गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में 71 बच्चों की मौत ने हमें एक बार फिर याद दिलाया है कि हमारे देश में सेहत की सुविधाएं कितनी बीमार हैं. अस्पताल पर मरीजों का जबरदस्त बोझ है. जिस वक्त वहां बच्चे मर रहे थे, उस वक्त भी नए मरीजों की आमद लगातार जारी थी.
इस हालत के लिए उत्तर प्रदेश की सरकारें जिम्मेदार हैं. पिछले कई सालों से यूपी का मतलब ही कुशासन, भ्रष्टाचार और बेहिस अधिकारी बन चुका है. राज्य की पिछली कई सरकारें केंद्र से मिलने वाले पैसे का सही तरीके से इस्तेमाल नहीं कर पाई हैं. पिछले कई दशकों से राज्य में स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार नहीं हुआ है. यही वजह है कि बीआरडी जैसे अस्पतालों में नवजात बच्चों और इंसेफेलाइटिस के मरीजों की भारी तादाद आती है. अस्पताल पर मरीजों का जितना बोझ है वो इसकी कुव्वत से परे है.
गोरखपुर में बच्चों की मौत की वजह को लेकर लगातार विवाद हो रहा है. कुछ लोग इसे इलाके में बरसों से कहर बरपा रही बीमारी इन्सेफेलाइटिस का असर बताते हैं. वहीं कुछ लोग ये कह रहे हैं कि बीआरडी अस्पताल को ऑक्सीजन की सप्लाई बंद होने से बच्चों की मौत हुई. वजह कोई भी हो, सरकार अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती.
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दोनों सूरतों में सरकार दोषी
अगर मौत की वजह इंसेफेलाइटिस है, तो भी सरकार, इस आफत से बचने के लिए जरूरी कदम उठाने में नाकाम रही है. और अगर ऑक्सीजन बंद होने से मौतें हुईं तो बात और भी गंभीर हो जाती है. फिर तो ये मामला बुनियादी ढांचे और जरूरी सुविधाओं का भी नहीं रह जाता. पैसे न दिए जाने पर ऑक्सीजन की सप्लाई बंद होना सरकार और स्वास्थ्य सेवा के अधिकारियों की लापरवाही ही नहीं, उन्हें तो इन बच्चो की हत्याओं का जिम्मेदार माना जाना चाहिए. अगर अस्पताल में जरूरी सुविधाएं होती भीं, तो अधिकारियों की लापरवाही से मरीजों की जान चली जाती.
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अफसोस की बात ये है कि ऐसे भयानक हादसों के बाद ही हमारी चेतना जागती है. साल 2010 से यूपी में इंसेफेलाइटिस के 26 हजार मरीज सामने आए हैं. यानी ये बीमारी अब महामारी का रूप ले चुकी है. लेकिन अफसोस की बात ये है कि इस गंभीर मुद्दे पर चर्चा तब शुरू हुई है, जब 70 से ज्यादा बच्चों की एक साथ जान चली गई.
योगी पर खड़े होते हैं कई सवाल
गोरखपुर में बच्चों की मौत के हादसे से पहले ये शहर इंसेफेलाइटिस की बीमारी के केंद्र के रूप में नहीं, बल्कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गढ़ के तौर पर ज्यादा चर्चित था.
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शायद यही वजह थी कि बच्चों की मौत देशभर में सुर्खियां बनी. मुख्यमंत्री बनने से पहले योगी आदित्यनाथ पिछले दो से भी ज्यादा दशकों से इलाके के सांसद रहे हैं. ये इलाका उनका गढ़ माना जाता है. इसके बावजूद स्वास्थ्य सुविधाओं का बुरा हाल योगी पर भी सवाल खड़े करता है. आखिर इंसेफेलाइटिस जैसी बीमारी रातों-रात तो महामारी बनी नहीं. ऐसे में जवाबदेही का सवाल तो योगी से भी पूछा जाना चाहिए.
क्या हमें है मुद्दों की समझ?
जिस वक्त गोरखपुर में बच्चों की मौत की खबर सुर्खियां बटोर रही थी, ठीक उसी वक्त कई चैनल इस बात पर बहस कर रहे थे कि स्कूलों में वंदे मातरम् गाया जाना चाहिए या नहीं. इसी से साफ है कि हम एक देश के तौर पर किन बातों और मुद्दों को अहमियत देते हैं, बहस के काबिल समझते हैं. हम गो रक्षकों की हिंसा, धार्मिक उन्माद, आरक्षण, भाषाई और जातीय पहचान को लेकर ज्यादा सजग हैं. मगर बेहतर प्रशासन, बुनियादी ढांचे के विकास, अर्थव्यवस्था के विकास, रोजगार, अस्पताल और स्कूलों को लेकर बहस तब तक नहीं करते, जब तक गोरखपुर जैसे हादसे नहीं होते.
