‘है बस कि हर एक उनके इशारे में निशां और
करते हैं मोहब्बत तो गुजरता है गुमां और’
ये शेर याद आया ‘फेक न्यूज’ को लेकर जारी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की गाइडलाइन पर. भला हुआ जो पीएमओ (प्रधानमंत्री कार्यालय) ने समय रहते हस्तक्षेप किया और बात बिगड़ने से पहले तनिक संवर गई.
यों थी तो वह गाइडलाइन ही लेकिन सख्ती उसमें किसी कानून की सी थी. अंदाज एकदम से खबरदार करने वाला था कि खबरनवीशों! कान खोलकर सुन लो, तुम्हारी लिखी खबर अगर फर्जी निकली तो फिर आगे से खैर नहीं, तुम्हारी खबरनवीश होने की मान्यता तक रद्द की जा सकती है ! गोया खबरनवीश ना हों स्कूल के बच्चे हों और सूचना प्रसारण मंत्रालय क्लास टीचर की तरह बता रहा हो कि होमवर्क ठीक से ना किया तो क्लास से निकाले जाओगे.
परिपाटी के विरुद्ध
लोकतांत्रिक देश में कोई सरकारी विभाग या मंत्रालय को समाचारों का सच-झूठ तय करने की फिक्र सताए और इस फिक्र में वह सजा तक मुकर्रर करने लगे तो चेत जाना चाहिए कि कहीं कोई बुनियादी गड़बड़ी है. बुनियादी गड़बड़ी इसलिए कि ताकत के बंटवारे के सिद्धांत पर चलने वाले लोकतांत्रिक देश में समाचार और सरकार के बीच छत्तीस का आंकड़ा होता है और होना भी चाहिए. घोड़ा कितना भी सुघड़ हो, उसे लगाम की जरूरत होती है.
पीएमओ (प्रधानमंत्री कार्यालय) ने समय रहते इस गड़बड़ी को भांप लिया, बात आखिर को बतंगड़ में तब्दील होती इसके पहले ही पीएमओ ने ‘फेक न्यूज’ के बेताल को ठीक उसी डाल पर टांग दिया जहां उसे कायदे से टंगा होना चाहिए. ‘फेक न्यूज’ अगर प्रेस से जुड़ा मामला है तो उसके सच-झूठ, अच्छे-बुरे पर विचार का पहला हक प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया(पीसीआई) और न्यूज ब्रॉडकॉस्टर एसोसिएशन(एनबीए) जैसी मीडिया की निगरानी और अंकुश की संस्थाओं का बनता है. मीडिया की निगरानी की ये संस्थाएं, कोई सजावटी सामान नहीं कि इन्हें शोभा बढ़ाए रखने के गरज से संभालकर रखा जाय.
अब ये बिल्कुल ही अलग बात है कि इन संस्थाओं को अधिकार ही कितने हैं! लेकिन सीमित अधिकार या कामकाज के मामले में कारगर ना साबित होने को किसी बहाने की तरह इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. पीसीआई या एनबीए निगरानी के अलां या फलां मामले में नाकाम रहे- ऐसा कहकर इन संस्थाओं के औचित्य को खारिज नहीं किया जा सकता और ना ही इस तर्क की ओट लेकर कोई मंत्रालय उन भूमिकाओं को अपने हाथ मे ले सकता है जो (भूमिका-निर्वाह) पीसीआई या एनबीए से अपेक्षित है. आखिर स्वायत्त संस्थाओं की मर्यादा भी कोई चीज हुआ करती है!
खबर लिखने के कुछ खास खतरे हैं
सोचिए कि खबरनवीश खबर ना लिखे तो और क्या करे भला और खबर लिखने के बड़े संकट हैं. खबरनवीश से बेहतर कौन जानता होगा कि खबर के सामने सबसे बड़ी चुनौती खुद को विश्वसनीय साबित करने की होती है. लेकिन बतर्ज मशहूर उपन्यास राग-दरबारी के, जैसे सच के असंख्य पहलू हो सकते हैं वैसे ही किसी समाचार के भी हजार पहलू निकल सकते हैं. और, व्यंग्य की पैनी धार वाले लेखक मनोहरश्याम जोशी से भाषा उधार लेकर कहें तो जैसे सुंदरता हमेशा देखने वाले की आंख में होती है वैसे ही खबर की विश्वसनीयता का मामला भी बहुत कुछ दर्शक-पाठक के अपने खास ‘पाठ’ पर निर्भर हो सकता है. दर्शक-पाठक को हरचंद लग सकता है कि अमुक खबर में फलां बात तो आने ही से रह गई.
