जम्मू-कश्मीर में हाल ही पीडीपी-बीजेपी के राजनीतिक गठबंधन के खात्मे के बाद राज्य में एक फिर से राज्यपाल शासन लागू हो गया है. इसमें कोई शक नहीं कि कश्मीर घाटी में मौजूदा हालात राजनीतिक उठापटक और सुरक्षा के खतरों से भरे हुए हैं. पत्रकार, सुरक्षाकर्मी और ईद के लिए घर जाने को निकले सेना के जवान की हत्या मुहावरे की भाषा में कही जाने वाली ‘ताबूत में अंतिम कील’ ही साबित हुई.
गठबंधन तोड़ने की टाइमिंग काफी हद तक आगामी अमरनाथ यात्रा पर हमले के खतरे से प्रभावित थी. राजनीतिक नेतृत्व की तरफ से बहुत कुछ कहा जा रहा था, लेकिन हकीकत यह है कि लंबे अरसे से सुरक्षा की स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी. यह हाल ‘घाटी’ में कई सामाजिक कल्याण की योजनाओं को प्रभावी रूप से लागू किए जाने के बावजूद हुआ. इस दौरान जम्मू कश्मीर राज्य के लिए फंड की उपलब्धता में भी काफी सुधार हुआ था. तो फिर गवर्नेंस में सुधार के बाद भी कोई असर क्यों नहीं हुआ?
इसका मूल कारण तो यह है कि राज्य में प्रभावी विभिन्न संस्थाओं में तालमेल नहीं था. लोगों की परेशानियों को खत्म करने के लिए सकारात्मक प्रशासन के साथ ही साझा उपाय, राजनीतिक दखल और विरोधी शक्तियों पर लगातार दबाव बनाने की जरूरत है. इसका मतलब यह है कि अच्छा प्रशासन, आतंकवादियों के खिलाफ सेना और केंद्रीय पुलिस बलों द्वारा लगातार पूरी ताकत से दबाव बनाए रखने, राजनीतिक उपायों में अलगाववादियों को शामिल किए जाने, नई मनोवैज्ञानिक पहल का इस्तेमाल कर नौजवानों में व्याप्त बेचैनी को दूर करना होगा. यह सभी उपाय, ‘एक-साथ, एक-दूसरे के पूरक और लगातार होने चाहिए.’
इसके साथ ही घाटी में मौजूदा ‘क्षद्म युद्ध’ के असली किरदारों को पहचानने की जरूरत है. इसमें कोई शक नहीं कि आतंकवादी गिरोहों में स्थानीय लड़ाकों की तादाद बढ़ी है, खासकर दक्षिणी कश्मीर में. सरकारी अधिकारियों द्वारा आतंक के इस पहलू से लगातार इनकार किए जाने से जमीनी हालात और खराब होंगे और मौजूदा कोशिशें निरर्थक बन जाएंगी. घटनाओं का वास्तविक मूल्यांकन सुनिश्चित करेगा कि सही तरीके से उपाय किए जाएं.
राज्यपाल शासन में बदले हालात में घाटी की सुरक्षा स्थिति का पता लगाने के लिए सुरक्षा के दृष्टिकोण से संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान करनी होगी. जैसा कि जम्मू कश्मीर में पिछली दो राज्य सरकारें गठबंधन सरकारें थीं और जिनमें एक क्षेत्रीय दल अगुवा साझीदार था, और इस दौर में स्थानीय पुलिस की सक्रियता और आतंक विरोधी अभियानों के लिए सुरक्षा बलों के पास उपलब्ध साधनों में लगातार गिरावट आई है.
स्थानीय आतंकवादियों को मुख्यधारा में लाने के लिए समर्पण और पुनर्वास की संशोधित नीति अभी लागू नहीं की गई है. खुफिया जानकारियां जुटाने और स्थानीय पुलिस की सहायक कार्रवाइयों में भी कमी आई है. जम्मू कश्मीर पुलिस के एसपी (ऑपरेशंस) और उनकी माहिर टीम की विशेष भूमिका को बीते कुछ सालों में राजनीतिक नेताओं ने बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाया है.
