी नौकरशाह खींच कर बाहर लाया जाए और सरेआम सूली पर लटका दिया जाए.
जो लोग इतने उच्च स्तर पर काम कर चुके हैं, वे जानते हैं कि आर्थिक मामलों में फैसले लेना काफी कठिन काम होता है. खास तौर पर वहां, जहां अपने विवेकाधिकार से फैसले लेने होते है. नीतियां कैसी भी बनाई जाएं, सिस्टम में ढेर सारे छेद हैं और कोई भी ऐसा फैसला, जिससे किसी को फायदा पहुंच रहा हो, बाद में सवालों के घेरे में आ ही जाता है.
एचसी गुप्ता के मामले में तो ये ‘फैसला’ भी नहीं था, बस मंत्री को की गई सिफारिश भर थी, जिसे अदालत ने गलती के लिए जिम्मेदार नहीं माना. कोयला सचिव की सिफारिशों की फाइल को आदरणीय मंत्री जी ने हरी झंडी दे दी थी, इसके बावजूद माना गया कि मंत्री जी को अंधेरे में रखा गया.
फाइलों पर आधारित गवर्नेंस के सिस्टम में फैसले लेने की प्रक्रिया में, ये स्वत:सिद्ध है कि आपने अगर किसी फाइल पर दस्तखत कर दिए हैं, तो उसकी पूरी जिम्मेदारी आपकी है. यानी आखिरी हस्ताक्षर जिसने किया, जिम्मेदारी उसी की मानी जाएगी. एचसी गुप्ता के मामले में जिम्मेदारी उसकी मानी गई, जिसने मंत्री से पहले दस्तखत किए.
सबसे दुखद पहलू ये है कि शीर्ष अदालतों का इस मामले में फैसला चाहे जो भी हो, लोगों के मन में धारणा बन गई कि पूर्व कोयला सचिव एचसी गुप्ता, कोयला घोटाले के दोषी हैं. इससे उनकी छवि को जो नुकसान हुआ है, उसे फिर से वापस लौटाया नहीं जा सकता.
आईएएस असोसिएशन ने इस मामले को उठाने की बात कही है, लेकिन लोग तो अब यही सोचेंगे कि अपने ही किसी साथी पर आंच आ गई, तो आईएएस अफसर मोर्चे पर उतर रहे हैं. लोग भरोसा भी नहीं करेंगे कि भ्रष्टाचार के मामले मे दोषी माना गया एक अफसर इस हद तक ईमानदार था कि उसके पास अपना केस लड़ने को वकील को देने के लिए भी पैसे नहीं हैं.
इसी पोर्टल में हाल ही में एक लेख में कहा गया था, 'ये बहुत विचित्र बात है कि कैसे जिस शख्स ने घोटाला कर करोड़ों रुपये कमाए हों, उसके पास अपना मुकदमा लड़ने के लिए वकील करने को पैसे नहीं है.' लेकिन इन सारी बातों को दरकिनार कर, फिलहाल अपराध साबित किया जा चुका है. अब कोई चाहे भी तो एचसी गुप्ता की कोई मदद नहीं कर सकता. बस उम्मीद की जा सकती है कि भाग्य उनका साथ देगा और एक दिन ‘गलत’ पर ‘सही’ हावी होगा और उन्हें न्याय मिलेगा.
एक ओर हम एचसी गुप्ता जैसे अच्छे अफसरों के पीछे पड़े हैं, लेकिन दूसरी ओर कई अफसर अपने पद और हैसियत का इस्तेमाल पैसा कमाने में बेरोक-टोक कर रहे हैं. उनकी सोच बड़ी सीधी है कि पैसा कमाने का मौका मिला है, तो उसे ठुकराओ मत.
इस हिसाब से नौकरशाहों का अनाप-शनाप ढंग से पैसा कमाना, अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए पैसे इकट्ठे कर जाना हो सकता है, ठीक हो. उनकी सोच ये भी है कि नौकरी के दौरान किसी मुश्किल हालत में अगर जरूरत पड़ी तो जांच कर रहे अफसरों को सेट करने के लिए, नेताओं को खुश करने के लिए, वकीलों के खर्चे के लिए भी तो पैसा चाहिए. इतना सब इसलिए कि कभी फंस भी गए, तो जेल जाने की नौबत न आए.
इस लिहाज से एचसी गुप्ता इस दुनिया के सबसे बड़े मूर्ख साबित होते हैं. क्योंकि पद, हैसियत और मौका सब होते हुए भी उन्होंने पैसा कमाने का मौका छोड़ दिया और इसके बावजूद सबकी निगाह में ‘भ्रष्टाचारी’ बन गए. लोगों की सोच कुछ ये हो गई है- ‘आदर्शवादी! देखो कितने संकट में पड़ गया है. उसे ये समझ नही आया कि मुश्किल से निकालने के लिए सिद्धांत काम नहीं आते, पैसा काम आता है, अगर वो समझदार होता ! जैसे हम लोग, तो शायद उसका ये हाल न होता. ’
आज अफसरों के बीच कुछ ऐसी ही धारणा बनती जा रही है, और ये बहुत दुखद है. बुरे दनों के बाद अच्छे दिन भी आते हैं. लेकिन इस कहानी में तो मुझे कोई उम्मीद नहीं दिखती.
(लेखक रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं, जिन्होंने भारी उद्योग मंत्रालय में बतौर सचिव काम किया है.)
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