न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच हुए टकराव की खबरें एक बार फिर सुर्खियों में है. पिछले रविवार को यह मुद्दा देश के बड़े अखबारों में छाया रहा.
हिंदुस्तान टाइम्स ने लिखा, 'सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने देश के तमाम हाई कोर्ट जजों की कमी को लेकर केंद्र सरकरा पर बरसे. मुख्य न्यायधीश के उत्तराधिकारी ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर आघात पहुंचाने वाले किसी भी कानून को खारिज करने की बात कही. कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने पलटवार करते हुए याद दिलाया कि कैसे आपातकाल के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने देश को 'नाकाम' किया था. अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने न्यायपालिका के लिए एक 'लक्ष्मण रेखा' तय करने की ओर इशारा किया.'
टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट कहती है, 'न्यायपालिका और सरकार के बीच टकराव ने शनिवार को और तीखा मोड़ ले लिया. भारत के मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर और कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने जजों की नियक्तियों में हो रही देरी पर आपसी मतभेदों को सार्वजनिक कर दिया.'
सवाल है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच इस रस्साकशी का अंजाम क्या होगा? इन दोनों के शीर्ष पर बैठे लोगों के बीच जारी तनातनी से कहीं भारतीय लोकतंत्र का बुनियादी ताना-बाना ही ने बिगाड़ दे?
सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए 77 नामों की सिफारिश की थी. इनमें से सरकार ने केवल 34 को ही मंजूरी दी.
अटॉर्नी जनरल ने 15 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ को सूचना दी, 'कुल 77 नामों में से 34 के नाम नियुक्ति के लिए मंजूर किए गए हैं और शेष 43 नाम सर्वोच्च अदालत को दोबारा विचार करने के लिए वापस भेज दिए गए हैं.'
जजों का टोटा
जजों की नियुक्ति नकारने के पीछ सरकार के तर्को को सुप्रीम कोर्ट मानने को तैयार नहीं है. 18 नवंबर को मुख्य न्यायाधीश जस्टिस टीएस ठाकुर और जस्टिस एआर दवे की एक खंडपीठ ने कहा,’हमने सरकार द्वारा वापस भेजे गए 43 जजों के नाम पुनर्विचार के लिए सरकार के पास भेजे हैं.’ यह वही जज थे जिनकी नियुक्ति करने से सरकार ने इंकार कर दिया था.
दो हफ्ते बीत जाने के बाद भी सरकार ने इस पर कोई रिस्पांस नहीं दिया है. अब धुंए से चिंगारी उठने लगीं हैं.
कानून मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक इलाहाबाद हाइकोर्ट में स्वीकृत 160 जजों के मुकाबले केवल 78 जज हैं, पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में 85 जजों की जरुरत है लेकिन यहां केवल 46 जज ही हैं.
पूरे हिंदुस्तान के हाई कार्ट की यही कहानी है. बीते 3 मार्च को जारी कानून मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक 31 दिसंबर, 2014 को देश के सभी हाई कोर्ट में तीन लाख 11 हजार 492 सिविल और 10 लाख 37 हजार 465 आपराधिक केस लंबित थे.
इसी रिपोर्ट में बताया गया कि पिछले सालों के दौरान सिविल के पांच लाख 89 हजार 631 और एक लाख 87 हजार 999 आपराधिक मामले लंबित हैं. ये आंकड़े दिसंबर 2014 तक के हैं.
इतनी भारी संख्या में मुकदमों के लंबित होने के पीछे हालांकि दूसरे कारण भी हो सकते हैं. लेकिन करीब आधी संख्या में स्वीकृत पदों पर जजों का न होना भी इस संकट में अहम भूमिका निभाता है.
यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि भारत में आबादी के अनुपात में स्वीकृत जजों की संख्या दुनिया के विकसित लोकतांत्रिक देशों के अनुपात के मुकाबले काफी कम है. अगर ये रिक्त पद तेजी से नहीं भरे गए, तो इससे पैदा संकट विस्फोटक रूप ले सकता है.