इन बातों ने जनता की भावना को समझ पाने और ठोस जानकारी मुहैया करा पाने की पुलिस की क्षमता पर असर डाला है. यह समझना होगा कि आतंकवादियों के खिलाफ ‘खुफिया जानकारी आधारित ऑपरेशंस’ से अपना नुकसान कम होता है और ऑपरेशंस भी कम समय में पूरा हो जाता है. यह देखते हुए कि स्थानीय निवासी स्पेशल फोर्सेज की कार्रवाई को बाधित करने और आतंकवादियों के पक्ष में दबाव बनाने को एनकाउंटर साइट के करीब जुट रहे हैं, इसकी और ज्यादा जरूरत है.
राज्य पुलिस और सैन्य-सुरक्षा बलों के बीच तालमेल में उल्लेखनीय कमी आई है. इसके साथ ही संभवतः क्षेत्रीय दलों के दबाव के चलते घाटी में उच्च स्तर के सुरक्षा अलर्ट के दौरान कर्फ्यू लगाने और लोगों का आवागमन सीमित करने को लेकर राज्य प्रशासन में हिचकिचाहट है. घातक हथियारों के इस्तेमाल पर पाबंदी ने घाटी के कुछ हिस्सों में पत्थरबाजों और उनका पक्ष लेने वाली भीड़ का स्पेशल फोर्सेज के ऑपरेशंस में रुकावट डालने को हौसला बढ़ाया है, जिससे स्पेशल फोर्सेज की घेराबंदी के दौरान आतंकवादियों को निकल भागने का मौका मिल जाता है. और अंतिम बात यह है कि मीडिया की टीआरपी की रेस और सोशल मीडिया पर फेक न्यूज से घाटी के कई इलाकों में भारत/सरकार विरोधी ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिला है.
मौजूदा अलगाववादी नेताओं मीरवाइज, गिलानी और यासीन मलिक के मातहत चल रहे संगठनों से राजनीतिक मोर्चे पर निरंतरता की नीति पर आधारित संबंध रखना होगा. हालांकि समय के साथ इन नेताओं के प्रति समर्थन में कमी आई है और इसमें शक है कि ये तीनों अभी भी जनता की भावनाओं की नुमाइंदगी करते हैं.
ऐसे में लोगों के बीच गहराई से घुलने-मिलने की जरूरत है, जिससे कि घाटी के विभिन्न इलाकों से स्थानीय नेताओं की पहचान कर उन्हें जोड़ कर व्यापक दायरा बनाया जाए. ऐसा करने से ‘शांति के द्वीप’ बनाने में मदद मिलेगी, और फिर इसे व्यापक पैमाने पर अपना कर विविधतापूर्ण विस्तार दिया जा सकेगा.
इसलिए राज्यपाल शासन के इस दौर में स्थानीय पुलिस और स्पेशल फोर्सेज को अपना काम करने में राजनीतिक दबाव का सामना नहीं करना पड़ेगा. स्थानीय लोगों को आतंकवाद के रास्ते से वापस मुख्यधारा में लाने में संशोधित समर्पण और पुनर्वास नीति की मंजूरी देना और लागू किया जाना काफी मददगार हो सकता है. नागरिक प्रशासन को जनता के बीच मौजूदगी और जुड़ाव बढ़ाने और लोगों की परेशानियां तेजी से हल करने के लिए निर्देश दिया जा सकता है.
कहने का सार यह है कि, घाटी के लोगों में भी एक उम्मीद है. उन्हें लगता है कि केंद्रीय शासन में सुधरे हुए सुरक्षा हालात में कारोबार और इससे जुड़ी गतिविधियों में बढ़ोतरी होगी, सैलानियों की संख्या बढ़ेगी और उन्हें अपनी आमदनी बढ़ाने का मौका मिलेगा. यहां तक जम्मू और लद्दाख के लोग भी उत्साहित हैं कि उनके इलाके में विकास और बुनियादी ढांचे के विकास पर उचित ध्यान दिया जाएगा. सरकार को इस मौके का इस्तेमाल एक बार फिर से कश्मीर के लिए ‘सर्वदलीय- दीर्घकालिक रणनीति’ बनाने पर ध्यान देना चाहिए.
(लेखक सेना में लेफ्टिनेंट जनरल रहे हैं और जनरल ऑफिसर कमांडिंग रह चुके हैं.)
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