एक मुश्किल और है— रेडियो, अखबार, वेबसाइट या टेलीविजन के कसे हुए फॉर्मेट में लिखने-बताने की मजबूरी कहिए या फिर खबर को जल्दी से जल्दी पहुंचाने की जरूरत या फिर खुद घटना ही का आधा छुपा-आधा उघड़ा होने का छूपछांही स्वभाव- इन सारी ही वजहों से किसी समाचार के ढेर सारे पहलू छूट भी सकते हैं. तो यह कैसे तय होगा कि लिखी गई खबर फर्जी ही है और नुकसान करने के नीयत से लिखी और फैलाई गई है?
‘फेक न्यूज’ है किस बला का नाम?
सूचना-प्रसारण मंत्रालय की गाइडलाइन की बड़ी कमी थी कि उसमें ‘फेक न्यूज’ के स्वभाव पर गंभीरता से विचार ही नहीं किया गया था. गाइडलाइन जारी करने से पहले यह सोचा जाना चाहिए था कि सोशल मीडिया पर संड़ांध मारती, बजबजाती अभिव्यक्तियों से भरे संसार में ‘फेक न्यूज’ की धारणा ही सवालों के घेरे में है.
सूचना प्रसारण मंत्रालय ने समस्या तो ठीक पहचानी कि समाचारों की शक्ल में बेपर की सूचनाएं आजकल खूब ही उड़ायी जा रही हैं लेकिन उसे यह भी पहचानना चाहिए था कि यह काम मुख्य रूप से सोशल मीडिया के मंच से हो रहा है ना कि मान्यता प्राप्त पत्रकारों द्वारा. मंत्रालय ‘फेक न्यूज’ और डिसइन्फॉरमेशन (भ्रामक और नुकसानदेह सूचना) में अंतर न कर सका. (बेशक ऐसा अंतर करने की उम्मीद किसी मंत्रालय से नहीं की जाती लेकिन फिर इसी तर्क से यह भी कहा जा सकता है कि बिना अंतर किए मंत्रालय से गाइडलाइन्स जारी होने की उम्मीद भी नहीं की जाती).
‘डिसइन्फॉरमेशन’ और ‘फेक न्यूज’ के बीच जरूरी अंतर करने के प्रयास चाहे अभी अपने देश में मीडिया की निगरानी की संस्थाओं, अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में बोलने वाले नागरिक-संगठनों या फिर मंत्रालयी स्तर पर बनी किसी समिति के सहारे ना हो रहा हो लेकिन दुनिया के विकसित मुल्कों के लोकतंत्र को यह चिंता जरूर सता रही है. यूरोपीयन कमीशन की हाल (मार्च 2018) की एक नई रिपोर्ट इसी का प्रमाण है.
यूरोपीयन कमीशन की रिपोर्ट
यूरोपीय यूनियन में शामिल देशों के व्यापक हित में नीति और कानून बनाने वाली इस (यूरोपीय कमीशन) स्वायत्त संस्था की रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘फेक न्यूज जैसा शब्द अपर्याप्त ही नहीं बल्कि कई मायनों में भ्रामक भी है और ठीक इसी कारण रिपोर्ट में ‘फेक न्यूज’ जैसे शब्द के प्रयोग से बचने की सलाह दी गई है.
विशेषज्ञों की उच्च स्तरीय समिति की इस रिपोर्ट में ‘फेक न्यूज’ शब्द को ‘भ्रामक' बताने के पीछे कारण देते हुए तर्क दिया गया है कि इस शब्द का राजनीतिक दलों और उनके समर्थकों ने अपने हित में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है. ऐसे सियासी दल और उनके हिमायती किसी समाचार से असहमत होने पर उसे खारिज करने के लिए ‘फेक न्यूज’ शब्द का प्रयोग करते हैं. ऐसे में ‘फेक न्यूज’ शब्द ताकतवर लोगों के हाथ में सूचना के प्रसार में बाधा पहुंचाने तथा स्वतंत्र न्यूज मीडिया की आवाज दबाने का एक औजार बन गया है.