सवाल यह है कि अगर कार्यपालिका ने पहले अपने ठुकराए 43 नामों को सुप्रीम कोर्ट की ओर से दोबारा प्राप्त करने के बाद भी स्वीकार करने से इनकार कर दिया तब क्या होगा. तब गतिरोध की स्थिति बदतर होती जाएगी और हालात बहुत खराब हो जाएंगे.
किसकी चलेगी
अंतिम सवाल यह बनता है कि जजों की नियुक्ति में आखिर किसकी चलेगी: कार्यपालिका की या फिर न्यायपालिका की?
आजादी के करीब सात दशक बाद इस सवाल का खड़ा होना बताता है कि शुरुआती पांच दशक तक तो कार्यपालिका की ही चली है. बाद में शीर्ष न्यायपालिका ने इस अधिकार को 1993 में एक कॉलेजियम के माध्यम से अपने पास ले लिया. इस कॉलेजियम में केवल सुप्रीम कोर्ट के जज होते थे जो उच्च न्यायालय के जजों के नाम पर मुहर लगाते थे.
1998 में तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन को राय देते हुए अपने इस पक्ष की पुष्टि भी कर दी. नारायणन कोलेजियम व्यवस्था से जुड़े एक कानून पर सुप्रीम कोर्ट की राय जाननी चाही थी.
यह हैरानी की बात है जिस तरह सरकार ने पांच दशक तक अधिकारों का आनंद उठाने के बाद बिना चूं किए न्यायपालिका के सामने घुटने टेक दिया. कॉलेजियम की सभी सिफारिशों को मानकर उसने पहले तो न्यायपालिका का हमला सह लिया. 1993 से लेकर 2004 तक कांग्रेस बीजेपी दोनो पार्टियों की सरकारें केंद्र में रहीं लेकिन इन्होंने सुप्रीम कोर्ट पर निगरानी रखने के लिए कोई कदम नहीं उठाया.
NJAC से कसेगा शिकंजा
पिछले दो दशकों के दौरान कोर्ट की नियुक्तियों में सुप्रीम कोर्ट को विशेष अधिकारों की आदत पड़ने के बाद 2014 में नेशनल ज्यूडिशियल अपाइंटमेंट कमीशन (एनजेएसी) की शिगूफा छोड़ा गया.
इसमें कहा गया कि जजों की नियुक्ति में कॉलेजियम प्रणाली को समाप्त कर के एक आयोग का गठन किया जाए. इसमें सरकार के पक्ष को भी तवज्जो देने की बात कही गई है.
इसमें कोई हैरत नहीं होनी चाहिए जब अक्टूबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने एनजेएसी कानून को खारिज कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने 99वें संविधान संशोधन कानून को भी रद्द कर दिया. इसी संशोधन के तहत संविधान में एनजेएसी का प्रावधान किया गया था.
सरकार और संसद का मान रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल नवंबर मे अपनी सहमति दे दी थी. लेकिन इसमें एक बदलाव कर मैमोरैंडम ऑफ प्रोसीजर (एमओपी) बना दिया. इससे संसद में दो-तिहाई बहुमत से पारित इस कानून सरकार से सहमति बन गई.
पिछले दो दशकों के दौरान कार्यपालिका ने कॉलेजियम के पुनर्विचार के लिए कुछ मामले जरूर भेजे हैं लेकिन कॉलेजियम अगर उन पर विचार करने से मना कर देता था तो कार्यपालिका के लिए उसे स्वीकार करना बाध्यता बन जाता था. संशोधित एमओपी में सरकार ने कोर्ट की सिफारिश को मानने या खारिज कर देने का आखिरी फैसला अपने ही पास रखा है. सुप्रीम कोर्ट ने भी संशोधित एमओपी को मानने से इंकार कर दिया.
अब बस यह देखा जाना बाकी है कि पहले कौन झुकता है: सरकार या कोर्ट? अगर दोनों ही अपने-अपने पक्ष पर अड़े रहे तो समझिए कि भारत एक संवैधानिक संकट की ओर बढ़ रहा है.
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