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हम तब तक अपनी शिक्षा व्यवस्था पर ध्यान नहीं देते, जब तक स्कूलों में मिड डे मील खाकर बच्चों की मौत नहीं होती. जब तक रेल हादसे नहीं होते, तब तक हम रेलवे की सुरक्षा व्यवस्था सुधारने पर ध्यान नहीं देते.
धर्म, जाति, भाषा का भेदभाव कर रहा है पीछे
एक देश के तौर पर हम उन मुद्दों को जोर-शोर से नहीं उठाते, जो हमें बेहतर देश बना सकें. हम अपने प्रतिनिधियों पर काम करने का दबाव नहीं बना पाते. उनकी जवाबदेही तय करने में हम नाकाम रहे हैं. हां, धार्मिक, जातीय और भाषाई आधार पर उनको हम अपना बंटवारा करने देते हैं. आखिर में यही विवादित मुद्दे अहम हो जाते हैं. हमारी जिंदगी बेहतर बनाने वाले मुद्दे दबा दिए जाते हैं. विवादित मुद्दों को उठाकर ही हमारे नेता बार-बार सत्ता तक पहुंचते हैं. वोटर भी उन्हें इसके लिए वोट देकर इनाम ही तो देता है.
विकसित लोकतांत्रिक देशों में भी जाति, नस्ल, वर्ग और पहचान के मुद्दों पर बहस करते हैं. जैसे इस वक्त अमेरिका के शार्लोट्जविल में नस्लवादी हिंसा को लेकर बहस छिड़ी हुई है. लेकिन अमेरिकी जनता के लिए अच्छा प्रशासन ज्यादा अहम है, न कि उसकी जातीय या धार्मिक पहचान. 1992 में बिल क्लिंटन के चुनाव प्रचार का नारा था- ये अर्थव्यवस्था है मूर्ख! यानी उन्होंने वोटर को ये समझाया कि वो जाति-धर्म के बजाय अपनी अर्थव्यवस्था को अहमियत देने के लिए वोट करे.
अमेरिका के वोटर अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य सुविधाएं, शिक्षा व्यवस्था और रोजगार जैसे मुद्दों की नजर में अपनी सरकार चुनते हैं. उनके लिए यही मुद्दे अहमियत रखते हैं.
धर्म की जगह बेहतर भविष्य के लिए करें वोट
वहीं भारतीय वोटर चुनावी और सियासी मुद्दों को अलग-अलग समझता है. मिसाल के तौर पर योगी आदित्यनाथ को जनता ने धार्मिक ध्रुवीकरण की वजह से चुना. जब तक शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और आर्थिक विकास के मुद्दे चुनाव में अहमियत नहीं हासिल करेंगे, जब तक चुनावी और सियासी मुद्दे एक नहीं होंगे, जब तक हम बेहतर भविष्य के लिए वोट नहीं करेंगे, जब तक हम अच्छे प्रशासन और सुविधाओं की मांग को लेकर सरकार नहीं चुनेंगे, तब तक किसी बदलाव की उम्मीद बेमानी है.
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अगर किसी विकसित देश में गोरखपुर जैसा हादसा होता है, तो सबसे बड़े अधिकारी के खिलाफ जांच होती और उसे उसके जुर्म के लिए जेल की हवा खानी पड़ती. लेकिन भारत में जांच होगी भी तो सिर्फ लोगों की नाराजगी दूर करने के लिए, या सियासी नुकसान कम करने के लिए. हम किसी ईमानदार जांच की उम्मीद नहीं कर सकते. जांच के दौरान कुछ लोग बलि के बकरे बनाए जाएंगे. बड़े लोग हर बार की तरह इस बार भी बच निकलेंगे. इसके बाद हम फिर से वही धार्मिक, जातीय और नस्लीय मुद्दों पर बहस शुरू करके गोरखपुर जैसे बड़े हादसे को भूल जाएंगे. याद रखिए कि इन मुद्दों का देश के बेहतर भविष्य से कोई ताल्लुक नहीं है.
(लेखक मिलिंद देवड़ा प्रमुख राजनीतिक हस्ती हैं और लोकसभा के पूर्व सांसद रह चुके हैं.)
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