‘ए मल्टी डायमेंशनल एप्रोच टू डिसइन्फॉरमेशन' शीर्षक इस रिपोर्ट के मुताबिक समाचारों को तोड़-मरोड़ कर पेश किए जाने की परिघटना हाल के दिनों में बहुत जटिल हो गई हैं और ‘फेक न्यूज’ शब्द इस जटिलता को ठीक-ठीक दर्ज ना कर पाने की वजह से अपर्याप्त है. अपर्याप्त इसलिए कि बहुधा खबरों के सारे तथ्य पूरी तरह झूठे नहीं होते लेकिन उन तथ्यों के साथ कुछ और गैर-जरूरी सूचनाएं निहित स्वार्थों से मिला दी जाती हैं.
रिपोर्ट के मुताबिक ध्यान यह भी रखा जाना चाहिए कि ‘फेक न्यूज’ का संबंध सिर्फ झूठी सूचनाएं गढ़ने भर से नहीं बल्कि डिजिटल प्लेटफॉर्म पर किए जाने वाले बरताव यानि उसके प्रचार-प्रसार के लिए की जाने वाली कोशिशों से भी है. किसी झूठी सूचना को पोस्ट करना, ट्वीट करना, रीट्वीट करना और उस पर टिप्पणी करना भी ‘फेक न्यूज’ के दायरे में शामिल है.
रिपोर्ट में शोध-अध्ययनों के हवाले से ध्यान दिलाया गया है कि नागरिक फेक न्यूज को पक्षपात भरे सियासी बहस-मुबाहिसे तथा अधकचरी पत्रकारिता का पर्याय समझते हैं जबकि फेक न्यूज का संबंध नुकसान पहुंचाने के इरादे से गढ़ी और फैलाई गई गलत सूचना से है और इसकी साफ-साफ परिभाषा दी जा सकती हैं.
गलत सूचना (डिसइनफॉर्मेशन) की परिभाषा देते हुए रिपोर्ट में इसके अंतर्गत वैसी हर सूचना को शामिल माना गया है जो झूठी (फॉल्स), असंगत (इनएकुरेट) या भ्रामक (मिसलीडिंग) हो और जिसे सार्वजनिक रूप से हानि पहुंचाने अथवा लाभ कमाने के जाहिर मंशा से रचा गया, पेश किया गया तथा बढ़ावा दिया गया हो.
यूरोपीय कमीशन की यह रिपोर्ट साफ शब्दों में कहती है कि मानहानि, नफरत फैलाने और हिंसा के लिए उकसावा देने के इरादे से गढ़ी और फैलाई गई अवैध तथा झूठी सूचनाएं ‘फेक न्यूज’ के दायरे में नहीं आतीं और ऐसी सूचनाएं नियामक संस्थाओं के नियमन का विषय हैं जबकि व्यंग्य, आलोचनात्मक प्रहसन तथा ऐसे अन्य तथ्यों पर किसी किस्म की पाबंदी नहीं लगनी चाहिए.
रिपोर्ट में झूठी खबरों के प्रचार-प्रसार को रोकने के लिए कई उपाय सुझाए गए हैं जिसमें ऑनलाइन न्यूज के प्रसार से संबंधित व्यवस्था में पारदर्शिता कायम करना, मीडिया लिटरेसी को बढ़ावा देना और नागरिकों और पत्रकारों के लिए झूठी और असंगत सूचनाओं से निपटने के तरकीब (टूल्स) तैयार करना प्रमुख हैं.
फेक न्यूज पर जारी गाइडलाइन को चूंकि अब पीएमओ के हस्तक्षेप पर वापस ले लिया गया है और गेंद उसी पाले में पहुंची है जहां उसे पहुंचना चाहिए था यानी पीसीआई के पास, सो हमें यह इत्मीनान रखना चाहिए कि ‘फेक न्यूज’ पर यह संस्था वैसी ही कोई व्यापक रिपोर्ट और सुझाव लेकर आएगी जैसा उसने कुछ साल पहले ‘पेड-न्यूज’ के प्रकरण में किया था.
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