हमें गर्व किस बात पर है भारतीय होने पर या हिंदू-मुस्लिम होने पर! हामिद अंसारी के बयान ने एक नई बहस छेड़ दी है. अपने आसपास नजर घुमाकर देखिए, आपको क्या लगता है... सबकुछ नॉर्मल है... या फिर अपनी विदाई से पहले उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने जो कहा, क्या सचमुच ऐसा है?
मुसलमानों के दिल में क्या है इसे जानने के लिए मुशायरों से बड़ी जगह कोई नहीं हो सकती.
राहत इंदौरी की इन लाइनों को आप गौर से पढ़िए-
अभी गनीमत है सब्र मेरा, अभी लबालब भरा नहीं हूं
वो मुझको मुर्दा समझ रहा है, उसे कहो मैं मरा नहीं हूं.
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वो कह रहा है कि कुछ दिनों में मिटा के रख दूंगा नस्ल तेरी
है उसकी आदत डरा रहा है, है मेरी फितरत डरा नहीं हूं
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ऊंचे-ऊंचे दरबारों से क्या लेना
नंगे भूखे बेचारों से क्या लेना
अपना मालिक, अपना खालिद अफजल है
आती जाती सरकारों से क्या लेना.
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सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है.
आपको क्या लगता है ये कौन किससे कह रहा है? अब जरा इमरान प्रतापगढ़ी की इन पंक्तियों को पढ़िए जो मुसलमानों का रिश्ता आतंक से जोड़ने पर पढ़ी गईं-
ये किसने कह दिया तुमसे इनका बम से रिश्ता है
बहुत हैं जख्म सीने में, फकत मरहम से रिश्ता है.
हाशिम फिरोजाबादी जब ये लाइनें पढ़ते हैं तो वहीं मौजूद भीड़ जोश से भर जाती है
बस खुदा का भरोसा है मुझको और किसी की जरूरत नहीं,
उसके सजदों से मुझको रोके ऐसी कोई हुकूमत नहीं.
यहीं पर देके अपनी जान जो होगा देखा जाएगा,
नहीं जाएंगे पाकिस्तान, जो होगा देखा जाएगा.
दिल खैराबादी ने जब शेर मंच से पढ़ा तो सारा मजमा उन्हें बाधाई देने के लिए उठ खड़ा हुआ, ऐसा क्यों है? क्या उन्हें मुसलमानों को पाकिस्तान जाने के ताने के जवाब में ये बोला था?
दिल खैराबादी ने मीडिया का नाम लेकर कहा कि मैं चाहता हूं मीडिया इसे सुने और उन्होंने ये शेर पढ़ा-
इस्लामी कवानीन से हैरान बहुत हैं,
कुछ दुश्मने इस्लाम परेशान बहुत हैं.
खैराबादी मीडिया को ये क्यों सुनाना चाहते थे?
ये उर्दू के शायर ऐसा क्यों कह रहे हैं- ऐसी शायरी पढ़ने वालों की लिस्ट बहुत लंबी है. जिस तरह फिल्में पूरे समाज का आईना होती हैं उसी तरह मुस्लिम समाज की उहापोह मुशायरों में साफ नजर आती है जो बताती है कि सबकुछ ठीक नहीं है. ये बेचैनी उनके अंदर तेजी से बढ़ रही है.
क्या आपको नहीं लगता कि जब आप किसी टोपी, दाढ़ी वाले शख्स को देखते हैं या किसी मुस्लिम इलाके से गुजरते हैं, किसी बुर्के वाली महिला को देखते हैं तो आपके मन में भय पैदा होता है, अगर इसका जवाब हां है तो हमें रेत में अपना मुंह नहीं छुपाना चाहिए.
हमें इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि कुछ न कुछ गड़बड़ है. ये गड़बड़ किस स्तर की है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जाना चाहिए कि एक संवैधानिक पद पर बैठा शख्स ये बात बोल रहा है कि सबकुछ ठीक नहीं है. तो हमें क्या करना चाहिए? उसे मुसलमान बताकर उसकी बात को खारिज कर देना चाहिए या फिर पूरे समाज को आत्ममंथन करना चाहिए कि गलती कहां हुई.
