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दिल्ली की कुख्यात ब्लू-लाइन बसों की तर्ज पर सिस्टम क्यों बनाना चाह रही है खट्टर सरकार?

दिल्ली की ही तरह का प्लान हरियाणा सरकार भी बना रही है. ये दिलचस्प होगा कि हरियाणा सरकार दिल्ली से कुछ सीखना चाहती है या नहीं

Updated On: Oct 28, 2018 09:34 AM IST

Jyoti Yadav Jyoti Yadav
स्वतंत्र पत्रकार

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दिल्ली की कुख्यात ब्लू-लाइन बसों की तर्ज पर सिस्टम क्यों बनाना चाह रही है खट्टर सरकार?

हरियाणा रोडवेज पिछले कुछ सालों में तीन वजहों से खबरों में रही थी. पहली वजह थी हरियाणा रोडवेज को केंद्रीय परिवहन मंत्रालय द्वारा लगातार बेस्ट सर्विस का पुरस्कार मिलते रहना. दूसरी वजह थी रोडवेज बस में रोहतक सिस्टर्स के साथ कथित छेड़खानी जो बाद में गंभीर विचार का विषय बना. तीसरी वजह थी एक छोटी सी वीडियो क्लिप जिसमें हरियाणा रोडवेज के दो ड्राइवर बस रेसिंग कर रहे थे.

अब एक नई वजह आई है, जो आनेवाले वक्त के लिए गंभीर विचार का विषय बनेगी. क्योंकि यहां से देश में एक नया ट्रेंड सेट होनेवाला है. हरियाणा रोडवेज के 19 हजार कर्मचारी पिछले 12 दिनों से हड़ताल पर हैं. चार हजार से ऊपर बसें हैं हरियाणा रोडवेज में और सारी रुकी पड़ी हैं. लगभग 12 लाख से ऊपर यात्री रोजाना इन बसों से यात्रा करते हैं. ये हड़ताल 25 साल पुराना रिकॉर्ड तोड़ रही हैं. इससे पहले रोडवेज के कर्मचारी भजनलाल सरकार के खिलाफ 1993 में हड़ताल पर बैठे थे. इस 12 दिन लंबी हड़ताल से हरियाणा सरकार को करीब 50 करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हो चुका है.

कर्मचारियों ने 29 अक्टूबर तक हड़ताल चलाने का निर्णय लिया है. ये हड़ताल सिर्फ रोडवेज के कर्मचारियों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि हरियाणा सर्वकर्मचारी संघ और हरियाणा कर्मचारी महासंघ के लगभग डेढ़ सौ यूनियनों ने हड़ताल में शामिल होने का निर्णय लिया है और एक साथ कई लोग आकस्मिक अवकाश पर जाने की धमकी दे रहे हैं. 42 यूनियन के लोग 27 अक्टूबर को अवकाश पर चले भी गए हैं. इससे सरकारी कामकाज बुरी तरह प्रभावित होने की आशंका है. करनाल, कुरुक्षेत्र में काफी दिक्कतें हो रही हैं.

रोहतक, सोनीपत, झज्जर, भिवानी, रेवाड़ी में भी समस्या हो रही है. टैक्सी वाले इस स्थिति का पूरा फायदा उठा रहे हैं. सबसे दिक्कत बिजली बोर्ड के कर्मचारियों के अवकाश पर जाने से हो रही है. ये कुछ उसी तरह की घटना है, जैसी इंदिरा गांधी के राज में रेल कर्मचारियों के हड़ताल पर जाने की हुई थी.

हरियाणा रोडवेज की चार हजार बसों में से 1464 बसें हरियाणा रोडवेज की हैं, 1059 बसें को-ऑपरेटिव सोसाइटीज की हैं और 279 बसें प्राइवेट लोगों से ली गई हैं.

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क्या वजह है इस हड़ताल की?

हरियाणा सरकार का कहना है कि राज्य में चार हजार रोडवेज की बसें हैं. जबकि यात्रियों की संख्या देखते हुए लगभग तेरह हजार बसें चाहिए. इतनी बसें सरकार खरीद नहीं सकती. इसलिए प्राइवेट बसों को बस चलाने की अनुमति दी जानी चाहिए. इस संदर्भ में अगस्त में हरियाणा सरकार ने 700 प्राइवेट बसों को चलाने का निर्णय लिया. 510 बसों के साथ एग्रीमेंट साइन हो चुका है, बाकी के साथ हो रहा है. रोडवेज कर्मचारी संघ इस घटना को बसों के प्राइवेटाइजेशन की तरह देख रहा है. उनका मानना है कि ऐसे ही धीरे-धीरे सरकार पब्लिक ट्रांसपोर्ट को प्राइवेटाइज कर देगी. पक्की नौकरियां चली जाएंगी और जनता को दिक्कत भी होगी.

सरकार ने तब क्या कहा और अब क्या कह रही है?