90 के दशक से भारत में सांप्रदायिकता को लेकर तीखी बहस जारी है. वोट हासिल करने की कोशिशें भी शुरू हुईं. एक पार्टी ने तो मुस्लिम तुष्टीकरण को ही हथियार बना लिया और मुस्लिम वोट बटोरने का एक पेड़ ही लगा लिया. वोटों के लेन-देन में एक भारतीय, भारतीय न होके हिंदू मुसलमान बनके रह गया.
मुसलमानों को ये लगने लगा कि बीजेपी के अलावा सभी उसकी अपनी पार्टियां हैं. बड़ी संख्या में हिंदुओं को ये लगने लगा कि हिंदुओं के हित सिर्फ बीजेपी के साथ सुरक्षित हैं.
पर हुआ क्या? 2014 में सरकार बदली, माहौल भी बदल गया. ऐसा नहीं है कि इसे सरकार ने बढ़ाया है लेकिन हां, कुछ न करके, कई बार मौन रहकर ऐसे लोगों को बढ़ावा जरूर दिया है उन लोगों को जो सोचते हैं कि बीजेपी हिंदुओं की पार्टी है और अब मुसलमानों पर हमला करने का सही वक्त है. जो ये सोचते हैं कि 1947 के विभाजन का मतलब हिंदू हिंदुस्तान में और मुसलमान पाकिस्तान में चले जाने चाहिए और कांग्रेस ने ऐसा नहीं होने दिया तो अब सही मौका है.
नतीजा देश के सामने है- कभी गौमांस के नाम पर, कभी बुर्के के नाम पर तो कभी तीन तलाक के नाम पर देश में हंगामा होता रहता है. मेरे खयाल से यहां ये लिस्ट देने की जरूरत नहीं है कि मॉब लिंचिंग में देश के अलग-अलग हिस्सों में कितने लोगों को मार दिया गया. ये घर्षण की प्रक्रिया एक ओर से नहीं चल रही है. यहां के मुस्लिम लड़के आईएसआईएस की ओर से लड़ने के लिए चले जाते हैं.
इसी देश में इंडियन मुजाहिदीन जैसा संगठन खड़ा कर दिया जाता है. इसमें आप समय को आगे-पीछे कर सकते हैं लेकिन इस सच को बोर्ड का बटन दबाकर डिलीट नहीं कर सकते हैं कि हां हम एक दूसरे से डरने और नफरत करने लगे हैं.
इस डर को बढ़ा रहे हैं न्यूज चैनल
ये नफरत का इंडेक्स रोजाना बढ़ता ही जा रहा है, कुछ दिन पहले सदन में सरकार ने जो आंकड़े रखे उससे भी साबित होता है. सवाल उठता है कि सिर्फ सरकार और विपक्ष, उसके समर्थक ही इसके लिए जिम्मेदार हैं, ऐसा सोचना थोड़ा गलत होगा. इस नफरत की चिंगारी को ज्वाला में बदलने में हमारे न्यूज चैनलों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है.
न्यूज चैनलों के लिए भारत का मुसलमान एक अजायब घर की चिड़िया से ज्यादा कुछ नहीं है. हर शाम ये मदारियों की तरह एक मजमा लगाते हैं और मुसलमान के खाने, उसके पहनावे, उसके तौर तरीकों पर जोरदार तरीके से चर्चा कराते हैं. जिसे नाइत्तेफाकी है उसे मैं सलाह देता हूं कि बीते तीन सालों में टीवी चैनलों के शाम की चर्चाओं की एक लिस्ट निकालें और देखें कि चर्चा किस पर हुई.
ऐसा लगता है कि चैनलों ने मुसलमानों को दुरुस्त करने का ठेका ले लिया है. अगर वो नहीं समझाएंगे तो मुसलमान और बिगड़ जाएगा. ज्यादा तलाक देने लगेगा, खाने के भगवा नियम नहीं मानेगा और अपनी बीवियों पर दो चार बुर्के और लाद देगा.
पर लगता है कि हम रेत में सिर दिए ही रहेंगे जब तक सिर से पानी न गुजर जाए. राजनीति जरूर की जानी चाहिए पर ये ध्यान में रखते हुए कि हमारे पुरखों (लेकिन हम अब बदकिस्मती से हिंदू-मुसलमान बन चुके हैं), ने खून बहाया है इस देश की आजादी के लिए. कहीं धर्म का कद इतना बड़ा न हो जाए कि ये देश के लिए खतरा बन जाए, हमें ये देखना होगा.
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