अभी तो हरियाणा सरकार कह रही है कि इसका प्राइवेटाइजेशन से कोई लेना देना नहीं है. 33 लाख यात्री हैं हरियाणा में, अभी मात्र बारह लाख लोगों को ही सेवा मिल पा रही है. इसलिए नई बसें जरूरी हैं. बसें चलेंगी पर नियंत्रण हरियाणा रोडेवज का ही रहेगा. यहां तक कि किराया, रूट, कंडक्टर ये सारी चीजें हरियाणा रोडवेज के नियंत्रण में ही रहेंगी. मनोहर लाल खट्टर का कहना है कि 370 नई रोडवेज बसों की भी खरीदारी होगी.

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सरकार ये भी कह रही है कि हरियाणा रोडवेज घाटे में चल रही है. प्रति किलोमीटर 47 रुपए सरकारी खर्च पड़ता है और प्रति किलोमीटर आमदनी 28 रुपए की है. ये विभिन्न कैटेगरी जैसे स्टूडेंट, सीनियर सिटिजन, खिलाड़ी इत्यादि को किराए में छूट देने की वजह से हो रहा है, ऐसा सरकार का मानना है. ये छूट हटा दी जाए तो सरकार प्रॉफिट में आ जाएगी. हालांकि सरकार प्राइवेट बसों को 45 रुपया प्रति किलोमीटर के हिसाब से भुगतान करेगी. ये सरकारी हिसाब समझ नहीं आ रहा.

ये मामला कई सालों से चल रहा है. 16 सितंबर 2014 को तत्कालीन परिवहन मंत्री राम विलास शर्मा ने कहा था कि बसों का प्राइवेटाइजेशन नहीं होगा. 2018 में बात से पलटने को लेकर दुष्यंत चौटाला ने सरकार पर आरोप लगाया है कि ये गुजरात की कुछ कंपनियों को ठेका देना चाहती है, इसलिए निजीकरण की तरफ जा रही है.

रोडवेज यूनियन का क्या कहना है

रोडवेज यूनियन का कहना है कि जितना पैसा प्राइवेट बसों को लाने में खर्च किया जा रहा है, उतने में नई रोडवेज बसें भी तो लाई जा सकती हैं. इसके लिए यूनियन के लोग अपनी सैलरी का दस प्रतिशत देने को भी तैयार हैं. वो ये भी कह रहे हैं कि नई रोडवेज बसें लाने से लोगों को नौकरियां भी मिलेंगी. अप्रैल 2017 में भी इस बात को लेकर रोडवेज ने हड़ताल की थी, जिसमें सौ से ऊपर कर्मचारियों को सरकार ने सस्पेंड किया था. 2013 और जनवरी 2014 में यूपीए की सरकार के वक्त भी ये हड़ताल हुई थी.

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यूनियन के लोगों ने इस घटना को लेकर एक रागिनी भी बनाई है जो सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है. इसमें कहा जा रहा है कि प्राइवेटाइजेशन से मिला घूस का पैसा सारे अधिकारियों, नेताओं के पास पहुंच रहा है. यूनियन ने आरोप लगाया है कि प्राइवेटाइजेशन के बहाने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया जा रहा है. वहीं सरकार कह रही है कि 510 बसों का एग्रीमेंट तो साइन हो चुका, बाकी 190 बसों वाले मामले में भ्रष्टाचार की शिकायत आने पर सीवीसी को मामला सौंपा जाएगा.

Manohar Lal at press conference New Delhi: Haryana Chief Minister Manohar Lal arrrives to address the press on completion of four years of his government, in New Delhi, Saturday, Oct 27, 2018. (PTI Photo/Shahbaz Khan) (PTI10_27_2018_000031B)

कर्मचारी ये भी कह रहे हैं कि 1993 के बाद वर्कशॉप में किसी कर्मचारी की भर्ती नहीं हुई है. जो रिटायर हो गए हैं, उनकी जगह कोई नहीं आया है. इसलिए बसें खटारा बनती जा रही हैं, क्योंकि इनका रिपेयर ही ढंग से नहीं हो पाता है.

24 अक्टूबर को यूनियन और सरकार के बीच वार्ता हुई और विफल हो गई. इसके बाद सरकार ने ESMA (Essential Services Maintainannce Act) के तहत 1222 मामले दर्ज किए, जबकि 275 कुल गिरफ्तारियां हुईं और 245 जमानत पर रिहा हुए हैं. सरकार कह रही है कि किसी भी दबाव के आगे झुकना नहीं है. अब लोकसभा और विधानसभा दोनों के चुनाव होने हैं. ऐसे में भारतीय जनता पार्टी के लिए ये बड़ा मुद्दा बननेवाला है.

अगर हरियाणा रोडवेज के कर्मचारियों की सुनें तो सरकार ने पिछले कुछ दिनों में आनन-फानन कई ड्राइवरों और बसों का इंतजाम कर बसें चलाई थीं. पर इन ड्राइवर्स से कई एक्सीडेंट हो गए. अपने फेसबुक पेज पर हरियाणा रोडवेज के कर्मचारी और इस हड़ताल के समर्थक इस बाबत काफी चीजें लिख रहे हैं.

केंद्र सरकार की गाइडलाइन्स के मुताबिक, एक लाख आबादी पर 60 बसें होनी चाहिए. 1993 में हरियाणा की आबादी एक करोड़ थी, तब बसें 3900 के आस पास थीं. अब की आबादी 3 करोड़ है, तो नियमानुसार अठारह हजार बसें होनी चाहिए. तो 14,000 और बसें जोड़ देने से कई हजार लोगों को रोजगार भी मिलेगा. मनोहर लाल खट्टर ने कहा था कि हर साल हजार सरकारी बसें लाई जाएंगी. पर 2015 में मात्र 62 बसें लाकर उन्होंने इतिश्री कर ली. जबकि इससे ज्यादा बसें तो हर साल कबाड़ में चली जाती हैं.

हरियाणा रोडवेज के नाम से चलने वाले फेसबुक पेज पर तो हरियाणा सरकार के परिवहन मंत्री कृष्ण पवार पर ही प्राइवेटाइजेशन के बहाने अपनी बसें लाने के आरोप लग रहे हैं. हालांकि ना ही आरोपों की सत्यता की जांच हो पाई है, ना ही इस फेसबुक पेज के प्रामाणिक होने की.

Haryana Roadways

क्या वाकई प्राइवेट बसें लाने से स्थिति सुधर जाएगी

दिल्ली, पंजाब, यूपी, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश में बसें पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप पर चलती हैं. पंजाब में तो ये अनुपात 50-50 का है. पर क्या ये आदर्श स्थिति है?

अगर दिल्ली में प्राइवेटाइजेशन पर हुई स्टडी को देखें तो 1992 में देश में पहली बार किसी शहर में प्राइवेट बसों को लाया गया था. आज की ही नई स्कीमों की तरह इसमें भी एससी एसटी, सुविधा स्कीम, एक्स-सर्विसमैन, ग्रेजुएट स्कीम की तरह के जुमले शामिल किए गए थे.

कहा जा रहा था कि इससे जरूरतमंद लोगों को रोजगार मिलेगा. पर कालांतर में देख सकते हैं कि कितने जरूरतंद लोगों की बसें चल रही हैं. इसके लिए ज्यादा दिन इंतजार नहीं करना पड़ा था. रेडलाइन बसों ने दिल्ली में तहलका मचा दिया था. ये ना किसी नियम का अनुसरण करते, ना ही किसी की बात मानते थे.

1996 में फिर प्राइवेटाइजेशन को पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप में बदला गया. और ब्लूलाइन बसों को लाया गया. ये बसें प्रति किलोमीटर भुगतान पर लाई गई थीं, जैसा कि हरियाणा सरकार कर रही है. ऐसा माना गया कि ब्लूलाइन बसें DTC का ही टाइम टेबल मानेंगी, उसी का किराया मानेंगी और कंडक्टर भी उसी का रखेंगी. ठीक ऐसा ही हरियाणा सरकार भी वादा कर रही है. पर ये पार्टनरशिप 2002 में टूट गई क्योंकि सरकार इसको चला नहीं पा रही थी. फिर से ब्लूलाइन बसें आजाद हो गईं. इनकी आजादी जनता के लिए पीड़ा और आतंक का सबब बन गई.

ब्लूलाइन की चपेट में लगभग रोज ही एक इंसान मरने लगा. यही नहीं, रोजाना किराए को लेकर झिकझिक से यात्री परेशान हो गए थे. बसवाले गुंडों की तरह व्यवहार करते थे और यात्रियों की पिटाई आम बात हो गई थी. क्योंकि बस ड्राइवर और कंडक्टर की तनख्वाह बसों के फेरों पर निर्भर थी. कोई नियम-कानून था नहीं, इसलिए ये लोग जैसे मर्जी वैसे बस चलाते थे.

2010 में कॉमनवेल्थ गेम्स से पहले ब्लूलाइन बसों को हटाने का प्लान बना था, जो कि धीरे-धीरे मॉडर्न व्यवस्था में तब्दील हुआ. लगभग बीस साल लगे दिल्ली को प्राइवेटाइजेशन के बाद बसों को यात्री सुलभ बनाने में.

दिल्ली की ही तरह का प्लान हरियाणा सरकार भी बना रही है. ये दिलचस्प होगा कि हरियाणा सरकार दिल्ली से कुछ सीखना चाहती है या नहीं. क्योंकि अगर सरकार की बात मान भी लें तो ये पार्टनरशिप चला पाएंगे, इस बात पर शक ही है.

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